प्रसन्नचित्त रहना

बहुत से लोग अपने जीवन को गम्भीरता से जीते है। उन्हे हर चीज को गम्भीरता से लेने की आदत होती है। जैसे कि उनके उदेश्य, उनकी चीजे, उनका धर्म, उनकी धारणाये, उनकी पसन्द और नापसन्द, दूसरे लोग, वो स्वयं और उनसे जुडी हर चीज।  जीवन उनके लिये एक गम्भीर मामला होता है। यहां तक कि वो हंसते भी गम्भीरता पूर्वक है। ऐसा करना शायद कोई समस्या नहीं परन्तु यहां पर मैं एक गहरे मुद्दे की ओर ईशारा कर रहा हूं - गम्भीर ईश्वर।

अगली बार जब आप मन्दिर या किसी और पूजनीय स्थान पर जाये तो सिर्फ एक या दो मिनट के लिये देखे कि वहां पर लोग कितने गम्भीर तथा बुझे हुए से हैं। अरे भगवान के बच्चे हो या उसके बन्दी? क्या वो लोग मन्दिर मे कोई सजा सुनने आये हैं? प्रसन्न रहना अपने आप मे दिव्यता का ही एक लक्षण है।  एक थोडी सी हसी भी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियो को खत्म करने की क्षमता रखती है।

हास्य एक व्यक्ति को जीवन की दौड मे होते हुए भी अलग कर देता है। हास्य की भावना होने से आप चिन्तायो के भार से मुक्त हो जाते हो तथा आपके मुख पर एक कान्ति रहती है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियो मे हंसना सीखे। कोशिश करे! यह जरा भी मुश्किल नही है। यहां मुझे मुझे भगवद गीता का एक श्लोक याद आ रहा है-
प्रसादे सर्वदुखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यव्तिष्ट्ते ।।
अर्थात एक आन्तरिक प्रसन्नता दुखों को कम करती है और ऐसे संतुष्ट तथा आनन्दित योगी अपने मन को नियन्त्रित करके भगवान मे एकाग्रचित होते है।

श्री कृष्ण प्रसन्नता के ऊपर और भी ज्ञान देते हुए कहते हैं:
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
अर्थात जो चिन्ता ना करते हुए अपने आप को सारी दुविधाओं से मुक्त कर लेते है,  वो ही भक्ति की असीम चरम सीमा को प्राप्त करते है।

तथा इसमे भी यही कहा गया है-
मनः प्रसाद सौम्यत्वं...
अर्थात्- मन की आनन्दमयी स्थिति ही तपस्या है।

अगर आपके अभ्यास मे, भगवान की प्राप्ति मे, लक्ष्य प्राप्ति मे कोई आनन्द नही है तो आपको गम्भीरता से सोचना चाहिये कि आप क्या कर रहे है।

अब आप एक बच्चे के चमतके हुए चेहरे को गौर से देखे। अदभुत! वो चेहरा इतना क्यों चमक रहा है? क्योंकि बच्चे दिल से हंसते है, वो अपने आप को स्वतन्त्रता से व्यक्त करते है। वे अपनी ही गलती पर अपने ही मूर्खता पर हंसने की क्षमता रखते है।

अब एक छोटी कथा के साथ इसका अन्त करते है-

जापान मे पहाडों मे स्थित एक ज़ेन मठ था। एक बार जब भिक्षुक ध्यान मे थे तो वहां पर भूकंप के झटके महसुस किये गये। गुरु अपने शिष्यो के साथ भाग कर रसोई मे चले गये।

जब यह झटके समाप्त हो गये तो उसने अपने शिष्यो को संबोधित किया, ”यही अन्तर है एक ज़ेन गुरु तथा एक आम आदमी मे। जैसा कि अपने देखा कि कठिन परिस्थितियों मे भी मैं कितना शान्त रहा और जरा भी नही घबराया। मै तुम सबको मठ के सबसे मजबूत हिस्से मे ले आया।  यह समझदारी का परिणाम है कि आज हम सब ठीक है  जब कि बाहर बहुत कुछ बर्बाद हो गया है। किन्तु मै भी थोडा सा डगमगा अवश्य गया था। शायद तुम लोगो ने ध्यान ना दिया हो परन्तु उसी कारण मैने तीव्रता से पानी का एक बडा गिलास पी डाला जो कि शायद मैं साधारण परिस्थिति मे ना करता।

यह सुन कर एक छोटा भिक्षुक हंस पडा।

”और तुम किस बात पर हंस रहे हो।” गुरु ने झुंझलाते हुए पूछा।

“गुरु जी, जो आपने पिया वो पानी नही था।” छोटे भिक्षुक ने सिर झुका कर कहा, ”अपितु खांसी की औषधी थी।”

आत्म-अनुभूति का यह अर्थ नही कि आप अपना आनन्द खो दे।  वास्तव मे इसका अर्थ यह कि आप प्रत्येक क्षण आत्म-आनन्द की अनुभूति करें।



शान्ति
स्वामी

इस लेख का हिन्दी अनुवाद अज्ञात रूप मे एक भक्त ने किया है  अंग्रेजी में पढ़ने के लिये यहां जायें

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