आदान या प्रदान


यदि आपको कोई मिल जाये जो बोले कि वो आपको कुछ भी दे सकता है तो आप उस से क्या क्या लेना चाहेंगे? अवश्य ही आपका मन कल्पनाओ से भर जायेगा और आप इस अवसर का मुल्यांकन करना शुरु कर देगे। वो मुझे कितना दे सकता है? क्या वो सारा दे सकता है? वो मुझे ही क्यूँ दे रहा है? मुझे इसे प्राप्त करने के लिये क्या करना होगा? मुझे इसे किस के साथ बांटना होगा? इस प्रकार एक से एक बढ कर एक प्रशन पैदा होते जायेंगे। मन बहुत ही जोड–तोड करता है। हर चीज की गणना के लिये आपको बाध्य करता है। जब कि भावनायें कभी भी गणना के ऊपर निर्भर नही करती। यह सहज ही प्रतिक्रिया करती है। जैसे एक बच्चे को गुदगुदाने से वह सहज ही मुस्कुरता है,ऐसा ही कुछ हमारी भावनायों के साथ भी है।

अगर आपको कोई कुछ देने के लिये मिलता है, तो आप उससे क्या लेना चाहोगे? अगर वो व्यक्ति सिर्फ संसारिक वस्तुये देने में ही सक्षम है, तो क्या आप सिर्फ यह कहेगे, ”मुझे ढेर सारा धन दो।” परन्तु इससे आगे और क्या मांग सकते हो?

आपको क्या चाहिये, इसकी सूची बनानी तो बहुत आसान है क्योंकि मन यही तक सोचने के लिये सीमित है। लेकिन एक क्षण के लिये इस को उल्ट दिया जाये और कोई आपसे पूछे कि आप क्या दे सकते हो? तो आपका क्या उत्तर होगा? अब ऐसी दो तुलनात्मक सूचियां बनाओ, एक लेने वाली तथा दूसरी देने वाली। एक मे लिखो एक आप क्या लेना चाहते हो तथा दूसरी मे लिखो के क्या-क्या दे सकते हो? जिसकी लेने वाली सूची देने वाली से ज्यादा लम्बी है उसको अपने जीवन मे हमेशा एक कमी महसूस होगी।

अगर आप की दोनो सूचियां एक बराबर है तो आप बधाई के पात्र है। इसका अर्थ यह है कि आपको पता है कि एक संतुलित जीवन कैसे जीया जाता है। अगर आपकी देने वाली सूची, लेने वाली सूची से ज्यादा लम्बी है, तो आप सम्मान के पात्र है। जरुर आप में कुछ विशेष है, क्योंकि अधिकतर मनुष्य तो केवल लेना जानते है, देना नहीं।

जिसकी लेने की सूची में कुछ ना हो और देने कि सूची में सब कुछ हो वह तो दण्डवत् प्रणाम का अधिकारी है। ऐसा मानो एक मानव के शरीर मे साक्षात भगवान चल रहे हैं। संसार के सारे धर्मो में केवल उसी व्यक्ति को श्रेष्ठ माना गया है, जिसने इस संसार को कुछ दिया है। मनुष्य दूसरे के त्याग तथा सेवा को याद रखते हैं। दान देने से एक अन्तरिक संतुष्टि मिलती है। अगर आपकी दोनो सूचियां खाली है तो आप दया के पात्र है, यदि आपने ना लेना सीखा और ना ही देना, तो अभी आपके सिखने के लिये बहुत कुछ शेष है।

ज़ेन गुरु सयस्तू का बहुत बडा शिष्य मण्डल था। उनके भक्तों की भीड़ दिन प्रतिदिन बढ रही थी। इसी कारण उन्हे अपने मठ के लिये एक बडे परिसर की आवश्यकता थी क्योंकि वर्तमान परिसर छोटा पड रहा था। उनके अनुयायियो के बीच में एक अमीर व्यापारी ऊमेज़ू भी था। उसने इस कार्य में सहयोग देने का निर्णय लिया। यह उन दिनों की बात है जब एक साधारण परिवार का वार्षिक खर्चा तीन सोने के सिक्को से ज्यादा नही था।

ऊमेज़ू ने आपने गुरु को भेंट देते हुए कहा, “ये मेंरी तरफ से पांच सौ सोने के सिक्को की थैली है और इससे आश्रम के निर्माण की सारी आवश्यकतायें पूरी हो जायेगी।”

सयस्तू ने एक सामान्य स्वर में, जैसे कि दान नहीं अपितु कोई पाप का भार ले रहे हो, उत्तर दिया, “ठीक है, मैं इसे रख लेता हूं।”

ऊमेज़ू के सम्मान को ठेस लगी। उसे लगा कि उसके गुरु ने अशिष्ट तथा कृत्ध्न तरीके से उसकी सेवा स्वीकार की है। डर और अज्ञानता, अहंकार और पैसे के बीच में अजीब रिश्ता है। दोनो एक दूसरे के लिये आग में घी जैसा काम करते है।

उसने फिर से गुरु का ध्यान अपनी ओर केन्द्रित करते हुए बुदबुदाया, “इस थैली में सोने के पांच सौ सिक्के है।”

सयस्तू ने शान्ति पूर्वक उत्तर दिया, “यह तुम पहले भी बता चुके हो।”

ऊमेज़ू क्रोध् मे बोलता है, “एक अमीर आदमी के लिये भी पांच सौ सोने के सिक्के बहुत बडी राशि होते है।”

सयस्तू धीरे से बोले, “तो क्या इसके लिये तुमको ध्नयावाद करूं?”

“हां, लेने वाले को थोडा सा आभारी तो होना ही चाहिये।” ऊमेज़ू ने तुरन्त उतेजित हो कर उत्तर दिया।

“मैं क्यों अभार प्रकट करूं,” सयस्तू ने हंसते हुए कहा, “देने वाले को आभारी होना चाहिये।”

वास्तव मे ही दाता को आभारी होने चाहिये और यह सच भी है। क्योंकि अगर प्रकृति ने आपको किसी को कुछ देने का माध्यम बनाया है तो आपको इसकी प्रसन्नता होनी चाहिये। यदि ले रहे हो तो भी आभारी रहो तथा यदि दे रहे हो तो भी आभारी रहो।

अन्त में, मैं यही कहूंगा कोई भी लेने या देने वाला नही होता। प्रत्येक व्यक्ति एक माध्यम मात्र है ।

शान्ति!
स्वामी

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प्रसन्नचित्त रहना

बहुत से लोग अपने जीवन को गम्भीरता से जीते है। उन्हे हर चीज को गम्भीरता से लेने की आदत होती है। जैसे कि उनके उदेश्य, उनकी चीजे, उनका धर्म, उनकी धारणाये, उनकी पसन्द और नापसन्द, दूसरे लोग, वो स्वयं और उनसे जुडी हर चीज।  जीवन उनके लिये एक गम्भीर मामला होता है। यहां तक कि वो हंसते भी गम्भीरता पूर्वक है। ऐसा करना शायद कोई समस्या नहीं परन्तु यहां पर मैं एक गहरे मुद्दे की ओर ईशारा कर रहा हूं - गम्भीर ईश्वर।

अगली बार जब आप मन्दिर या किसी और पूजनीय स्थान पर जाये तो सिर्फ एक या दो मिनट के लिये देखे कि वहां पर लोग कितने गम्भीर तथा बुझे हुए से हैं। अरे भगवान के बच्चे हो या उसके बन्दी? क्या वो लोग मन्दिर मे कोई सजा सुनने आये हैं? प्रसन्न रहना अपने आप मे दिव्यता का ही एक लक्षण है।  एक थोडी सी हसी भी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियो को खत्म करने की क्षमता रखती है।

हास्य एक व्यक्ति को जीवन की दौड मे होते हुए भी अलग कर देता है। हास्य की भावना होने से आप चिन्तायो के भार से मुक्त हो जाते हो तथा आपके मुख पर एक कान्ति रहती है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियो मे हंसना सीखे। कोशिश करे! यह जरा भी मुश्किल नही है। यहां मुझे मुझे भगवद गीता का एक श्लोक याद आ रहा है-
प्रसादे सर्वदुखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यव्तिष्ट्ते ।।
अर्थात एक आन्तरिक प्रसन्नता दुखों को कम करती है और ऐसे संतुष्ट तथा आनन्दित योगी अपने मन को नियन्त्रित करके भगवान मे एकाग्रचित होते है।

श्री कृष्ण प्रसन्नता के ऊपर और भी ज्ञान देते हुए कहते हैं:
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
अर्थात जो चिन्ता ना करते हुए अपने आप को सारी दुविधाओं से मुक्त कर लेते है,  वो ही भक्ति की असीम चरम सीमा को प्राप्त करते है।

तथा इसमे भी यही कहा गया है-
मनः प्रसाद सौम्यत्वं...
अर्थात्- मन की आनन्दमयी स्थिति ही तपस्या है।

अगर आपके अभ्यास मे, भगवान की प्राप्ति मे, लक्ष्य प्राप्ति मे कोई आनन्द नही है तो आपको गम्भीरता से सोचना चाहिये कि आप क्या कर रहे है।

अब आप एक बच्चे के चमतके हुए चेहरे को गौर से देखे। अदभुत! वो चेहरा इतना क्यों चमक रहा है? क्योंकि बच्चे दिल से हंसते है, वो अपने आप को स्वतन्त्रता से व्यक्त करते है। वे अपनी ही गलती पर अपने ही मूर्खता पर हंसने की क्षमता रखते है।

अब एक छोटी कथा के साथ इसका अन्त करते है-

जापान मे पहाडों मे स्थित एक ज़ेन मठ था। एक बार जब भिक्षुक ध्यान मे थे तो वहां पर भूकंप के झटके महसुस किये गये। गुरु अपने शिष्यो के साथ भाग कर रसोई मे चले गये।

जब यह झटके समाप्त हो गये तो उसने अपने शिष्यो को संबोधित किया, ”यही अन्तर है एक ज़ेन गुरु तथा एक आम आदमी मे। जैसा कि अपने देखा कि कठिन परिस्थितियों मे भी मैं कितना शान्त रहा और जरा भी नही घबराया। मै तुम सबको मठ के सबसे मजबूत हिस्से मे ले आया।  यह समझदारी का परिणाम है कि आज हम सब ठीक है  जब कि बाहर बहुत कुछ बर्बाद हो गया है। किन्तु मै भी थोडा सा डगमगा अवश्य गया था। शायद तुम लोगो ने ध्यान ना दिया हो परन्तु उसी कारण मैने तीव्रता से पानी का एक बडा गिलास पी डाला जो कि शायद मैं साधारण परिस्थिति मे ना करता।

यह सुन कर एक छोटा भिक्षुक हंस पडा।

”और तुम किस बात पर हंस रहे हो।” गुरु ने झुंझलाते हुए पूछा।

“गुरु जी, जो आपने पिया वो पानी नही था।” छोटे भिक्षुक ने सिर झुका कर कहा, ”अपितु खांसी की औषधी थी।”

आत्म-अनुभूति का यह अर्थ नही कि आप अपना आनन्द खो दे।  वास्तव मे इसका अर्थ यह कि आप प्रत्येक क्षण आत्म-आनन्द की अनुभूति करें।



शान्ति
स्वामी

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बिना जाने समझना


एक बार एक शिष्य था। उसे अपने गुरु से बहुत प्यार था और पूर्ण रूप से अपने गुरु के लिये समर्पित भी था।शिष्य अपने सांसरिक कर्तव्यो का भी पालन करता था, परन्तु उसका एक लक्ष्य जरुर रहता था कि वह हर संभव अवसर पर अपने गुरु के पास उनकी सेवा के लिये जाये तथा उनके उपदेश सुने। एक गृहस्थी का जीवन व्यतीत करते हुए तथा अपने सांसरिक कर्तव्यो का पालन करते हुए,उसे अपने गुरु के बताये हुए निर्देशों का पालन करने के लिये बहुत ही कम समय प्राप्त होता था।  नैतिकता, अखंण्डता तथा उत्तम आचरण जैसे गुणो से वह परिपूर्ण था।

एक दिन वह अपने गुरु के पास जाता है। उसके गुरु उस समय धर्मोपदेश दे रहे थे। वे बता रहे थे कि कैसे भक्त के विश्वास के आधार पर ही भगवान को अलग-अलग रूप धारण करने पडते है और ये उपदेश शिष्य ने भी सुना।

इसके बाद शिष्य अपने गुरु के पास गया और बोला, "क्या ये कहना सही होगा कि भगवान एक है और वही भगवान सबमे विराजमान है? ”

“यदि मैं हां कहता हूं तो बिना जाने ही सोचोगे कि तुमने समझ लिया है," गुरु बोले, "और अगर नही कहता हूं तो तुम गलत समझ लोगे।”

“अगर तुम वास्तव मे इसका उत्तर जानने के इच्छुक हो तो, जीवन मे अनुशासन का पालन करो तथा ध्यान की तरफ जायो। तुम्हे स्वयं ही पता चल जायेगा,” गुरु बोले।

गुरु आगे बोले, "मेरी ही परिभाषा या मेरी विचारधारा का गुलाम क्यों बनना? जाओ भगवान को स्वयं देखो और उसके बाद गिनती कर लेना कि वो एक है, अनेक है या है ही नहीं। ”

अगर केवल पढकर या सुनकर ही ईश्वर को समझा जा सकता तो अब तक सारे शिक्षित लोग दिव्य बन चुके होते। केवल पढना, सुनना या कुछ विक्षिप्त ज्ञान – ये सब आपको विचारो से मुक्त करने कि बजाय किसी दूसरे कि सोच के साथ, उसकी विचारधार के साथ बांध देते है।

कम से कम शुरुआत में, एकाग्र ध्यान के अनुशासन को अपनाये, भक्ति तथा सेवा को अपनाये। एक बार आपका मन आपके नियन्त्रण मे आ जायेगा तो आपको अन्तरदर्शन का अनुभव प्राप्त होगा।

अपना सत्य स्वयं खोजो।

शान्ति!
स्वामी

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देवी माँ का प्रत्यक्ष दर्शन

देवी माँ का प्रत्यक्ष दर्शन
आज, मैं आपको हिन्दी भाषा मे एक अत्यन्त महत्वपूर्ण फिल्मांकन  प्रस्तुत कर रहा हूं। यह मात्र एक फिल्मांकन ही नहीं है, केवल कोई प्रवचन ही नहीं है अपितु मेरे जीवन का अनुभव है, एक प्रत्यक्ष अनुभूति है, एक ऐसी अनुभूति जिसे मैं प्रत्येक श्वास-प्रशवास के साथ जीता हूं।

इस फिल्मांकन मे मुखरित प्रत्येक शब्द पूर्ण सत्य है, वो सत्य जिसको मैने साक्षात देखा, साकार देखा, वो सत्य जिसको मैने अनुभव किया। इसमे मैने लगभग अपने पूरे अनुभव का वर्णन किया है, वो अनुभव जो मुझे जगन्माता के दर्शन के समय हुआ था। इस फिल्मांकन मे देवी माँ के दर्शन का व्याखान है। वो दर्शन जब माँ मेरे सामने प्रत्यक्ष प्रकट हो गयी।

कई बार लोग मुझे पूछते हैं कि क्या मैने देवी माँ को देखा है और अगर देखा है तो वो कैसी हैं! मेरे लिये इस दर्शन को ब्यान करना कठिन हो जाता है। आन्तरिक भाव बाहरी शब्दों को रोक देता है। फिर भी मैने बहुतों को अपना वचन दिया के एक दिन मैं भाव मे आकर अपने दर्शन के पलों को रिकार्ड कर दूंगा। उनको किसी फिल्मांकन मे कैद कर दूंगा।

इस वीडियो में आपके लिये एक सूक्ष्म संदेश है, यदि आप उस संदेश को समझ पाते हैं तथा उसे अपने जीवन मे धारण करने मे सक्षम होते है तो आपको इस फिल्मांकन को देखने के बाद जीवन पर्यन्त कोई और प्रवचन सुनने की या कुछ और पढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

एकांत मे बैठ, जब तसल्ली से तीस मिनट निकाल सकें, तो एकाग्रता के साथ इसको देखो। यदि आस्तिक हो, तो इसको देखने से ईश्वर मे आपका विश्वास दृढ हो जायेगा।

शांति।
स्वामी

अगला कदम


एक समय की बात है, एक गांव मे एक धार्मिक व्यक्ति रहता था। कई लोग उसे सिद्ध संत मानते थे और कई उसको असामान्य तथा पागल समझते थे। बच्चे उसे “खिलौना बाबा” कहते थे क्योंकि वह उनको खिलौने और मिठाईयां देता था। एक उत्तम भिक्षुक की भान्ति वह उतना ही दान लेता था, जितना उसे एक दिन के लिये चाहिये होता था।  वह कर्तज्ञता से सब स्वीकार कर लेता था - चाहे वह वस्तु चावल हो, रोटी या सब्जी। उसने ना तो कभी धन मांगा तथा ना ही कभी स्वीकार किया। वह संतुष्ट लगता था। किन्तु वह भोजन के साथ खिलौने और मिठाईयां देने की मांग करता था। जो उसका आदर करते थे, वे कभी कभी भोजन के साथ खिलौने और मिठाईयां भी दे देते थे। वह भिक्षुक उन सारी चीजों को एक बड़े थैले मे डाल देता और गांव के बच्चों मे बांट देता था।

वह सब के साथ उदारता का व्यवहार करता था और उसकी उपस्तिथि मे एक दिव्यता झलकती थी। परन्तु अब तक यह कोई नही समझ पाया था कि अगर वो इतना ज्ञानी है तो इतना बड़ा झोला लेकर क्यों घुमता है। कुछ लोग हैरान थे कि अगर वो इतना ही आत्म ज्ञानी है तो वो गन्दे कपडो मे, भारी थैला उठाये, एक परिश्रमी जैसे, खिलौनौ को बच्चों मे बांटने के लिये क्यों मारा मारा फिरता है बजाये इसके कि वो कुछ उपदेश दे, अच्छाई को बढ़ावा दे, पवित्र श्लोको को बोले।

एक दिन चालीस की आयु वाले कुछ व्यक्तियो के समूह ने, जो कि बरगद के पेड के नीचे बैठ कर ताश खेल रहे थे, जा रहे साधु को रोक लिया और व्यंग करते हुए उससे कहा, "कृपया हमे भी कुछ ज्ञान प्रदान करे ताकि हमे भी आत्मा का कुछ बोध हो। हमे यकिन है कि आपके इस बड़े से झोले मे अवश्य ही वेद है।"

साधु ने अपना थैला जमीन पर गिरा दिया। "यही है," उसने कहा, "यही आत्मा का बोध है। अब मैंने आपको समस्त वेदो का सार बतला दिया है।"

उन युवको ने सोचा कि उनका उस साधु को पागल समझने का शक बिल्कुल सही निकला। परन्तु उनमे से एक आदमी कुछ बुद्धिमान था। उसने कहा,  "इसका क्या मतलब है? एक थैले के गिरने से वेदो के सार का क्या अभिप्राय है?"

साधु बोला, "यह थैला जिसे मैं उठाये जा रहा हूं, एक बहुत बड़ा भार है।  अब मैंने इसे गिरा दिया, अब मैं स्वतन्त्र हूं। सब कुछ यही है, आप भी अपना थैला गिरा दो। व्यर्थ के भार को उठाकर मत जियो।"

समूह उसके लिये श्रद्धा से पूर्ण हो गया और उनमे से एक बोला, "अगर सब कुछ यही है तो फिर अगला चरण क्या है।"

साधु ने अपना झोला फिर से उठाया और उसे कन्धे पर संभालते बोला, "मैं कोई भार नही ले जा रहा।  मैं तो केवल बच्चों के लिये खिलोनौ से भरा थैला ले जा रहा हूं। मेरे पास उनकी खुशी तथा आनन्द का समान है।"

"यह आपकी जागरुकता और दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि आप इसको भार मानते है अथवा अपना धर्म।" यह कह कर वह अपने रास्ते चला गया।

भावनाओं की कोई व्याख्या नही होती और उन को प्रत्यक्ष रूप देना तो और भी कठिन है। अपनी नकारात्मक भावनाओं को खत्म कर दो। अपनी चिन्तायों से भरे थैले (मन) को खाली कर दो।  अपने आप को पहचाने और स्वतन्त्र स्वरूप मे जियो।

अभी शुरुआत करो, कोई बहाना नही।

मुक्त हो जायो। निडर होकर जियो। भार रहित अपनी यात्रा आरंभ करो!

शान्ति।
स्वामी

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माँ — आदि परा शक्ति

निरन्जनि नारायणि — पण्डित जसराज
प्रस्तुत है आपके लिये पराशक्ति, जगन्माता का एक बहुत सुन्दर फिल्मांकन ।

पण्डित जसराज, एक विश्व प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक, ने निरन्जनि नारायणि के नाम से मां की इस स्तुति को गाया है। इसमे शब्द कदाचित कम है परन्तु यह भाव मे परिपूर्ण है।

इस फिल्मांकन मे हमने जगदम्बा के अत्यन्त सुन्दर चित्र लगाये है।

यह स्तुति आप के भीतर मां के प्रति प्रेम और भाव को और प्रबल करेगी। यह अब तक का मेरा सबसे पंसदीदा फिल्मांकन है।

इसमे मां की स्तुति, गाने का ढंग तथा मां के विभिन्न स्वरूपों का दर्शन अतुलनीय है।

स्तुति सुनने के लिये आप यहां पर जांये

शान्ति ।
स्वामी

वार्तालाप से एकाग्रता की ओर


एक अच्छे ध्यान मे स्तिथ होने के लिये महान एकाग्रता की आवश्यकता है, और एक महान ध्यानी बनने के लिये सर्वोच्च एकाग्रता की आवश्यकता है। एकाग्रता, विशेष रूप से एक स्थिर एकाग्रता, अभ्यास के साथ आती है। आप जितना अधिक अभ्यास करेंगे, आपकी एकाग्रता उतनी अधिक निखरेगी।

श्री कृष्ण के समय मे अर्जुन एक महान धनुर्धर व योद्धा हुए। उनके छोटे भाई, भीम को अत्याधिक खाने का शौक था। एक बार अमावस्या की अन्धेरी रात में, घोर अन्धकार में भीम को भूख लगी। वह रसोई में घुस कर भोजन और अन्य चीजों को तलाश करके वही खाने बैठ गया। अन्धेरे मे भोजन को सुलभता से खाना भीम के लिये एक साधारण बात थी क्योंकि वे बाल्य अवस्था से ऐसा करते आ रहे थे। अन्धेरे मे छुप कर खाने का उनको अभ्यास हो चुका था। परन्तु आज अर्जुन जाग रहे थे और उन्होने भीम का पीछा किया। अपने भाई को अंधेरे में आसानी से खाते हुये देख वे चौंक गये।

उन्होने सोचा यदि भीम रसोईघर में भोजन के लिए अपना रास्ता खोज, रात्रि के घने अन्धकार मे ऐसे खा सकता है जैसे कि दिन का भरपूर उजाला हो तो मैं भी तीरंदाजी मे ऐसी दक्षता क्यों नहीं प्राप्त कर सकता?
अर्जुन ने एकाग्रता और दृढ़ता के साथ रात में अभ्यास शुरू कर दिया और आगे चल कर महाभारत के युद्ध मे इसी कला के आधार पर उन्होने जयद्रथ पर विजय हासिल की।

आप जितना अधिक एकाग्रता बनाने का अभ्यास करेंगे, ध्यान योग की गहराई को उतनी ही उत्तमता से जानेंगे। अधिकतर मनुष्य टीवी एकाग्रता से देखते हैं। कुछ शतरंज एकाग्रता से खेलते हैं। पुस्तक को पढ़ने के लिये भी एकाग्रता चाहिये। परन्तु टीवी की एकाग्रता एक बहुत बडा भ्रम है। वास्तव मे तो वह मनुष्य को और भी अस्थिर कर देता है। समाधि के लिये जो एकाग्रता चाहिये वो भिन्न प्रकार की है। इसी एकाग्रता पर हम चर्चा करेंगे। सुई मे धागा पिरोने के लिये जिस एकाग्रता की आवश्यकता है, समाधि मे जाने के लिये भी ठीक उसी प्रकार की एकाग्रता चाहिये। अन्तर है तो केवल अवधि का, सुई मे धागे के लिये कुछ पल चाहिये और समाधि के लिये उससे कहीं अधिक समय। इस तरह की एकाग्रता तथा स्थिरता गहन ध्यान और अत्यधिक सावधानी से ही आती है।

श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
तत्र एकाग्रं मन कृत्वा यतचित्तेन्द्रिय क्रिय।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये। (भगवद् गीता, 6.12)

अर्थात योगीजन निपुणता एवं दृढ़ता से एक ही मुद्रा में बैठ, अपनी इंद्रियों और मन को सर्वोच्च एकाग्रता के साथ, स्वयं को योग में अभ्यसत करते है।

यहाँ मुझे अर्जुन की एक प्रसिद्ध कहानी याद आती है।

अर्जुन एक राज परिवार से था। वह अपने सगे तथा चचेरे भाइयों के साथ गुरु द्रोणाचार्य का शिष्य था। गुरु द्रोण ने बहुत वर्षो तक शिक्षा देने के बाद एक दिन सबकी परीक्षा लेने का फैसला किया। उन्होने दूर एक पेड़ की एक शाखा पर एक लकड़ी के पक्षी को टाँग दिया। उन्होने अपने सभी छात्रों को बुलाया और एक पंक्ति में खड़ा होने के लिए कहा। उनका लक्ष्य था चिड़िया की आंख को अपने तीर से भेदना।

उन्होने एक शिष्य को बुलाया और उसको निशाना साधने के लिये कहा। इससे पहले कि वो निशाना लगाये, गुरु द्रोण ने उससे पूछा "तुम क्या देख रहे हो ?"

"मैं पेड़ को देख रहा हूं।" शिष्य ने कहा।

द्रोण ने उससे तीर चलवाने की बजाय उसे एक तरफ खड़ा होने को बोला।

उन्होने वही प्रशन प्रत्येक शिष्य को दोहराया। सबने अलग अलग जवाब दिया। कुछ ने कहा कि वे पत्ते को , कईयो ने कहा की वे पक्षियों को और कुछ ने कहा कि वे पेड़ों को देख रहे है। हर बार गुरु द्रोण ने उन्हे एक तरफ खड़ा होने के लिये कहा।

जब अर्जुन की बारी आई और वही प्रश्न उससे किया गया तो  उसने कहा, "मैं केवल चिड़िया की आंख देख रहा हूँ।"

द्रोण ने उसे तुरन्त तीर चलाने के लिये कहा और अर्जुन ने एक ही निशाने मे चिड़िया की आंख को भेद दिया।
यह एक साधारण कहानी है किन्तु सभी अच्छी चीजों की गहराई भी सादगी में ही होती है। एकाग्रता भी एक ऐसी ही प्रकिर्या है जो कि विचारों के जटिल जाल को सरलता से विलीन कर देती है।

यदि आप ध्यान योग के माध्यम से आंतरिक आनंद का अनुभव करना चाहते हैं, तो आप को एकाग्रता के साथ बैठना सीखना होगा। इसमे पसंद नापसंद का प्रश्न नहीं है। यदि समाधि का सुख चाहते हो तो मन को दृढ कर एकाग्रता का निर्माण करना होगा। दृढता से अभ्यास करने के लिये संकल्प शक्ति तथा धैर्य की आवश्यकता होती है। जो एकाग्रता मे स्तिथ होना सीख लेता है, उसके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता। वो अपनी इच्छा मात्र से सब कुछ प्राप्त कर लेता है।

एकाग्रता से आपके विचारों को एक नयी शक्ति तथा चेतना को एक नयी दिशा मिलति है। झरने मे चलती हुई पानी की बूंदे एकाग्रता के कारण ही पत्थर की चट्टानो को बनाती और तोड़ती है। वही बूंदे जब  बिखरी हुई बारिश के रूप मे बरसती है तो उस सक्षमता को खो बैठती हैं।

अधिक बोलने से एकाग्रता क्षीण होती है। मौन मुख से मन को मौन करना भी कदाचित सुगम हो जाता है

शांति।
स्वामी

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विश्वासपात्र की मौन स्वीकृति



आश्रम मे पहले दिन से ही नियमित रूप से आगंतुक आते रहे हैं। इस क्षेत्र से दो आगंतुक प्रतिदिन आते हैं, उनमें से एक गौर तथा दूसरी श्याम वर्ण की है। उन दोनों की प्रकृति भिन्न है परन्तु दोनोंलगभग एक ही समय आती हैं। गौर वर्ण वाली मेरे पास बैठना पसंद करती है पर श्याम वर्णवाली दूरी बनाए रखना पसंद करती है। ऐसा नहीं लगता है की वो कोई ज्ञान  अथवा उपदेश पाने के लिए आती  हैं वास्तव में उनके पास कोई प्रश्न नहीं है, वो केवल अपना स्नेह प्रदर्शित करती हैं। श्याम वर्णवाली के तीखे नाक-नक्श हैं पर वो गौर वर्णवाली के समान भावुक नहीं है जबकि गौर वर्णवाली की आँखें कोमल तथा मुखड़ा रुचिकर है। दो पैरोंवाले स्थानीय निवासियों की तरह, गौर वर्णवाली ने लगता है पिछली दीवाली के बाद से स्नान नहीं किया है। ज्यों ही मैं उसके समीप जाता हूँ वो धरती पर लोटने लगती है। श्याम वर्णवाली सहज रूप में दूर से ही पूंछ हिलाती रहती है। पशु-मानव संबंध बताने के लिए मैं हम सभी को मनुष्य श्रेणी में रख रहा हूँ किन्तु थोड़ा सशंकित सा...

हम लोग प्रतिदिन दो समय भोजन पकाते हैं और इस बात का सदैव ध्यान रखते हैं कि दो अतिरिक्त रोटियाँ हमारे मित्रों के लिए भी बने। उनके स्नेह के कारण वे कुछ अतिरिक्त निवाले भी पा जाते हैं।जब मैं भोजन कर रहा होता हूँ, वे आते हैं और मेरे बगल में बैठकर अपने भावपूर्ण नयनों से अपलक मुझे निहारते हुए भोजन की आवश्यकता व्यक्त करते हैं। उनके भावों की अभिव्यक्ति और पाने की दृढ़ता हमें बाध्य करती है।

एक दिन की बात है जब उनकी स्नेहपूर्ण दृष्टि मेरे भोजन में से हिस्सा पाने के लिए आग्रह कर रहीं थीं कि अचानक उन्होंने भौंकना शुरू कर दिया। जब मैं उनके अप्रत्याशित जोर से भौंकने से जड़वत बैठा रहा, वे बिजली कि गति से आश्रम के दूसरे छोर की ओर गए। मैं अचंभित हुआ और सोचा शायद किसी अन्य कुत्ते के इनके क्षेत्र में आगमन ने इन्हें उकसाया होगा । क्योंकि मैने एक बार इनको पहले भी आश्रम मे निर्दयता से दूसरे कुत्तों के साथ लड़ते हुए देखा था। करोड़ों वर्ष के क्रमिक मानसिक विकास के प्रतिफल से हमारे मन की प्रकृति ऐसी हो गयी है। हम अपने अतीत के अनुभव प्रदत्त ज्ञान पर निर्भर करते हैं वर्त्तमान को जानने के लिए, उसका अर्थ निकालने के लिए। इस प्रवृति से ऊपर उठना ही आत्मबोध या आत्मसाक्षात्कार है। सदैव वर्त्तमान में जीना और अपने समक्ष आते हुए क्षणों से अवगत रहना ही अत्यधिक सचेत मन की प्रमाणिकता है।

पुनश्च वर्त्तमान कहानी पर वापस आते हैं, किसी अन्य कुत्ते का कोई निशान नहीं था, बल्कि वो आश्रम मे आये कुछ दर्शनार्थियों पर भौंक रहे थे। अपरिचितों की गंध से वो आश्वस्त हो गए कि कोई क्षति-हानि नहीं है अतः परिणामस्वरूप वो पीछे हट गए। वो अपरिचित गाँव की तीन महिलायें थीं जो दर्शनार्थ आयी थीं। स्थानीय लोग आश्रम ऐसे आते हैं जैसे मंदिर दर्शन के लिए आये हों। उनके पास ईश्वर या दिव्यता से सम्बंधित कोई प्रश्न नहीं होते। कभी कभी उनके मवेशी और बच्चों की कुशलता, वर्षा और जादू-टोने से सम्बंधित प्रश्न होते हैं, बस इतना ही।

शिक्षा किसी प्रकार से भक्ति हर लेती है। शिक्षित कुछ करने के पहले जानना चाहता है। उसको लगता है कि उसका विश्वास किसी ठोस बौद्धिक आधार पर टिका होना चाहिए। तुलनात्मक रूप से ग्रामीण सरल होते हैं। वो विश्वास करके खुश होते हैं चाहे वह अंधविश्वास ही क्यों न हो। किसी दूसरे के अनुभव को मानकर और विश्वास करके शिक्षित लोग अपने आप को ज्ञानी समझ बैठते हैं। ग्रामीणों के विश्वास का कोई आधार नहीं है। यह सभी संज्ञानात्मकता से खाली है। एक में, विश्वास्कर्ता अंधा है और दूसरे में विश्वास ही अंधा है। अब आप ही निर्णय कीजिये कि दोनों में से कौन अच्छा है।  भक्त को तर्कसंगत होने की आवश्यकता नहीं है। भक्ति बनी ही है धारणा और प्रवृति के धागों को काटने के लिए और इसके लिए हमें बुद्धि से ऊपर उठना होगा। ऐसी भावातीत स्थिति विश्वास्कर्ता और विश्वास को एकाकार करती है। जिस क्षण आप एक होते हैं उसके दूसरे क्षण में आपको आपके इष्ट की प्रतिमूर्ति दिखाई देगी जो कि न केवल एक प्रकाश पुंज या विभिन्न रंगों की आकृति होगी बल्कि एक साक्षात आकृति जिसे आप स्पर्श कर सकते हैं।

एक बार फिर से कुत्तों की बात करते हैं, उनकी स्वामिभक्ति मुझे छू गयी। क्योंकि हम उन्हें खिलाते रहे हैं, वे आश्रम की रखवाली करने लगे। वे हमारी रक्षा करना चाहते हैं। यह विश्वासपात्र की मूक सहमति है। उन्हें भोजन मिलता है, वो पहरा देते हैं। उन्हें प्यार मिलता है, वो वापस प्यार देते हैं। उन्हें प्यार नहीं मिलता है, फिर भी वो प्यार देते हैं। आपके मन की अवस्था कैसी भी हो, वे पूंछ हिलाते हैं। उनके मन की अवस्था कैसी भी हो, वे फिर भी पूंछ हिलाते हैं। जब आपकी खेलने की इच्छा होती है, वे आपके साथ खेलना चाहते हैं। आप उन्हें घी के साथ चपाती दें, वे सहर्ष स्वीकार करते हैं। आप उन्हें बिना घी के देते हैं, वे फिर भी प्रसन्न रहते हैं। वो केवल भेद करते हैं अपने पोषण करनेवाले और अपरिचित में, मित्र और शत्रु में। ये विश्वापात्र की मूक सहमति है।

ऐसा प्रतीत होता है कि उनका आचरण किसी सिद्ध पुरुष से कम नहीं है। वो वर्त्तमान में जीते हैं। तो क्या इसमें कोई आश्चर्य है के, अंग्रेजी मे कुत्ता भगवान् का विपर्यय शब्द है। आखिरकार वही भगवान् सभी प्राणियों में रहता है। और भगवान मे कौन रहता है? क्या बूंद को सागर कि आवश्यकता है या सागर को बूंद की? बूंदें सागर का आधार हैं क्योंकि सागर बूंदों से बना है या बूंदों को सागर चाहिये अपने अस्तित्व को खोकर बचाने के लिये? किसी भी प्रकार से, दोनों पूर्ण हैं अपने आप में। ईशावास्य उपनिषद् का आवाहन मंत्र है:

ओऽम् पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।

अर्थात: वो भी पूर्ण है। यह भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण निकला है। पूर्ण में से पूर्ण को निकालने के बाद शेष भी पूर्ण है।

शान्ति।
स्वामी

हिन्दी अनुवाद: श्रीमति लता पाण्डेय तथा श्री नवीन पाण्डेय।  अंग्रेजी में पढ़ने के लिये यहां जायें



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