कौपीन और सांसारिक जगत का सत्य

आकांक्षाओं के गुणसूत्र एक दूसरे से जुड़े होते हैं।
कुछेक लोगों ने मुझसे संपर्क करने के विकल्पों और आश्रम परियोजना में अंशदान के विषय में प्रश्न किया है। इससे पहले कि मैं उनके प्रश्न का उत्तर दूँ, मैं एक कहानी कहने जा रहा हूँ जो मैंने बीस साल पहले बच्चों की बोध कथा में पढ़ी थी।  

एक समय की बात है एक गुरु और शिष्य जो दीक्षित सन्यासी थे एक गांव के बाहर आनंद पूर्वक निवास करते थे। जब गुरु ने शिष्य को समस्त शिक्षाएं दे दीं तो उन्होंने कुछ वर्षों के लिए एकांत में तपस्या करने का निश्चय किया और शिष्य को अपने विचार से अवगत कराया। गुरु ने शिष्य को सन्यास ग्रहण करने के समय लिए गए प्रण, त्याग के विषय में दिशा निर्देश दिया। उसे अपने नित्य कर्म में स्थित रहने तथा आध्यात्मिक अनुशासन का पालन करने को कहा और शिष्य को शुभाशीर्वाद दे कर चल दिए।

शिष्य ने अत्यल्प सम्पत्ति के साथ सात्विक जीवन व्यतीत करना आरम्भ कर दिया। भोजन बनाने के दो बर्तन, भिक्षापात्र, दो जोड़ी गेरुए वस्त्र एवं कौपीन ही उसकी सांसारिक सम्पदा थीं। एक दिन उसने पाया कि उसकी कौपीन को चूहों ने कुतर कर नष्ट कर दिया। यह देख वह अत्यंत अशांत हो गया। उस दिन जब वह भिक्षाटन के लिए गया तो उसने किसी ग्रामीण से एक कपड़े की याचना की। दाता ने उसे दान दे कर उपकृत किया। अगले दिन फिर वही हआ, चूहों ने उस कपड़े को भी तार तार कर दिया। अब शिष्य को नया वस्त्र भिक्षा में मांगना असहज लगने लगा, तब भी उसने दूसरा मांग लिया। आवश्यकताएं ऐसे ही आत्मसम्मान पर हावी हो जाती हैं जिस प्रकार वासनाएं नैतिकता और बुद्धि को हर लेती हैं। दाता ने उसे एक बिल्ली पालने की सलाह दे दी जिससे कि चूहों का नाश हो सके। शिष्य को यह विचार उचित लगा तथा उसी दिन शिष्य ने बिल्ली का प्रबंध कर लिया। जैसा उसने सोचा चूहे ऐसे गायब हो गए जैसे कि वे कभी वहां थे ही नहीं, जैसे कि सांसारिक उपलब्धियां।

कुछ दिन व्यतीत होते हैं और अब शिष्य के सामने एक नयी समस्या खड़ी हो जाती है। सत्य है कि सांसारिक जगत का स्वरूप ऐसा ही है; यह इतना ही अस्थायी और अस्थिर है। उसे अब बिल्ली को भोजन देना था तथा उसके लिए उसे और अधिक भिक्षा की आवश्यकता थी। एक बुद्धिमान आत्मा ने उसे गाय पालने की सलाह दी। उसने तर्क दिया कि दूध से बिल्ली के आहार की पूर्ति भी हो जायेगी और सन्यासी के भोजन की पूर्ति भी हो जाया करेगी। गांव के एक सहृदय व्यक्ति ने गौ दान भी कर दिया। शिष्य अब ये सोचते हुए सुखपूर्वक कल्पना करने लगा कि अब उसे भांति भांति के दुग्ध पदार्थ सहज ही प्राप्त हो जायेंगे।

कुछ और दिन बीतते हैं, अब शिष्य के पास एक कुटिया, बिल्ली और गौशाला में गाय आ जाते हैं, और हाँ अब उसकी कौपीनें सुरक्षित हो जाती हैं। गाय को चारा खिलाने नहलाने और दूध निकालने में दिन का अधिकतर समय बीत जाता है। उसे साधना के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता। आखिरकार, वह दीक्षित सन्यासी का जीवन नहीं जी रहा होता तो कौपीन की आवश्यकता ही ना होती। वह अपनी कठिन परिस्थिति को एक बुद्धिमान गृहस्थ के सामने रखता है। बुद्धिमान व्यक्ति जिनके बाल अभी अभी पके होते हैं, प्रसंगवश एक विवाह योग्य पुत्री के पिता होते हैं। शिष्य के निष्छल व्यक्तित्व एवं गुणों को देख कर अपनी पुत्री से विवाह का प्रस्ताव देते हैं। शिष्य इसमें लाभ अधिक तथा हानि कम देखता है। वह तैयार हो जाता है; एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया, क्योंकि हताशा में व्यक्ति की सोच कुंठित हो जाती है और सभी उपाय उचित लगते हैं।

उसकी पत्नी एक भद्र औरत सिद्ध होती है। वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगते हैं और शिष्य के लिए सब कुछ सहज हो जाता है। उसकी दैनिक आवश्यकतायें चतुर एवं निष्ठावान गृहणी पूर्ण करती है। उसे और अधिक भूमि एवं पशु उसके कुटिया के आस पास लेने को उत्साहित करती रहती है, ताकि वे अधिक दूध बेच सकें और अधिक धन अर्जित कर सकें। कुछ समय पश्चात उनके तीन बच्चे भी हो जाते हैं। अब साधू ने अपनी आध्यात्मिक साधनाओं से समझौता कर लिया क्योंकि वह अब पाता है कि धनोपार्जन करना तथा भौतिक जीवन व्यतीत करना अधिक आकर्षक है। कभी कभी वह अपने गुरु का स्मरण कर लेता और उसे अपने प्रण के त्याग पर ग्लानि भी होती। परंतु जब आप युवा हों और धनार्जन करते हों तो सांसारिक जीवन आकर्षक प्रतीत होता है।

एक दिन गुरु अपने बारह वर्षों की तपस्या पूर्ण कर उस स्थान को वापस आते हैं, और उस जगह को कनखियों से देखते हैं। वह स्थान अब दसियों गायों और नौकरों से युक्त बीस गुना बड़ा दिखता है जो की वे छोड़कर गए थे। वे सोचते हैं किसी धूर्त ने उनके शिष्य को भगा कर उस जगह को हड़प तो नहीं लिया। वे निर्णय लेते हैं कि अंदर जाकर अपनी दीर्घ तपस्या के बल पर उस धूर्त को शापित करेंगे। इससे पहले कि वे और क्रोधित हों उनका आदर होता है एक दंडवत प्रणाम से (प्रणाम की सबसे सम्मान पूर्ण विधि)। वे जो देखते हैं उस पर विश्वास नहीं करना चाहते। उनका शिष्य- एक गृहस्थ के वस्त्रों में। इससे पहले कि वे अपनी भावनाओं पे नियंत्रण पाएं, शिष्य अपने तीनों बच्चों को भी अपने गुरु के चरणों में प्रणाम करने का संकेत करता हैं। अचंभित एवं विचलित गुरु स्वयं को चिकोटी काटकर ये सुनिश्चित करते हैं कि कहीं वे स्वप्न तो नहीं देख रहे।

अत्यधिक जिज्ञासा और गहन निराशा के साथ वे अपने शिष्य की परिस्थिति को समझने के लिए शिष्य को एक ओर ले जाते हैं “तुम इन सब में कैसे उलझ गए?” गुरु ने घृणा में सर हिलाते हुए कहा। शिष्य ने अपना मस्तक नीचे किया और फिर दृष्टि को झुकाते लज्जापूर्वक धीमे स्वर में कहा -  “मैंने ये सब अपनी कौपीन की रक्षा के लिए किया”।

मुझे आशा है कि आपने अपना उत्तर इस कहानी से प्राप्त कर लिया होगा।

मुझसे संपर्क करने के लिए – आप मुझसे संपर्क करने के लिए मुझे ईमेल कर सकते हैं, मेरे ब्लॉग पे आ सकते हैं अथवा व्यक्तिगत रूप से मिल सकते हैं। मैं फोनकाल्स को वरीयता नहीं देता।

वर्तमान में मुझे एक ही सहयोग चाहिए – ऐसा कोई जो हिंदी एवं अंग्रेज़ी में निपुण हो। अधिकांश लोग अंग्रेज़ी ब्लॉग और लेखनों को हिंदी में भी पढ़ना चाहते हैं। तो मुझे एक ऐसे अनुवादक की आवश्यकता है जो सभी के भले के लिए अपना योगदान कर सके - ये अवश्य ही एक बड़ा योगदान होगा यदि आप किसी ऐसे व्यक्ति को खोज सकें। 

हरे कृष्ण।
स्वामी
Print this post

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Share