प्रकृति के संकेतों को सुनें

आप के पथ पर, प्रकृति सदैव आप को कोई ना कोई संकेत देती है। उनकी ओर ध्यान देने से आप को लाभ हो सकता है। कैसे? जानने के लिए यह कथा पढ़ें।

हर कोई कुछ ना कुछ प्रतिभा लेकर जन्म धारण करता है। सामान्यत: जिस क्षेत्र में जिन की लगन होती है उस ही में उनकी प्रतिभा दिखाई देती है। परंतु अधिकतर लोगों की प्रतिभा दुर्भाग्यवश छिपी एवं अप्रयुक्त रह जाती है। यदि आप को कुछ करना अतिप्रिय लगता है तो उसमें स्वत: ही आप उत्कृष्ट प्रदर्शन करते हैं। जैसे जैसे आप सफल होते जाते हैं वैसे वैसे आप में और अधिक एवं उत्तम प्रदर्शन करने की प्रेरणा अपने आप बढ़ती जाती है। आप जो भी प्रयत्न करते हैं वह कभी भी व्यर्थ नहीं जाता। किसी एक क्षेत्र में आप की योग्यता आप को दूसरे क्षेत्र में भी लाभ पहुँचा सकती है, भले ही वह कितने ही भिन्न भिन्न क्षेत्र क्यों ना हो।

जब आप अपने जीवन से क्या चाहते हैं उस विषय में स्पष्ट हो जाते हैं तथा उसके लिए अनुशासित रूप से कार्यशील हो जाते हैं, तब प्रकृति आप के लिए संयोग की व्यवस्था करती है। वह आप को उचित समय पर उचित स्थान पर रख देती है। मुझे एक छोटी सी कथा याद आती है -

एक समय एक यात्री विशाल रेगिस्तान में अपना रास्ता भूल गया। यदि उसे कभी भी रास्ता नहीं मिला तो क्या होगा, इस विचार से वह एकदम घबरा गया और व्यग्रतापूर्वक पास के कोई नगर का रास्ता खोजने का प्रयास करने लगा। पूरा दिन व्यतीत हो गया, उसके पास जो भी खाद्य सामग्री थी समाप्त हो गई थी। संध्या हो गई और वह खुले आकाश के नीचे रेत पर सो गया। दूसरे दिन खुराक एवं जल रहित ही उसने अपनी यात्रा का पुन: आरंभ किया। रेगिस्तान में घूमते घूमते जब उसे कोई मार्ग दिखाई नहीं दिया वह बहुत भयभीत हो गया। उसके मन में हर प्रकार के विचार आने लगे।

शीघ्र ही सूरज चढ़ गया तथा कड़ी धूप पड़ने लगी। अधिकतम गरमी एवं थकान के कारण उसकी गति मंद हो गई। वह प्यासा और भूखा था, उसके होंठ सूख गये थे, मुँह शुष्क हो चूका था तथा शरीर थक चुका था। एक और दिन व्यतीत हो गया। वह आशा, शक्ति और समय सब खोने लगा था। अचानक थोड़ी दूरी पर उसे लगा कि उसे कुछ तंबू जैसा दिखाई दिया। उस को ऊर्जा की लहर का अनुभव हुआ। उसकी आँखों में चमक आ गई, परंतु वह घबराया हुआ ही रहा। वास्तव में वह तंबू ही था। एक अस्थाई दुकान। यद्यपि उसका शरीर थका हुआ था फिर भी उसके आनंद की कोई सीमा ना रही। उसने दुकानदार से जल माँगा। उस व्यक्ति ने कहा कि उसके पास जल तो नहीं था परंतु वह कूफ़िया विक्रण कर रहा था (एक अरबी साफ़ा, एक टोपी जैसा)। उसने साफ़ा विक्रण करने का प्रयास किया और सस्ते दाम में भी देना चाहा। तुम्हें आवश्यकता होगी, दुकानदार ने कहा। यात्री दुकानदार के धृष्ट एवं असंवेदनशील व्यवहार से उग्र हो गया और चीखते हुए कहने लगा की एक भूख और प्यास से मर रहे व्यक्ति को जल देने के बजाय वह उसे एक टोपी क्रय करने पर विवश कर रहा था।

उस विक्रेता ने उत्तर दिशा की ओर संकेत किया और कहा, यहाँ से पाँच मील की दूरि पर एक सराई (धर्मशाला) है। यह कह कर वह अपने व्यापार में लग गया। वह यात्री किसी तरह बहुत कठिनाई से पाँच मील चल कर उस स्थान पर पहुँच गया। जैसा कि दुकानदार ने कहा था वहाँ एक आवास था, आप यहाँ भोजन भी परोसते हैं?  यात्री ने दरबान से पूछा।
“हाँ।”
“ईश्वर की कृपा है!” यात्री के आनंद की सीमा ना रही, “अभी मेरी मृत्यु का समय नहीं आया।” किंतु जैसे ही वह भीतर प्रवेश करने लगा, दरबान ने उसे रोक दिया।
“क्या समस्या है? मेरे पास पैसा है!” 
“में क्षमा चाहता हूँ किंतु बिना कूफ़िया के मैं आप को भीतर नहीं जाने दे सकता! यहाँ से पाँच मील की दूरी पर एक दुकानदार है उससे कूफ़िया खरीद कर आप पुन: यहाँ आ सकते हैं।”

क्या यहाँ आप को मेरे कहने का तात्पर्य समझ आया? बहुधा हमारे मार्ग पर, प्रकृति हमें संकेत देती रहती है। वह हमारे लिए वस्तुओं की व्यवस्था करती रहती है, किंतु बहुधा मनुष्य अपनी अपेक्षाओं से, भ्रम से एवं अनुपयुक्त भावनाओं से अंधा हो चुका होता है। आप को लक्ष्य पता होता है, आप को मार्ग भी पता हो सकता है, और यह भी हो सकता है कि आप पड़ाव से भी परिचित हों। तथापि यह संपूर्ण चित्र नहीं है। आप अपने मार्ग पर अन्य लोगों से भी मिलेंगे, आप का पथ कितना भी असामान्य क्यों ना हो। आप उन्हें अपने प्रतियोगी या सहयोगी मान सकते हैं। हो सकता है वे कुछ ऐसा बेच रहे हैं जो आप को इच्छित ना हो, हो सकता है वे आप को कुछ ऐसा दे रहे हैं जो आप को उचित ना लगे। सत्य यह है कि वे किसी कारणवश वहाँ है, प्रकृति ने युक्तिपूर्वक उन्हें स्थापित किया होता है।

प्रकृति चुपके से सिखाती है। वह हमारी भाषा नहीं बोलती। यदि आप ध्यान दें, तो उन संकेतों का अर्थ प्रकाशित होने लगेगा। जब आप भीतर से शांत हो जाएंगे, तब ये संकेत और अधिक सुनाई देंगे। प्रकृति के पास आप के लिए जो ज्ञान एवं अन्तर्दृष्टि है वे आप को विस्मित कर देगी। आप को मात्र ठहर कर सुनना है। प्रकृति को सुनने हेतु आप को स्वयं को सब से पहले सुनना होगा। आप के भीतर बहुत कर्कश आवाज़ होती है। जो आप विश्राम करें, जो आप चिंतन करें तो आंतरिक कोलाहल धीमे धीमे शांत हो जाएगा। नकारात्मकता की लहर नष्ट हो जाएगी। आप का वास्तविक स्वभाव प्रकाशित हो कर चमकने लगेगा। आप को एक अन्तर्दृष्टि, आंतरिक शक्ति एवं स्पष्टता प्राप्त होगी। आप प्रकृति को समझना आरंभ करेंगे।

अपने भीतर की आवाज़ को सुनें। पूर्ण रूप से मुक्त हो जाएं। निर्भय बन जाएं।

शांति। 

स्वामी



कृतज्ञ रहें

जीवन के विभिन्न रंगों के आभारी रहें; यही जीवन को जीने लायक बनाते हैं। शिकायत करना बंद करें।
मेरे सन्यास लेने के कुछ वर्ष पूर्व, एक समय उत्तर भारत में अत्यंत ठंड पड़ी। ठंड के कारण कईं बेघर व्यक्तियों की मृत्यु हुई। मेरे पिता से प्रेरित हो कर मैं ने समाज के लिए कुछ करने का निर्णय लिया। मेरी कंपनी के एक वरिष्ठ प्रबंधक, जो मेरे एक अच्छे मित्र थे, उन्होंने और मैं ने निर्धन एवं बेघर व्यक्तियों को कंबल वितरित करने का निर्णय लिया। परंतु हम किसी अपरिचित संगठन को कंबल नहीं देना चाहते थे। जिन व्यक्तियों को वास्तविक रूप से आवश्यकता थी हम उनके हाथों में कंबल देना चाहते थे। हम ने लगभग पन्द्रह दर्जन कंबल खरीदे। हमारे एसयूवी वाहन में हम एक समय में लगभग सत्तर कंबल रख सकते थे। मेरा मित्र, उसकी बहन, हमारे ड्राइवर और मैं आधी रात को वाहन में बैठ गये। हम एक प्रमुख शहर में थे, जो एक औद्योगिक शहर था, और हम उसकी सड़कों पर वाहन चलाने लगे।

वाहन के संकेतक के अनुसार बाहर का तापमान तीन डिग्री सेंटीग्रेड था। कोहरे के कारण स्ट्रीट लाइट भी धुँधले से दिखाई पड़ रहे थे। यहाँ तक कि गलियों में पाए जाने वाले कुत्ते एवं गाय भी छुपे हुए थे। एक दर्दनाक सन्नाटा और ठंड थी। जैसे जैसे हम चारों ओर वाहन में जाने लगे, हमे अत्यंत दुखदायी दृश्य दिखे। विभिन्न स्थानों पर फुटपाथों पर बेघर व्यक्ति पड़े थे। कुछ लोगों ने अपने आप को बोरियों में लपेटा था, कुछ ने चपटे हुए गत्ते के बक्सों का प्रयोग किया, और कुछ ने समाचार पत्रों से अपने आप को लपेटा हुआ था। इन में वृद्ध, युवा, पुरुष, महिला, बच्चे एवं शिशु सभी शामिल थे। उन में से एक व्यक्ति भी अपने पैरों को पूरी तरह से फैला कर नहीं सो रहा था। सब लोग शरीर की गर्मी को बचाने के लिए सिकुड़ कर सो रहे थे। हम चारों वाहन के हीटर की सुविधा का प्रयोग कर रहे थे, परंतु सभी स्तब्ध थे तथा अपने आप को दोषी महसूस कर रहे थे। ऐसे दृश्य हमने पहले भी देखे थे किंतु पहली बार इतने ध्यान से देख रहे थे।

हम वाहन से बाहर उतरे और कुछ व्यक्तियों को जगा कर उन्हें हमने नए कंबल दिए। कुछ व्यक्ति हमे देख कर अत्यंत प्रसन्न हुए, कुछ रोने लगे, कुछ लोगों ने सोचा कि हम पुलीस हैं और उन्हें एक सार्वजनिक जगह पर सोने से मना करने वाले थे और उन्हें वहाँ से हटाने के लिए आए थे। कुछ ने सोचा कि हम उनके साथ परिहास कर रहे थे, कुछ नशे में थे और उठ नहीं सके तथा कुछ व्यक्तियों ने एक से अधिक कंबल की मांग की। किसी ने भी हमसे धन या अन्य वस्तु नहीं मांगे। वे कंबल पाने पर बहुत ही संतुष्ट लग रहे थे।

उनके वस्त्र फटे हुए एवं मैले थे, बाल उलझे हुए, शरीर अस्वच्छ - मानो वर्षों की पीड़ा और पसीना शरीर पर स्थायी रूप से जम गया हो। परंतु उनकी आँखों में शांति एवं स्वीकृति थी। कंबल मिलने पर उन सब के चेहरों पर आभार और संतोष की मुस्कान थी। कुछ ने तुरंत कंबल को खोला और शरीर पर लपेट लिया। उनके यह करने पर हमें इतनी संतुष्टि मिली जिस को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। कुछ व्यक्तियों ने उसका तकिये के रूप में उपयोग किया,  संभवत: इसलिए क्योंकि कंबल नया था अथवा वे अगले दिन बाज़ार में उसे बेचना चाहते थे। परंतु वह उसका क्या करते हैं यह मुख्य नहीं था। हमने सोचा कि हमारा जो कर्म था वह हमने पूरा कर दिया।

उनमें से एक दृश्य ने मुझे असहनीय पीड़ा पहुँचाई। हमे कंबल बांटते हुए देख कुछ व्यक्ति दौड़ते हुए हमारी वाहन की ओर आए। उस समूह में एक लड़की थी जो विकलांग थी। वह अन्य व्यक्तियों के समान तीव्रता से दौड़ने का प्रयास कर रही थी, इस भय से कि हम कहीं वहाँ से चले ना जाएं अथवा कंबल रिक्त ना हो जाएं। भागने के प्रयास में वह ठोकर खा कर नीचे गिर गई। उसकी अवस्था देख कर हमारी आँखों में लगभग आँसू आ गए। जब वह उठी और हमारे समीप आई, हमे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह मानसिक रूप से भी विक्षिप्त थी। हमसे वह दृश्य सहा नहीं जा रहा था। हमने शीघ्र कंबल बांटे और वहाँ से चल दिए। मैं कंबल वितरित करने के लिए फिर कभी नहीं गया क्योंकि मुझ में इस प्रकार का दुख देखने की क्षमता नहीं थी। मेरे मित्र और उसकी बहन ने एक और रात को शेष कंबल वितरित किए।

हम घर पहुँचे और जब मैं ने तकिये पर अपना सिर रखा और रजाई ओढ़ी, मैं ने छत की ओर देखा। कमरा सुसज्जित एवं सुविधापूर्ण था। कमरे को गरम करने के लिए हीटर था तथा एक संलग्न शौचालय था। सब कुछ एक सपने की भांति लग रहा था। मैंने सोचा - “वाह! मेरे सिर पर एक छत है। अवश्य मैं ने कोई अच्छे कर्म किए होंगे जिस के कारण मुझे ये सब प्राप्त हुआ।” उन व्यक्तियों का चेहरा बारंबार मेरी आँखों के सामने आता रहा। मैं ने सोचा कि छत नहीं होना तो एक बात है, परंतु अन्य सभी आवश्यकताओं से रहित जीवन कितना कठिन होगा। शौचालय की अनुपलब्धता में वे कैसे जीवन व्यतीत करते होंगे, वे भोजन कहाँ और कैसे पकाते होंगे, उनके पास बर्तन रखने की यहाँ तक कि कंबल रखने की भी वास्तव में कोई जगह नहीं होगी, कपड़े धोने की कोई जगह नहीं होगी। पानी पीने के लिए वे कहाँ जाते होंगे, क्या वे अपने दाँतों को ब्रश करते होंगे या फिर उस के लिए उन के पास पैसे नहीं होंगे। शाम को थक कर आराम करने वे कहाँ जाते होंगे - उनके पास तो कोई घर ही नहीं थे। ऐसे कईं अनगिनत प्रश्नों से मेरा सिर फटने लगा।

मुझे अहसास हुआ कि कृतज्ञ होने के लिए मनुष्य को अधिक वस्तुओं की आवश्यकता नहीं है। कृतज्ञता भौतिक वस्तुओं की विशालता अथवा आप को क्या क्या चाहिए उस पर निर्भर नहीं है। यह तो केवल मन की एक अवस्था है, ह्रदय की अभिव्यक्ति, सहिष्णुता के प्रति एक प्रतिबद्धता, प्रसन्न रहने का एक संकल्प, शांति की एक भावना, संतोष का एक मनोभाव, पूर्ति की एक अनुभूति।

यदि आप का यह मानना है कि कृतज्ञ बनने हेतु आप के जीवन में कुछ वस्तुओं का होना आवश्यक है, तो आप को सदैव कृतज्ञ बनने में कठिनाई होगी क्योंकि आप के पास चाहे जितनी अधिक वस्तुएं भी क्यों ना हों फिर भी आप को सदैव ऐसा प्रतीत होगा कि आप के पास जो है वह पर्याप्त नहीं है। आप को जो कुछ सुख देता है उस की प्राप्ति के लिए परिश्रम अवश्य करें किंतु आप के पास जो पहले से है उस के लिए आभारी रहें।

जब आप कृतज्ञ बन कर जीते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि आप ने शांति की एक अदृश्य कंबल ओढ़ ली हो। उस के कारण आप के चेहरे पर एक अद्भुत तेजस आ जाती है तथा आप प्रसन्न, उज्ज्वल एवं करुणामय बन जाते हैं।

भावनात्मक परिवर्तन की राह पर, सबसे पहली भावना कृतज्ञता है। अन्य सभी आदतों की भांति इस का भी अभ्यास किया जा सकता है और इसे भी सीखा जा सकता है। फिर किसी लेख में मैं कृतज्ञता के वास्तविक अभ्यास के विषय में लिखूँगा।

शांति।
स्वामी


टूटा हुआ घड़ा

जब आप स्वयं को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लेते हैं,  तो आप की निर्बलता आप की शक्ति बन जाती है। यह रोचक कहानी पढ़ें।
किसी ने मुझसे पूछा कि क्या आत्म परिवर्तन एक अंतहीन प्रक्रिया एवं खोज है। उन्होंने लिखा, “क्या हम सदैव प्रयत्न करते रहें?”। उनका संकेत इस ओर था कि यदि हम सदैव स्वयं को सुधारने हेतु स्वयं में दोष ढूंढते रहें तब हम वास्तव में जीवन का आनंद कब लेंगे? क्या इस जीवन को एक कष्ट और मुसीबत के समान होना चाहिए? क्या हमे सदैव स्वयं को सुधारने का प्रयास करते रहना चाहिए? यदि इस पर चिंतन करें तो यह वास्तव में उत्तम प्रश्न है।

मेरा यह मानना है कि किसी दूसरे व्यक्ति के  दृष्टिकोण में जो उचित एवं आदर्श हो आप को उसके अनुसार स्वयं को बदलने की कोई आवश्यकता नहीं है। वैसे भी किसी आदर्श मानदंड को अपना लक्ष्य बनाना एक व्यक्तिगत पसंद होती है। पूर्णता व्यक्तिपरक होती है; जो आप के लिए एकदम सही हो वह किसी दूसरे व्यक्ति  के लिए संभवत: सभ्य भी ना हो। लक्ष्य यह नहीं कि आप विश्व के उत्कृष्टता के मापदंड को प्राप्त करें। लक्ष्य यह है कि आप स्वयं के जीवन को कृपा, आनंद एवं करुणा से भरें। यही सामग्री हैं एक सदाचारी जीवन की - एक ऐसा जीवन जो संपूर्ण और परिपूर्ण हो।

बहुत समय पहले की बात है। एक नैतिक व्यक्ति था जिसके पास अधिक धन नहीं था। उसके घर के आस पास जल का कोई स्रोत नहीं था। प्रतिदिन वह नदी के किनारे जल लेने जाता था। उसने अपने कंधे पर एक छड़ी टांग रखी थी जिसके दोनों किनारे दो बड़े घड़े लटके हुए थे। दोनो घड़े धातु से बने थे और उनमें से एक तो इतना घिस गया था कि तीन साल पहले उस में एक दरार, लगभग एक छेद, पड़ गई थी। उस के फल स्वरूप, उस घड़े से लगातार पानी की बूंदें टपकती रहती थि, मानो वह एक कॉफ़ी बनाने का यन्त्र (पर्कोलेटर) हो। दूसरा घड़ा एकदम साबुत था। प्रत्येक दिन वह व्यक्ति दोनों घड़ों को पूर्ण रूप से भर देता परंतु जब तक वह घर लौट कर आता टूटे हुए घड़े में केवल आधा पानी ही रह जाता। घर पहुँचते ही वह तुरंत दोनों घड़ों से पानी को एक मिट्टी के बर्तन में डाल देता।

टूटा हुआ घड़ा स्वयं को दोषी मानता था। वह अपने मालिक की सेवा करना चाहता था, परंतु वह असहाय था और उसके पास दरार को भरने का कोई उपाय ना था। साबुत घड़ा टूटे हुए घड़े का आदर नहीं करता था क्योंकि उस को अपनी श्रेष्ठता पर घमंड था। कईं बार टूटे हुए घड़े को साबुत घड़े के प्रति जलन महसूस होती थी, किंतु वह अधिकतर असहाय और निराश रहता था। चाहे वह जितना भी प्रयास करता वह केवल आधा घड़ा पानी ही घर तक पहुँचा पाता।

एक दिन, जब मालिक नदी किनारे था, टूटे हुए घड़े ने उस से कहा, “मैं एक व्यर्थ घड़ा हूँ। मुझे क्षमा करें क्योंकि मैं अपना काम करने में असमर्थ हूँ। आप मुझे प्रतिदिन ऊपर तक भरते हैं और घर तक इतना भार उठा कर ले जाते हैं, परंतु दूसरे घड़े के समान मैं कभी भी सारा जल नहीं ले जा पाता। कृपया मुझे क्षमा करें - मैं स्वयं को अपराधी मानता हूँ और अत्यंत लज्जित हूँ। आप के पास तो एक बेहतर घड़ा होना चाहिए, एक परिपूर्ण घड़ा, मेरे समान एक टूटा हुआ घड़ा नहीं। कृपया मुझे लोहार को बेच दें। उसे मेरे दुखी और व्यर्थ जीवन का अंत करने दें। आप को भी राहत प्राप्त होगी।”

व्यक्ति ने दयापूर्वक कहा “व्यर्थ? काश तुम जानते मैं तुम पर कितना गर्व करता हूँ। किस में दोष और कमियाँ नहीं होतीं? मुझ में भी हैं। यदि मेरे पास पर्याप्त धन होता, तो मैं कब का तुम्हारी मरम्मत करवा देता ताकी तुम्हे ऐसा नहीं लगता। परंतु हमारी कमियों में ही हमारी दिव्यता भी छिपी हुई है। पूर्ण रूप से दोषों से रहित होने की भावना वास्तव में केवल एक व्यक्तिगत धारणा है, अक्सर एक घमंडी दृष्टिकोण। क्या तुम्हे इस बात का ज्ञान है कि तुमने इस जगह को सुंदर बनाने में कितनी मदद की है?"
“मैं ने? सुंदर बनाया?” टूटा हुआ घड़ा आश्चर्यचकित हो गया।
“हाँ! जब हम आज घर लौट कर जाते हैं, तुम अपनी ओर के पथ का ध्यान से निरीक्षण करना।”

व्यक्ति घर की ओर चलने लगा और  टूटे हुए घड़े ने देखा कि पथ के एक किनारे, विशेष रूप से उस किनारे जहाँ वह था, वहाँ सुंदर फूल खिले हुए थे। वहाँ तितलियाँ मंडरा रहीं थीं, मधुमक्खियाँ गूँज रहीं थीं और हवा में लुभावनी सुगंध थी।

“कुछ समय पहले, मैं ने यहाँ एक नए प्रकार के फूल के बीज बोए थे। मुझे लगा कि तुम्हारे से टपकता हुआ जल सहजता से बीज को पोषण प्रदान कर सकता है। और अब देखो! न केवल यहाँ मनोहर फूल हैं परंतु मधुमक्खियाँ दूर तक पराग ले कर गईं हैं और अब हर जगह ऐसे फूल खिलने लगे हैं। ये फूल मधुमक्खियों को अत्यन्त आकर्षित करते हैं और अब गाँव में कईं अधिक मधुमक्खियों के छत्ते हैं। जिसे तुम अपनी कमी बता रहे हो वह यदि ना होती तो आज हमारे बीच यह सौंदर्य, सुगंध और उपयोगिता का होना संभव ही ना था।”

मैं आशा करता हूँ कि आप को यह कहानी उतनी ही पसंद आयी जितनी कि मुझे आयी थी जब मैं ने इसे पहली बार सुना था। हमारे दोषों में पहले से ही पूर्णता के बीज बोए हुए हैं। किसी साबुत घड़े या किसी और व्यक्ति जैसे बनने के लक्ष्य से कईं अधिक महत्वपूर्ण यह है कि हम अपनी शक्तियों एवं कमियों का सही उपयोग करें। यदि आप अपनी कमियों के विषय में स्पष्ट एवं निष्कपट हैं और यह देखने के लिए तैयार हैं कि ये कमियाँ किस प्रकार आप के जीवन को और सुंदर बना देती हैं तो अवश्य आप के जीवन में कईं नए मार्ग खुल सकते हैं।

कुछ भी पूर्ण रूप से आप की शक्ती अथवा निर्बलता नहीं होती है। स्थिति और आवश्यकता के अनुसार उनकी उपयोगिता एवं मूल्य बदल सकती हैं। एक स्थिर छड़ी आप को चलने का सहारा देती है, परंतु धनुष बनाने हेतु तो आप को एक सुनम्य छड़ी की आवश्यकता पड़ेगी। एक दृष्टिकोण से जिसे आप शक्ति समझते हैं  दूसरे दृष्टिकोण से वही निर्बलता हो सकती है। इंसान में चाहे जितने भी दोष हों वह बहुमूल्य है और इस संसार में उसे और हर एक को कोई ना कोई भूमिका निभानी होती है।

स्वयं को पूर्ण रूप से स्वीकार करें।

शांति।
स्वामी


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