अज्ञात का ज्ञान - योग का पथ

एक पाठक ने निम्नलिखित टिप्पणी की:

आदरणीय स्वामी जी, मेरे मन में कुछ विचार एवं प्रश्न हैं जिन्हे मैं आपके सामने प्रस्तुत करना चाहूँगा। आप के लेखन बहुमूल्य हैं और आप के चाहने वालों के लिए ये अत्यंत लाभदायक हैं।
पहली टिप्पणी: "आप जिस पथ पर चलने जा रहें हैं यदि आप को उस पथ का पहले से ही ज्ञान हो तो सफलता की संभावना बहुसंख्यक बढ़ जाती है।"

आत्म बोध के पथ पर चलने के लिए भी क्या हमें भौतिकवादी दुनिया की तरह सफलता और संभावना की गणना करनी पड़ेगी? यह मार्ग तो अज्ञात की ओर जाने वाला पथ माना जाता है। तो भला अज्ञात की यात्रा का पहले से ही ज्ञान कैसे हो? क्या यह विरोधाभासी नहीं है?

["आत्म परिवर्तन का योग - प्रस्तावना" नामक लेख पर यह टिप्पणी की गई ]

पहला प्रश्न वास्तव में एक गंभीर प्रश्न है। आत्म बोध का मार्ग कईं मायनों में किसी भी अन्य मार्ग की तरह है। आप किसी भी लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं, तो आप को कोई ना कोई रास्ता तो अपनाना ही पड़ता है। परंतु यदि आप को पथ का पहले से ही ज्ञान हो, तो यह आप के आत्मविश्वास एवं सोच को सुदृढ़ बना देता है। यह गणना की बात नहीं है, बल्कि आप जो करने जा रहे हैं उसे समझने की बात है। उदाहरणार्थ यदि आप समुद्र तट पर एक दिन बिताने जा रहे हैं, तो आप अपने साथ तैराकी वेशभूषा ले जाते हैं। गणना तो केवल बुद्धि से ही की जाती है। परंतु आत्म परिवर्तन का लक्ष्य है बुद्धि से ऊपर उठ कर अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव करना। लकड़ी के दो टुकड़े आग को प्रज्वलित करते हैं, परंतु वही आग उस लकड़ी को भस्म कर देती है। उस ही प्रकार बुद्धि और पथ का ज्ञान ही आत्म परिवर्तन की आग को प्रज्वलित करते हैं। आत्म का ज्ञान प्राप्त करने पर, आप की आंतरिक शांति और ज्ञान द्वारा आप अपने बुद्धि और विवेक से भी ऊपर उठ कर मन की एक दिव्य अवस्था प्राप्त करने में समर्थ हो जाएंगे।

आप के दूसरे टिप्पणी पर मेरे ये विचार हैं:

यात्रा का क्या अर्थ है? यात्रा और पथ में क्या अंतर है? पथ आप का नक्शा है, तो यात्रा वास्तव में उस पर चलना है। समझ लीजिए आप को लंदन से मैनचेस्टर जाना है। दिशा जान ने के लिए ऑनलाइन जाना पथ के समान है तथा गाडी में सवार हो कर मैनचेस्टर जाना यात्रा के समान है। आप के मार्ग में अप्रत्याशित बाधाएं आ सकती हैं परंतु क्योंकि आपको अपने लक्ष्य का ज्ञान है इसलिए आपकी यात्रा एक हद तक सहज हो जाती है।

मैंने एक बार सुना था कि यदि आप को यह पता नहीं कि आप कहाँ जा रहे हैं, या आप का लक्ष्य क्या है तो आप को कोई भी सड़क वहाँ ले जा सकती है। संभवत: ग्रंथों या अन्य लोगों से आप को गंतव्य का केवल बौद्धिक रूप से ही ज्ञान होगा जब तक आप वहाँ पहुँचते नहीं हैं। वहाँ पहुँचने पर वह अज्ञात नहीं रहता। गंतव्य का ज्ञान ना होने का यह अर्थ नहीं कि आप को पथ का ज्ञान नहीं है। एक उदाहरण द्वारा इसे स्पष्ट करता हूँ -

आप के दांत में दर्द है और आप एक नये दंत चिकित्सक के पास जाने का निर्णय करते हैं। आप उसके क्लीनिक जाने की दिशा जान लेते हैं। आप उस दंत चिकित्सक या उसके क्लीनिक कभी नहीं गए हैं, यह अज्ञात है। वाहन चलाने के निर्देश के आधार पर, आप को यह पता है कि आप को कितनी दूर जाना है और आप को किन सड़कों पर यात्रा करनी है। रास्ते में भले ही अनेक बाधाएं या विचलन हों, आप अंत में उसी मार्ग पर लौट कर आते हैं जो आप को क्लीनिक की ओर ले कर जाता है। क्योंकि आप को रास्ता पता है आप को यह भी पता होगा कि आप को किस की आवश्यकता है - एक गाडी, ड्राइवर का लाइसेंस, एक नियुक्ति, स्वास्थ्य कार्ड इत्यादि।

प्रत्येक मार्ग, भक्ति, योग, तंत्र या कोई अन्य मार्ग की कुछ आवश्यकताएं एवं सिद्धांत होते हैं। इन मूल सिद्धांतों के ज्ञान द्वारा आप अपने मार्ग पर चल सकते हैं और अपनी प्रगति का निरीक्षण कर सकते हैं। यह मेरा दृष्टिकोण है।

हरे कृष्ण
स्वामी

 

मन - कर्म का प्रभाव एवं मानसिक छाप

आत्म परिवर्तन क्यों?
कर्म का प्रभाव एवं मानसिक छाप

क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ।   (पतंजलि योग सूत्र, 2.12)
हमारी मानसिक स्थिति पर हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों का प्रभाव पड़ता है। हमारे कर्म कईं जन्मों से संचित होकर हमारे दुःख का कारण बनते हैं।

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एक वर्णक्रमीय रंग के कताई पहिये की कल्पना करें। क्योंकि वह घूम रहा है इसलिए हमें यह भ्रम हो जाता है कि उसका रंग श्वेत है। परन्तु सत्य तो यह है कि उस पहिये पर कोई श्वेत रंग है ही नहीं। वह अत्यन्त तीव्र गति से घूम रहा है, इस कारण सब वर्णक्रमीय रंगों का संयोजन हो जाता है और हमें वह श्वेत प्रतीत होता है। इसी तरह हमारा मन भी एक चरखे के समान घूमता रहता है। यह हमारे मन में दुनिया की वास्तविकता का भ्रम पैदा करता है। हमें लगता है कि यह दुनिया स्थाई है, परन्तु यह सच नहीं है।

अपने सच्चे एवं स्वरूप को समझने के लिए, आप अपने मन को कुछ शांति प्रदान करें। उस शांति को प्राप्त करने के लिए तथा अपने मन की प्रकृति का ज्ञात करने के लिए, हर तरह के उपद्रव को समाप्त करना होगा। इस के बाद ही आप इसे महसूस कर सकेंगे। यदि आप अपने कर्म में अनुशासन का पालन करेंगे तो आप मानसिक स्थिरता को प्राप्त कर पाएंगे। हमारी भाषा, क्रिया एवं शब्द हमारे मन पर एक गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। इस लेख का उद्देश्य है आपको अपने कर्मों के अवशिष्ट से अवगत कराना। यह अवशेष हमारी मानसिक स्थिति का ज्ञात कराते हैं।
अधिकतर योगिक ग्रन्थ यह कहते हैं कि उनका अनुसरण करने वाला सख्त कार्मिक एवं नैतिक अनुशासन का पालन करे। यदि आप मुझसे पूछें तो यह अत्यावश्यक है। अब हम कर्म एवं उसके अवशेषों पर विचार करेंगे -

कर्म तीन प्रकार के होते हैं - शारीरिक, मौखिक तथा मानसिक। हमारा हर कर्म एक छाप छोड़ जाता है। शारीरिक कर्म भौतिक अवशेष छोड़ जाते हैं, तथा मौखिक एवं मानसिक कर्म मन पर छाप छोड़ जाते हैं। यदि हम अपने कर्म के निशान का विश्लेषण करें तो हमें ज्ञात होगा कि यह घट अवश्य सकता है परन्तु कभी नष्ट नहीं हो सकता। मैं इस सत्य को एक उदाहरण के द्वारा विस्तृत करूँगा -

1. शारीरिक कर्म - मूर्त अवशेष
सभी शारीरिक कर्म जिनमें स्पर्श की आवश्यकता होती है उन्हें हम भौतिक कर्म कहते हैं। शारीरिक कर्म अपने पीछे भौतिक अवशेष छोड़ जाते हैं। समझ लीजिए कि आपके पास एक सेब है। उसके स्वाद का आनंद लेने के लिए आप उसे छील के खाते हैं। जो भाग बच जाते हैं उन्हें हम त्याग देते हैं। और वही बचा हुआ भाग किसी गाय का भोजन बन जाता है। इसी प्रकार हमारे कर्मों के अवशेष किसी अज्ञात जीव की मदद कर देते हैं। जिस सेब का हमने सेवन किया वह हमारे शरीर में रहता है। यह हमारे पाचन तंत्र द्वारा संसाधित किया जाता है। इस प्रकार दो तरह के अवशेषों का निर्माण होता है। एक जो हमारे शरीर में हमारे नसों में दौड़ता है और उसका अनवशोषित भाग मूत्र तथा मल द्वारा बाहर निकल जाता है। और फिर कईं तरह के बैक्टीरिया इसका सेवन करते हैं। सेब खाने की हमारी भौतिक कार्यवाही कईं जीव जंतुओं पर अपनी छाप छोड़ती है। उस सेब का अवशेष जो हमारे लहू में बस गया है, हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। जो अवशेष गाय के शरीर में रहते हैं, वह उसके स्वास्थ्य तथा उसके दूध की गुणवत्ता पर प्रभाव डालते हैं। आपके शरीर से निकले हुए अवशेष कईं जीव जंतुओं पर प्रभाव डालते हैं। देखने में यह इतना विचित्र एवं बड़ा नहीं लगेगा परन्तु यदि हम सोचें कि छः अरब मनुष्यों के अवशेष प्रकृति के जीव जंतुओं को प्रभावित करते हैं तो यह प्रक्रिया अत्यंत बड़ी लगती है। हमारे शारीरिक कर्मों का प्रभाव हम पर तथा हमारे आस पास के लोगों पर पड़ता है। यह पूरे संसार को प्रभावित करता है। आत्म परिवर्तन के मार्ग पर,आत्मसंयम रखना अत्याधिक महत्वपूर्ण होता है। इस की वास्तविक प्रथाओं को उचित धाराओं के तहत पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।

2.मौखिक कर्म - मानसिक अवशेष
आप जो कुछ भी बोलना चाहें वह एक अनुदेश हो, कोई व्याख्यान हो, अथवा कोई प्रश्न हो, वह मौखिक कर्म के अंतर्गत ही आता है। सारे मौखिक कर्म अपने पीछे मानसिक अवशेष छोड़ जाते हैं। हमारे द्वारा बोले गए शब्द हमें तथा हमारे आस पास के लोगों को प्रभावित करते हैं। शारीरिक अवशेषों को मिटाना सरल होता है, परन्तु मानसिक अवशेष मिटने में समय लग जाता है। हम सेब के उदाहरण पर लौट कर जाते हैं। समझ लीजिए कि आपने एक सेब खाया हो जो आपको अत्यधिक स्वादिष्ट लगा। सेब खाते समय आपके साथ और लोग भी थे और उसी समय आपने सेब के स्वाद के विषय पर कुछ कह दिया। कुछ समय बाद आपको सेब का स्वाद याद रहे न रहे परन्तु आपको अपने द्वारा बोली गयी बातें अवश्य याद रहेंगी। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि यदि आपने उस सेब को खाते समय कुछ नहीं बोला होता तो आपको संभवतः उस सेब का स्वाद याद भी नहीं होता क्योंकि उस समय आपके मन में उस सेब की छाप नहीं छूटी होती। आत्म परिवर्तन के मार्ग पर, दृढ़ मौखिक अनुशासन की आवश्यकता होती है। मैं प्रासंगिक वर्गों में इस पर अधिक स्पष्टीकरण दूंगा।

3. मानसिक कर्म - हमारे मन पर उनका प्रभाव
तीनों कर्मों में सबसे सूक्ष्म एवं शक्तिशाली मानसिक कर्म होता है। यह हमारे पीछे एक स्थाई निशान छोड़ देता है जिसकी छाप मिटाना अत्यंत कठिन हो जाता है। किसी भी प्रकार के कर्म का मूल एक विचार ही होता है। किसी विचार का पीछा करना ही एक मानसिक कर्म होता है। यह आपकी मानसिक स्थिति पर तत्काल प्रभाव तथा आपकी चेतना पर चिरस्थाई प्रभाव डालता है चाहे आपका मन कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो। एक बार फिर हम उस सेब के उदाहरण पर लौट कर जाते हैं। मान लीजिए कि इस बार आपके पास सेब नहीं हैं, परन्तु केवल सेब का विचार आपके मन में आता है। आप उस विचार को छोड़ते नहीं हैं बल्कि उसका पीछा करते हैं। वह विचार संभवतः आपको दुकान से सेब खरीदने के लिए प्रेरित करे। ध्यान दीजिए कि सेब के विचार से अब हम दुकान के विचार पर आ चुके हैं जिस से हमने पहले सेब खरीदा था। उस दुकानदार का चेहरा तथा उससे किया गया वार्तालाप सब हमारे मन में आ जाता है। हमें याद आता है कि हमने उसे पैसे दिए थे। हमें दूसरे ग्राहक का भी ध्यान आता है, जो केले खरीद रही थी हमें याद आता है कि वह किस प्रकार केले चुन रही थी। हमें दुकानदार से किया गया उसका वार्तालाप याद आता है। आप उस दुकानदार के विचार पर वापिस आ जाते हैं जब वह आपको सेब का थैला प्रदान करता है। फिर आप उस थैले को लेकर चलना शुरू करते हैं और उसी समय आपके मन में विभिन्न प्रकार के विचार आते हैं, जैसे कि बाज़ार का हाल क्या होगा या फिर कोई अनहोनी जो आपके साथ घटी थी या और कुछ। यह प्रक्रिया इसी प्रकार चलती रहती है।

यदि आपने उस सेब के विचार को पहले ही दरकिनार कर दिया होता तो आप इस मानसिक कर्म के चक्कर में फंसते ही नहीं। यह सब हमारे मन की उपज होती है। यदि आपने यह ठान लिया होता कि आप अपनी ध्यान की वस्तु को छोड़ के और किसी वस्तु पर ध्यान नहीं लगायेंगे तो आपको इसका अच्छा फल मिलता। क्या आपको पता है कि एक सामान्य इंसान के मन में चौबीस घंटों में साठ हज़ार विचार आते हैं। इसी कारण हमें सोना अत्यंत पसंद है, क्योंकि हमें थोड़ी सी छुट्टी मिलती है। यदि आप एकाग्र रहेंगे तो आपके मानसिक कर्म अनुशासित रहेंगे तथा ध्यान लगाने में भी सहयोग मिलेगा।

हमारा ध्यान सही रखने में हमारी स्मृति बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जब आप अपनी स्मृति में केवल अपने ध्यान की वस्तु को रखने में सक्षम होते हैं तो समझ लीजिए कि अब आप शांतिपूर्वक ध्यान लगा सकते हैं। हमारी स्मृति सही तरह से ध्यान लगाने में बाधा भी उत्पन्न करती है। इसका कारण यह है कि हमारी स्मृति पर हमारी मानसिक कर्मों का प्रभाव होता है।

अनुभूतविषयासंप्रमोषः स्मृतिः. (पतंजलि योग सूत्र, 1.11)
स्मृति चेतना का एक समारोह एवं शब्दों और अनुभवों के अनछुए संग्रह होती है।

हम अपने मन को खाली नहीं कर सकते हैं। हालांकि यह संभव है कि हम उस विचार को उसकी उपज होते ही त्याग दें। जब हम अपने मन को शांतिपूर्वक रखते हैं तो मानसिक छाप हटने लगती है।

आप अपने मन में जिस प्रकार के विचार भरेंगे आप को उस ही प्रकार के परिणाम मिलेंगे। तो यदि आप बुरा सोचेंगे अथवा बुरा बोलेंगे तो उसका अवशेष आपको भी बुरा बना देगा। वहीं यदि आप सद्विचार रखेंगे तो उसका फल भी अच्छा मिलेगा। आपका मन एक गोदाम की तरह है। इसे व्यर्थ वस्तुओं से न भरें।

परम योगी श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं -

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता.
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ।। (6.19 भगवद गीता )


अर्थात एक विजयी योगी का मन उस पवनरहित स्थान में पड़े दिए की तरह होता है जो कभी विचलित नहीं होता।

पवन की अनुपस्थिति में जिस प्रकार लौ स्थिर रहती है, उसी प्रकार इच्छाओं के वायु के अभाव में हमारा मन भी विचलित नहीं होता है। और हमारी इच्छाएँ केवल हमारे विचार ही होते हैं जिनका त्याग करने में हम सक्षम नहीं हो पाते। यदि हम अपना मन ईश्वर की और लगा दें तो हमें अवांछित विचारों से छुटकारा मिल जाएगा। यदि हमारा मन स्थिर रहेगा तो उसमें विचारों की उथल पुथल होगी ही नहीं। मन को केवल प्रेम से ही भरना चाहिए।

जिस तरह हमारा शरीर अत्यधिक कार्य करने के कारण थक जाता है, उसी प्रकार अनवरत बोलने से,हमारा मन भी थकावट का शिकार हो जाता है। यदि हम आत्म परिवर्तन के योग को सम्पूर्ण रूप से अपना लें, तो हम प्रसन्नता एवं शांति के अथाह सागर में गोते लगाएँगे। एक स्वस्थ शरीर, नियंत्रित भाषण और शांत मन सही ढंग से आत्म परिवर्तन के पथ पर चलने के परिणाम हैं।

शांति।
स्वामी






 

भेड़ के बीच शेर - मन का वास्तविक रूप

यदि कोई शेर भेड़-बकरियों की संगत में रहे तो वह भी उनकी तरह बन सकता है। हमारा मन अपने वास्तविक रूप में सदा शांति एवं आनंद से परिपूर्ण रहता है।

 
मैं अपने इष्ट, अपने गुरु को दंडवत प्रणाम करता हूँ। वे जो सृष्टिकर्ता एवं पालनकरता हैं। मैं स्वयं को सम्पूर्ण एवं स्पष्ट रूप से उनके कमल चरणों पर अर्पित करता हूँ।
एक समय की बात है, अपने बच्चे को जनम देने के पश्चात ही एक शेरनी की मृत्यु हो जाती है। एक बालिका जिसने कभी किसी शेर के बच्चे को नहीं देखा होता है वह उसे वन से अपने घर ले आती है। वह उसे बकरियों का दूध पिलाती है और उसका पालन पोषण भेड़-बकरियों के समान करती है। शेर भी बकरियों के साथ ही बड़ा होता है तथा उनही के समान वह भी घास चरने लगता है। बकरियों के साथ रह कर वह यह भूल जाता है कि वास्तव में वह एक शेर है।

एक दिन झुण्ड के साथ चरते चरते शेर अन्य बकरियों से बिछड़ जाता है और वह अपने आप को वन के बीच अकेला पाता है। घने वन में अपने आप को अकेला देख कर शेर भयभीत हो जाता है। जब वह सामने से एक भेड़िये को आते देखता है तो अपनी जान बचाने के लिए वह भागने लगता है। परंतु उसे यह देख कर आश्चर्य होता है कि अन्य पशु उस से भयभीत हो कर भागने लगते हैं। वह वहाँ पर रुक कर इस बात का निरीक्षण करने लगता है। उसे लगता है कि अवश्य ही कोई बात है जिस से वह अनभिज्ञ है। वह उस घटना पर और चिंतन करता है और उसे लगता है कि उसे इस बात पर और गहन खोज करनी चाहिए।

वह स्वतंत्र रूप से निर्भय होकर घूमने का निर्णय लेता है। जहाँ भी वह जाता है उसे वही प्रतिक्रिया दिखाई देती है कि सारे पशु उसके भय से भाग जाते। कुछ देर तक ऐसा ही चलता रहा फिर उसने देखा कि उसी की तरह कुछ और शेर एक सांड के मृत शरीर को खा रहे हैं। उसके अंदर भी मास खाने की एवं शिकार करने की अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है। वह अपने भोजन के लिए एक बछड़े का शिकार करने का निर्णय करता है। बछड़े के शिकार एवं भोजन करने पर उसे ऐसा आनंद मिलता है जिस की अनुभूति उसने जीवन में पहले कभी नहीं की होती। इसके अतिरिक्त उसके मन में निर्भीकता की भावना उत्पन्न हो जाती है। उसे लगने लगता है कि वन ही उसका वास्तविक घर है और वहाँ उसे कोई हानि नहीं पहुँचा सकता।

इसी प्रकार, आनंद एवं निर्भीकता ही हमारा वास्तविक स्वरूप है। हमारे अंदर का शेर बकरियों की तरह व्यवहार इसलिए करने लगा है क्योंकि हमारी परवरिश उनही की तरह हुई है। हम अपने परिवार एवं समाज से प्रभावित हो जाते हैं। हम कईं कारणवश अपने वास्तविक स्वभाव को पहचान नहीं पाते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि सदैव हमने इस संसार को नश्वर शरीर के द्वारा ही महसूस किया है।

जिस आनंद की हम तलाश कर रहे हैं वह हमें बाहरी दुनिया में प्राप्त नहीं होगा। हमारे अंदर परमानन्द का एक सागर है। आत्म बोध का अर्थ है हमारे भीतर छिपे सम्पूर्ण आनंद एवं शांति की प्राप्ति। हमारा स्वरूप एक आनंद एवं शांति के अथाह समुद्र के समान है। परंतु हमारा स्वरूप सांसारिक प्रथाओं के द्वारा परिवर्तित कर दिया गया है। हमारे विचार संसार के विचारों का ही प्रतिबिंब हैं। परंतु हम स्वयं अपने कर्मों एवं मनोकामनाओं के ही परिणाम हैं। हम सांसारिक बंधनों में बंध कर अपने वास्तविक स्वरूप को भूल चुके हैं। यह परिवर्तन पारिवारिक धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों से आया है। सदियों से ये प्रथायें चली आ रही हैं जिन को अधिकतर व्यक्ति खंडित नहीं करते हैं और इसे स्वीकार कर लेते हैं।

हमारी बाहरी दुनिया हमारी भीतरी दुनिया का केवल एक प्रक्षेपण है। वास्तव में, हमारी बाहर की दुनिया, हमारी अंदर की दुनिया की एक सटीक प्रतिकृति है। हमारी भीतरी दुनिया हमारे विचारों से ही निर्मित है। क्योंकि हम अपने वास्तविक स्वरूप को भूल चुके हैं, इसी कारण हमारे भीतर की दुनिया हमारे बाहर की दुनिया से बहुत प्रभावित होती है। यदि भीतर की दुनिया में अशांति हो, तो हमें बाहर की दुनिया भी उदासीन एवं निराशाजनक लगती है।

आत्म परिवर्तन के योग का लक्ष्य है आपको आपके वास्तविक स्वरूप का बोध कराना और आपको अपनी भीतरी दुनिया का अनुभव कराना। मैं केवल आपको इन प्रथाओं से अवगत करा सकता हूँ तथा आपको इनपर चलने का सही मार्ग दिखा सकता हूँ;  इसकी प्राप्ति आप ही पर निर्भर है।

हरे कृष्ण।
स्वामी
 

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