साधना के चार स्तंभ


आत्म परिवर्तन का अभ्यास चार स्तंभों पर टिका है। आगे पढ़ें।
रामायण की एक कथा में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि राजा प्रतापभानु एक तपस्वी की तंत्र-मंत्र शक्तियों की निपुणता देख चकित हो जाते हैं। तब वह तपस्वी राजा को कहते हैं:

जनी अचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं।।
तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्ताता।।
तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा।। (तुलसी रामायण, १.१६२.१-२)

हैरान मत हो राजन। साधना से कुछ भी असंभव नहीं। तपस से ही ब्रह्मा सृजन करते हैं, विष्णु रक्षा करते हैं और शिव विनाश करते हैं। तपस्या द्वारा तीनों लोकों में कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है।

साधना में सफलता प्राप्त करने का कोई सरल मार्ग् नहीं है। साधना की सफलता अभ्यास की मात्रा, उत्कृष्टता तथा निरंतरता पर निर्भर है। सर्वोत्कृष्ट दृढ़ता का फल अनोखा होता है। पतंजलि योग सूत्र में वे कहते हैं योगक्ष्चित्तवृत्तिनिरोध: (पतंजलि योग सूत्र, १.२)। अर्थात योग मानसिक छाप को मिटाने की साधना है। अथ योगानुशासनम् (पतंजलि योग सूत्र, १.१) अर्थात "अब योग का अनुशासन आरंभ होता है" कह कर वे आरंभ करते हैं। लक्ष्य की प्राप्ति तक दृढ़ता एवं सतर्कता से अनुशासन का पालन करना ही साधना है।

आत्म परिवर्तन का योग स्वयं के भीतर जाने में साधक की सहायता करता है। अनुशासन के अतिरिक्त साधना में सफलता साधक (आकांक्षी), सिद्ध (गुरु), साध्य (लक्ष्य) तथा साधना (संसाधन) नामक चार प्रमुख पहलुओं पर निर्भर होता है। इन चारों में से किसी एक का अभाव भी अभ्यास को अस्थिर बना देता है। पत्थरों का महल भंगुर एवं अस्थायी रेत के महल समान बन जाता है। साधना आरंभ करने से पहले उसके मूल सिद्धांतों को समझना लाभदायक होगा -

१. साधक (आकांक्षी):
साधक वह है जो पथ के प्रति स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर दे। उसे सामग्रिक गतिविधियों की निरर्थकता का अहसास है और स्वाभाविक रूप से भौतिक सिद्धियों की उपेक्षा करता है (वैराग्य)। उसे यह ज्ञान है कि सांसारिक कार्यों में सफलता जितनी भी हो वह नश्वर है। इसके अतिरिक्त भौतिक सुख की तलाश अत्यंत दुख एवं भय का कारण होती है। सांसारिक कार्यों के करने से पूर्व असफलता का भय रहता है। यदि आपको इस भय से मुक्ति मिल भी जाए तो दूसरा भय आपने जो प्राप्त किया है उसे खोने का है। हम अपनी उपलब्धियों को पकड़ के रखने में और उसकी रक्षा करने में व्यस्त रहते हैं। साधक वह है जिसने इस भय से परे जाने का निर्णय कर लिया। जिसने अपने मन की प्रवृत्तियों को पार कर अपनी भीतरी शांति एवं वास्तविक स्वभाव तक पहुँचने का निर्णय कर लिया। जिस प्रकार व्यवसायी के बिना कोई व्यवसाय नहीं होता, उसी प्रकार साधक ही अभ्यास का मुख्य स्तंभ होता है।

साधक को सर्वोपरि दो बातों का ध्यान होना चाहिए - अभ्यास और वैराग्य।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
(भगवद गीता, ६.३५)
हे योद्धा! निस्संदेह, अपने मन को परास्त करना एक असाधारण उपलब्धि है। परंतु अर्जुन, अभ्यास और वैराग्य से यह संभव है।

यदि आकांक्षी बाहरी दुनिया के भौतिकवादी या संवेदी गतिविधियों में सुख खोजने में व्यस्त है तो यह उसकी भीतरी खोज में बाधा बन जाएगी। उसका प्रयास मन्द पड़ जाएगा। आकांक्षी को भौतिक संसार की अस्थायी, अवास्तविक एवं स्वार्थी स्वभाव पर चिंतन करना चाहिए । हमें जो भी बांधता है उसके त्याग फलस्वरूप ही साधक को वैराग्य प्राप्त होता है। यदि आप बिना आसक्ति के आनंद उठाना सीख गए तो समझ लीजिए आप जीने की कला सीख गए। सुख नहीं सुख से लगाव ही हमें बांधता है। हर परिस्थिति में समान रहने से वैराग्य प्राप्त होता है। समता नित्य उपस्थित मन से आता है और यह आप को आप की साधना में दृढ़ रहने में मदद करता है। और एक सतर्क मन ध्यान का ही स्वाभाविक परिणाम है।

२. सिद्ध (गुरु):
गुरु एक निपुण सिद्ध हैं जिन्हें वास्तविकता का बोध है। वे साधक का मार्गदर्शन करते हैं और साधना में होने वाली बाधाओं को पार करने में साधक की मदद करते हैं। गुरुओं ने कईं युगों से शिष्यों को विभिन्न योग एवं प्रथाओं की शिक्षा दी है। एक प्रतिबद्ध साधक को स्वत: ही उसका गुरु मिल जाता है। यह लगभग एक पूर्व निर्धारित मिलन के समान है। एक गुरु की तलाश में जाने कि कोई आवश्यकता नहीं है। जब आप अपने अभ्यास में दृढ़ रहेंगे तब प्रकृति स्वयं आपके जीवन में गुरु की व्यवस्था कर देगी। उस समय तक आप सही गुरु से मिलकर भी अनजान और अनभिज्ञ रहेंगे। बिना विचार करे गुरु का चयन न करें। गुरु का चयन एक औपचारिकता नहीं है। वे केवल आपकी सूची में टिक करने की वस्तु नहीं हैं।

एक उचित गुरु आपके हर संदेह को दूर कर सकते हैं। वे आपकी साधना में आने वाली बाधाओं को दूर करने में और आपकी आध्यात्मिक प्रगति में मदद कर सकते हैं।
अ भवेत्संगयुक्तानां तथाग्विक्ष्वासिनामपि।
गुरुपूजाविहीनानां तथा च बहुसंगिनाम्।।
मिथ्यावादरतानां तथा च निष्ठुरभाषिनाम्।
गुरुसन्तोषहीनानां न सिध्दि: स्यात्कदाचन।।
(शिव संहिता, ३.१७-१८)
उसको आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होगी जो भौतिक संसार से जुड़ा है, जिसमें विश्वास का अभाव है, जिसमें अपने गुरु के प्रति कोई भक्ति नहीं, जो सामाजिकता में रमण है, जो असत्य बोलता है, जो कठोरता से बात करता है, जो गुरु की जरूरतों की उपेक्षा करता है।

एक गुरु अपरिहार्य नहीं है। मैं यह कह कर शास्त्रों के कथन से कुछ अलग कह रहा हूँ। मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर यह कह रहा हूँ। यह बात सही है कि एक उचित गुरु निश्चित रूप से आप की यात्रा की गति बढ़ा सकते हैं। परंतु यदि आप में आत्म बोध की इच्छा की कमी हो तो न केवल गुरु बल्कि भगवान भी आपके लक्ष्य को पाने में मदद नहीं कर सकते हैं। जैसे एक सक्षम आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्य की सर्वश्रेष्ठता को उभरने में मदद कर सकते हैं वैसे ही एक समर्पित शिष्य भी अपने गुरु से सर्वश्रेष्ठ विद्या प्राप्त कर सकता है। भक्ति, विश्वास, ईमानदारी, सेवा एक श्रेष्ठ साधना के उपादान हैं। जो गुरु आप से भौतिक वस्तुओं की अपेक्षा करते हैं या आप जो अर्पण करते हैं उसके अनुसार आपको समय देते हैं उस गुरु को एक बुरा स्वप्न समझ कर भूल जाना चाहिए। जो स्वयं तृष्णा में फंसा हुआ है वह आप को वैराग्य कैसे सिखा सकता है?

नथ संप्रदाय की एक कहावत है कि गुरू बनायो जानी के, पानी पीयो छानी के! अर्थात पानी को छानकर पीना चाहिए और गुरु बनाने से पहले पूर्ण रूप से जांचना चाहिए।

३. साध्य (लक्ष्य)
तीसरा महत्वपूर्ण स्तंभ साध्य (लक्ष्य) है। अपने लक्ष्य को जानना अत्यंत आवश्यक है। आत्म परिवर्तन के योग में कईं छोटे-छोटे गंतव्य हैं जिनका उद्देश्य साधक का मार्गदर्शन करना है। यदि आप अपने लक्ष्य को नहीं जानते तो कुछ छोटी सी प्राप्ति से आप को लगेगा कि आप ने सब कुछ प्राप्त कर लिया या सब कुछ प्राप्त करने के बाद भी आप को लगेगा कि आप ने कुछ प्राप्त नहीं किया। गंतव्य को जानने के बाद ही आप अपनी साधना के विषय में निर्णय ले सकते हैं। कुछ व्यक्ति मनोगत शक्तियां चाहते हैं। कुछ व्यक्ति समाधि चाहते हैं और कईं केवल जीने का एक बेहतर ढंग चाहते हैं। योग अभ्यास से कुछ भी संभव है। एक योगी का लक्ष्य योग समाधि हो सकता है। एक मंत्रिन का लक्ष्य मंत्र की अव्यक्त शक्तियों का आह्वान करना हो सकता है। लौकिक व्यक्ति का लक्ष्य धन कमाना हो सकता है। अस्वस्थ लोगों का लक्ष्य स्वस्थ बनना हो सकता है। जो कुछ भी हो एक लक्ष्य का होना तथा उसके अनुसार कार्य करना अत्यावश्यक है।

मैं वैष्नव: तांत्रिक पाठ से एक छंद प्रस्तुत करता हूँ:
आराध्यैतो यदि हरिस्तपसा तत: किम्।
नारादितो यदि हरिस्तपसा तत: किम्।।
अन्तर्वहिर्यदि हरिस्तपसा तत: किम्।
नान्तर्वहिर्यदि हरिस्तपसा तत: किम्।।
(नारद पंचरात्रा, १.२.६)
यदि आप की पूजा आप को श्री हरि की ओर ले जाता है तो किसी और तपस्या की कया आवश्यकता है? किसी भी तपस्या का क्या लाभ यदि वह श्री हरि की ओर नहीं लेकर जाता है? यदि आप पूर्ण मन और तन से श्री हरि की पूजा करते हैं तो तपस की कोई आवश्यकता नहीं। यदि आप पूर्ण मन और तन से श्री हरि की पूजा नहीं करते हैं तो तपस का कया लाभ हो सकता है।

इस व्याख्यान को कईं बार पढ़ें और इसकी गंभीरता को समझें। भक्ति भावना के साथ बोला गया यह व्याख्यान साधना के सार को स्पष्ट करता है। अर्थात साधना के पथ पर लक्ष्य से कभी भी दृष्टि नहीं हटनी चाहिए। यदि जिस रास्ते पर आप चल रहे हैं वह रास्ता आप को लक्ष्य की ओर नहीं ले कर जा रहा है तो उस पथ पर अपना समय नष्ट क्यों करें? नियम, अनुशासन, प्रणाली एवं दर्शनशास्त्र केवल लक्ष्य तक पहुँचने में आप की मदद करते हैं। उनका पालन करें परंतु उन पर विचार भी करें। आपकी साधना आपके साध्य को प्राप्त करने के लिए है। साध्य की प्राप्ति पर आप स्वयं के नियमों को परिभाषित करने के लिए तैयार हो जाते हैं। आप स्वतंत्र बन जाते हैं। पूर्णतः स्वतंत्र। शुरू में नियमों का पालन करना आवश्यक है। जैसे सड़क पर गाडी चलाते समय स्वयं और दूसरों की सुरक्षा के लिए आप नियमों का पालन करते हैं। परंतु घर पहुँचने के बाद गलियों (लेन्ज़) में चलने या मुड़ने से पहले संकेत देने जैसे सड़क के नियमों का पालन नहीं करते हैं। जिस प्रकार सड़क के चिह्न आपका मार्गदर्शन करते हैं उसी प्रकार कोई भी अनुशासन आप के आध्यात्मिक पथ की सहायता के लिए होते हैं। यदि आप अपने अनुशासन को एक दृष्टि हीन रस्म बना दें तो आप का पथ आनंद और उल्लास से रहित निरर्थक प्रथाओं का संग्रहण बन जाएगा।

४. साधन (संसाधन):
अंतिम पहलू है साधन (संसाधन)। संसाधन के बिना अभ्यास करना असंभव है। संसाधन से मेरा अर्थ पर्याप्त धन जमा करने का नहीं है। प्रारंभिक चरणों में आप अपने घर में बैठ कर अभ्यास शुरू कर सकते हैं। साधना में प्रगति के साथ आप को कम से कम छः महीनों में एक सप्ताह, दस दिन या एक महीने की एकांत-वास का प्रयास करना चाहिए। इस एकांत-वास में घोर तपस आप का दिनचर्या होगा।

साधना में बढ़ती हुई उन्नति के साथ मौन और एकांत के गंभीर अभ्यास के लिए एक निस्तब्ध स्थान की आवश्यकता होगी। तीव्र अभ्यास के बिना कोई उत्कृष्ट परिणाम नहीं मिलेगा।

इस लेख में वर्णित बातों से चिंतित होने की आवश्यकता नहीं। शुरू में प्रबल इच्छा, निरंतर अभ्यास का संकल्प, नैतिक पवित्रता तथा आध्यात्मिक और योग अनुशासन की आवश्यकता है। एक सच्चे साधक की हर आवश्यकता की पूर्ति की व्यवस्था परमात्मा करते हैं। यह मैं स्वयं के अनुभव से कह रहा हूँ।

यात्रा का आनंद लें!

शांति।
स्वामी


समाधि का अर्थ

एक पाठक ने निम्नलिखित टिप्पणी की:

हरि बोल प्रभु जी!

मैं बड़ी उत्सुकता से आपके अगले लेख की प्रतीक्षा कर रहा हूँ और आशा करता हूँ कि आपकी कृपा से सत्य को समझने में सफल हूँगा। मेरा आप से एक प्रश्न है। प्रश्न समाधि के विषय पर है। समाधि या विशुद्ध परमानंद का क्या अर्थ है? मेरा यह समझना है कि समाधि एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति स्वयं की वास्तविकता जान लेता है, अर्थात उसे ईश्वर और स्वयं में कोई अंतर नहीं दिखाई देता। व्यक्ति को यह अहसास होता है कि वह शरीर नहीं चेतन है। जैसे राजा जनक ने सत्य को साकार करने के बाद श्री अष्टावक्र गीता में कहा "मैं अद्भुत हूँ, मैं स्वयं को नमन करता हूँ"।

कृपया आप के इस तुच्छ भक्त का मार्गदर्शन करें।

हरे कृष्ण!
अमित
["आत्म परिवर्तन का योग - मेरा दृढ़ संकल्प" नामक लेख पर यह टिप्पणी की गई ]
मेरे विचार में समाधि का अर्थ है उस एक परमात्मा के समान हो जाना, उस के बराबर हो जाना। उपाधि का अर्थ है लगभग उस जैसा हो जाना, समझ लीजिए केवल एक पद नीचे। परंतु समाधि का अर्थ है पूर्ण रूप से ईश्वर के समान होना। उस दृष्टिकोण से, आप सही हैं कि समाधि एक ऐसी स्थिति है जिसमें आप अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित हैं। परंतु केवल जानने और अनुभव करने में अंतर होता है। सुने-सुनाये ज्ञान से व्यक्ति समाधि के विषय में जानकारी अवश्य प्राप्त कर सकता है परंतु समाधि की वास्तविक स्थिति को पूर्ण रूप से समझने के लिए उसे स्वयं उस अवस्था में जाना होगा। उसे स्वयं अहसास करना होगा। समाधि का अनुभव करना होगा।

व्यक्ति परिस्थितियों एवं समाज से प्रभावित हो जाता है, इसी कारण समाधि की अवस्था की अनुभूति नहीं कर पाता है। यदि वह इस अनुभवातीत स्थिति की प्राप्ति कर ले तो उस के बाद उसे केवल स्वयं को प्रभावित ना होने की अवस्था में रखना है, तब समाधि की स्थिति बने रहेगी। इसके अतिरिक्त - अतुलनीय संवेदना एवं उत्तेजना शरीर से उभरेगी, विशेष रूप से अज्ञा चक्र और सहस्रार में। उत्तेजना इतनी गहरी होगी कि आपको बाहरी कुछ भी दिलचस्प नहीं लगेगा। बाहरी दुनिया आपके आंतरिक स्थिति से अनभिज्ञ रह सकता है, परंतु उत्तेजना और अद्वितीय आनंद आप के भीतर बहता रहेगा। जागृत अवस्था में आप लगातार ऐसी उत्तेजना महसूस करेंगे। यही समाधि की अवस्था है। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है और जो भी प्रयत्न करने के लिए तैयार है वह भी अनुभव कर सकता है। जिस प्रकार जल में लहर गठित हो सकता है परंतु बर्फ में नहीं, उसी प्रकार समाधि में आप बिना चंचलता के स्थायी रूप से परमानंद का अनुभव करते हैं। क्रोध, वासना, घृणा और अन्य नकारात्मक भावनाएं आप के अंदर उभर ही नहीं सकतीं।

समाधि मात्र किसी उज्ज्वल चमक को देखना या क्षण-भंगुर ब्रह्मांड से संयोग महसूस करना नहीं है। ऐसे अनुभव का क्या लाभ? वह कैसे किसी को परिवर्तित कर सकता है? आधुनिक युग के कईं ग्रंथ आपको यह विश्वास दिलाते हैं कि ध्यान में बैठे रहो और एक दिन आपको अचानक समाधि प्राप्त हो जाएगी। यह सब निरर्थक बातें हैं। जिसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता या फिर से दोहराया नहीं जा सकता उसे योगी कभी नहीं मानता। समाधि में आप पूर्ण चेतना का अहसास करते हैं। निश्चित रूप से, यह चेतना इतनी तीक्ष्ण होगी कि सामान्य स्थिति से बिलकुल अलग होगी।

सही समय आने पर मैं इस श्रृंखला एवं विषय पर और लिखूँगा। मैं समाधि से जुड़े रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए उत्सुक हूँ।

हरे कृष्ण
स्वामी


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