कैसे आलोचना का सामना करें

अन्य लोग जो आप में देखते हैं, वह उनके निज का ही प्रतिविम्ब होता है। जो स्वभाव या लक्षण आप में नहीं है, वह आप दूसरों में नहीं देख सकते हैं।
आलोचना अपरिहार्य है। आलोचना सदैव दूसरे व्यक्ति की राय होती है। यदि आप उनकी धारणासे सहमत हैं, तो  उनकी आलोचना आपको स्वयं में सुधार लाने के लिए प्रेरित कर सकती है। परंतु यदि आप सहमत नहीं हैं, तो संभवतः आप नकारात्मकता को अंगीकार कर  रहे हैं। नकारात्मक भावनाएं आप को दुर्बल बनाती हैं । कभी कभी आलोचना का सामना करना कठिन हो सकता है, विशेषकर जब आलोचना अपने प्रिय लोगों से आती है। जब दूसरे आप पर अपनी नकारात्मकता और राय थोपते हैं, उस क्षण ये निर्णय आप पर है कि आप उस आलोचना को अस्वीकार करते हैं, त्याग देते हैं या जाने देते हैं। यदि आप ऐसा करें तो आप शांतिपूर्ण रहेंगे और आपके ह्रदय को अधिक ठेस भी नहीं पहुंचेगी। चलिए मैं आपको एक कहानी सुनाता हूँ:

जापान में एक मठ था, जो अनेक वर्ष पहले एक चीनी गुरु द्वारा स्थापित किया गया था। वॊ गुरु और उनके अनुयायी इस बात के लिए जाने जाते थे कि वे बौद्ध धार्मिक ग्रंथों, बुद्ध की प्रतिमाओं और धर्म चिन्हों को नष्ट कर देते थे। उनका तर्क था कि ऐसा करने पर वे हर प्रकार के बंधन और लगाव से मुक्त हो सकते हैं। वे मानते थे कि इस प्रकार के प्रतीक और ग्रंथ व्यक्ति को मुक्त करने के बजाय व्यक्ति के मन को बाँध देते हैं। चीनी स्वामी के इन अद्भुत विधियों के द्वारा अनेकों को आत्म-बोध प्राप्त हुआ । किन्तु जो लोग उनके विधियों से असहमत थे वे उनकी भारी आलोचना किया करते थे।

एक बार दो साधक उस मठ में पधारे। दोनों शिक्षित थे - उनमें से एक उत्तरी अमेरिका में प्राध्यापक थे। मठ के संस्थापक के बारे में उनके विचार पूर्वाग्रही थे। मठाधीश ने उनका स्वागत किया और उन्हें मठ का दौरा कराया। दौरे के अंत में मठ के सर्वश्रेष्ठ गुरु श्रद्धांजलि देने उन्हें संस्थापक की एक मूर्ति की ओर  ले गये। दोनों साधक व्याकुल और परेशान हो गए क्योंकि उन्होंने चीनी संस्थापक के तरीकों के बारे में पढ़ रखा था और वे उनसे असहमत थे। फिर भी वे मठ के सर्वश्रेष्ठ गुरु के पीछे चुपचाप चलते रहे।

जब मठ के गुरु प्रतिमा के सामने झुके, प्राध्यापक से रहा नहीं गया और वो बोले - "यह व्यक्ति जिसे आप पूजते हैं, उन्होंने बुद्ध की प्रतिमाओं को जलाया और उन पर वह थूका! आप इस के आगे सर क्यों झुकाते हैं ? "
मठ के गुरु ने शांत स्वर में कहा - "यदि आप थूकना चाहते हैं तो आप थूकिए। मैं तो इनके आगे सर झुकाना पसंद करता हूँ।"

देखा आपने! आप थूकना चाहते हैं कि सर झुकाना चाहते हैं यह आप चुनते हैं। इसी प्रकार कोई और थूकना चाहता है कि सर झुकाना चाहता है यह वह चुनता है। आप को जो पसंद आए वह चुनिये, और दूसरों को जो पसंद आए उन्हे वह चुनने दीजिए। मुझे एक कहावत याद आती है - "जो आप से प्रेम करते हैं उन्हे स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है, और जो लोग आप को प्यार नहीं करते हैं वे तो वैसे भी आप का विश्वास नहीं करेंगे।" जब आप को आलोचना का सामना करना पड़े, तो स्पष्टीकरण दे सकते हैं, किन्तु केवल यदि आप सच में ऐसा करना चाहते हैं तो। उससे अधिक आप दूसरों के विचारों के बारे में सोच कर चिंतित मत होइये। तुरंत उसे अस्वीकार कीजिए।

आपकी स्वतंत्रता और आंतरिक आनंद केवल आपके हाथों में है। यह आप ही की मानसिक स्थिति है। जिसे आप स्वीकार नहीं करते हैं, वह आप को कभी भी प्रभावित नहीं कर सकता। और आप ही के समान, हर एक को अपने विचार प्रकट करने का अधिकार है। जब तक आपकी मानसिक स्थिति ऐसी ना हो कि आप पर आलोचना का कोई प्रभाव ना हो, तब तक आपको आलोचना का सामना करने के लिए कोई विधि खोजनी चाहिए। यहाँ पर मैं आप के लिए कुछ विधियों का वर्णन करता हूँ :

१. अपने आप को शारीरिक रूप से दूर करें: यदि आप अपने आप को वहाँ से हटा लें तो आपको उनके विचार नहीं सुनने पड़ेंगे । जब आप सुन नहीं पायेंगे की वो क्या कह रहे हैं तो आप दुखी या आहत नहीं होंगे । उदाहरणार्थ आप उस जगह को छोड़ कर बाहर टहलने के लिए जा सकते हैं।

२. मानसिक रूप से लुप्त हो जाएँ: यदि आप अपना ध्यान कहीं और केंद्रित कर दें, ताकि आप अपने अंतःकरण का संगीत सुनें, तो आप अपने आनंदमय स्थिति को रख पायेंगे । यह इस समान है कि एक व्यक्ति अपने आइपॉड पर संगीत सुन रहा हो और दूसरा व्यक्ति टीवी देख रहा हो। दोनों अपने अपने पसंद का काम कर रहे हैं और किसी को कोई परेशानी नहीं है।

३. कल्पना करें: मन में एक दृश्य बनायें जो आप की मदद कर सके। जब कोई निरंतर अपने विचार आप पर थोप रहा हो, तो आप मन में यह कल्पना करें कि आप के सामने कोई बच्चा बकबक कर रहा हो या कोई रेडियो बज रहा हो - इस प्रकार उनकी बातों का आप पर कोई असर नहीं होगा।

४. सहानुभूति दिखाएँ: यदि आप ध्यान दें तो आपको यह पता चल जाएगा कि जो आप की आलोचना करते हैं वह स्वयं अपने आप को असुरक्षित महसूस करते हैं। जिनके ह्रदय में केवल आनंद और शांति की भावना हो वह दूसरों की आलोचना नहीं करते हैं। वह विनम्रता से अपने विचार और दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, परंतु किसी की आलोचना नहीं करते हैं। अगली बार जब कोई आपकी आलोचना करता है, आप अपने ह्रदय में उसके प्रति सहानुभूति भर लें। अपने जीवन में उन्हें ना जाने किन परेशानियों का सामना करना पड़ा हो। संभवतः दूसरों की निंदा कर के ही वे अपने आप को सुरक्षित पाते हैं। ऐसे में सहानुभूति की विधि ही सबसे करुणामय विधि है। यदि आप इसे अपना सकें तो न केवल आप शांति का अनुभव करेंगे, आप दूसरे व्यक्ति में एक परिवर्तन भी ला सकते हैं।

जिस प्रकार जब आप किसी विमान में यात्रा करते हैं तब आप अपना भाग्य विमान चालक के हाथ सौंप देते हैं, उसी प्रकार जब आप किसी से बहस करने लगते हैं, तब उस बहस का परिणाम अकेले आप ही के हाथ में नहीं होता है। यदि आलोचना का जवाब आप आलोचना से देते हैं, तो आप और नकारात्मकता की भावना पैदा करते हैं और फिर स्थिति आपके वश में नहीं रह जाती। तर्क वितर्क से संभवतः आप किसी को चुप कराने में सफल हो सकते हैं परंतु सत्य तो यह है कि ऐसे नकारात्मक विवादों में सबकी हार ही होती है।

क्या आप भी दूसरों की आलोचना करते हैं? यदि आप दूसरों की सराहना नहीं कर सकते हैं तो कम से कम आप उनकी निंदा तो मत कीजिये । किसी में सुधार और परिवर्तन लाने में और किसी की निंदा करने में अंतर होता है। यदि आप किसी के दृष्टिकोण को नहीं समझ पा रहे हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वे गलत हैं। निष्पक्ष होना सीखिए।

हाँ, संभवतः आपको सम्पूर्ण रूप से विश्वास है कि आप सही हैं और दूसरा व्यक्ति गलत है। हो सकता है निश्चित रूप से आप यह भी जानते हैं कि वह अपने आप को सुधारने के लिए क्या कर सकते हैं। संभवतः आपके मन में कोई संदेह नहीं है कि आप निष्पक्ष और सही हैं। परंतु सच तो यह है कि दूसरे व्यक्ति को भी खुद के बारे में बिल्कुल ऐसा ही लगता है!

याद रखें कि यह केवल आप ही पर निर्भर है कि आप दूसरे व्यक्ति की आलोचना से प्रभावित होते हैं कि नहीं।

शांति।
स्वामी
 

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