भज गोविन्दम भाग - २

वास्तविकता को समझें - भज गोविन्दम शृंखला. वीडियो [2 की 6]

 
यह द्वितीय व्याख्यान है -
 
बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावत् चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥7॥
 
सारे बालक क्रीडा में व्यस्त हैं और नौजवान अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करने में समय बिता रहे हैं। बुज़ुर्ग केवल चिंता करने में व्यस्त हैं। किसी के पास भी उस परमात्मा को स्मरण करने का वक्त नहीं।
  
का ते कांता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयं अतीव विचित्रः।
कस्य त्वं कः कुत अयातः तत्त्वं चिन्तय यदिदं भ्रातः ॥8॥
 
कौन है हमारा सच्चा साथी? हमारा पुत्र कौन हैं? इस क्षण-भंगुर, नश्वर एवं विचित्र संसार में हमारा अपना अस्तित्व क्या है? यह ध्यान देने वाली बात है।  
 
सत्संगत्वे निःसंगत्वं, निःसंगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥9॥
 
संत परमात्माओ के साथ उठने बैठने से हम सांसारिक वस्तुओं एवं बंधनों से दूर होने लगते हैं।
ऐसे हमें सुख की प्राप्ति होती है। सब बन्धनों से मुक्त होकर ही हम उस परम ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं। 
 
वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥10॥
 
यदि हमारा शरीर या मस्तिष्क स्वस्थ नहीं तो हमें शारीरिक सुख की प्राप्ति नहीं होगी। वह ताल ताल नहीं रहता यदि उसमें जल न हो। जिस प्रकार धन के बिखर जाने से पूरा परिवार बिखर जाता है, उसी तरह ज्ञान की प्राप्ति होते ही, हम इस विचित्र संसार के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं।  
 
मा कुरु धन-जन-यौवन-गर्वं, हरति निमेषात्कालः सर्वम्।
मायामयमिदमखिलं हित्वा ब्रह्म पदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥11॥
 
हमारे मित्र, यह धन दौलत, हमारी सुन्दरता एवं हमारा गुरूर, सब एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। कुछ भी अमर नहीं है। यह संसार झूठ एवं कल्पनाओं का पुलिंदा है। हमें सदैव परम ज्ञान प्राप्त करने की कामना करनी चाहिए।
 
भज गोविन्दम भाग- २ का प्रवचन हिन्दी में सुनने के लिए नीचे क्लिक करे।
 

 
भाग - ३ अगले हप्ते...

शांति।
स्वामी
 
 

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