वार्तालाप से एकाग्रता की ओर


एक अच्छे ध्यान मे स्तिथ होने के लिये महान एकाग्रता की आवश्यकता है, और एक महान ध्यानी बनने के लिये सर्वोच्च एकाग्रता की आवश्यकता है। एकाग्रता, विशेष रूप से एक स्थिर एकाग्रता, अभ्यास के साथ आती है। आप जितना अधिक अभ्यास करेंगे, आपकी एकाग्रता उतनी अधिक निखरेगी।

श्री कृष्ण के समय मे अर्जुन एक महान धनुर्धर व योद्धा हुए। उनके छोटे भाई, भीम को अत्याधिक खाने का शौक था। एक बार अमावस्या की अन्धेरी रात में, घोर अन्धकार में भीम को भूख लगी। वह रसोई में घुस कर भोजन और अन्य चीजों को तलाश करके वही खाने बैठ गया। अन्धेरे मे भोजन को सुलभता से खाना भीम के लिये एक साधारण बात थी क्योंकि वे बाल्य अवस्था से ऐसा करते आ रहे थे। अन्धेरे मे छुप कर खाने का उनको अभ्यास हो चुका था। परन्तु आज अर्जुन जाग रहे थे और उन्होने भीम का पीछा किया। अपने भाई को अंधेरे में आसानी से खाते हुये देख वे चौंक गये।

उन्होने सोचा यदि भीम रसोईघर में भोजन के लिए अपना रास्ता खोज, रात्रि के घने अन्धकार मे ऐसे खा सकता है जैसे कि दिन का भरपूर उजाला हो तो मैं भी तीरंदाजी मे ऐसी दक्षता क्यों नहीं प्राप्त कर सकता?
अर्जुन ने एकाग्रता और दृढ़ता के साथ रात में अभ्यास शुरू कर दिया और आगे चल कर महाभारत के युद्ध मे इसी कला के आधार पर उन्होने जयद्रथ पर विजय हासिल की।

आप जितना अधिक एकाग्रता बनाने का अभ्यास करेंगे, ध्यान योग की गहराई को उतनी ही उत्तमता से जानेंगे। अधिकतर मनुष्य टीवी एकाग्रता से देखते हैं। कुछ शतरंज एकाग्रता से खेलते हैं। पुस्तक को पढ़ने के लिये भी एकाग्रता चाहिये। परन्तु टीवी की एकाग्रता एक बहुत बडा भ्रम है। वास्तव मे तो वह मनुष्य को और भी अस्थिर कर देता है। समाधि के लिये जो एकाग्रता चाहिये वो भिन्न प्रकार की है। इसी एकाग्रता पर हम चर्चा करेंगे। सुई मे धागा पिरोने के लिये जिस एकाग्रता की आवश्यकता है, समाधि मे जाने के लिये भी ठीक उसी प्रकार की एकाग्रता चाहिये। अन्तर है तो केवल अवधि का, सुई मे धागे के लिये कुछ पल चाहिये और समाधि के लिये उससे कहीं अधिक समय। इस तरह की एकाग्रता तथा स्थिरता गहन ध्यान और अत्यधिक सावधानी से ही आती है।

श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
तत्र एकाग्रं मन कृत्वा यतचित्तेन्द्रिय क्रिय।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये। (भगवद् गीता, 6.12)

अर्थात योगीजन निपुणता एवं दृढ़ता से एक ही मुद्रा में बैठ, अपनी इंद्रियों और मन को सर्वोच्च एकाग्रता के साथ, स्वयं को योग में अभ्यसत करते है।

यहाँ मुझे अर्जुन की एक प्रसिद्ध कहानी याद आती है।

अर्जुन एक राज परिवार से था। वह अपने सगे तथा चचेरे भाइयों के साथ गुरु द्रोणाचार्य का शिष्य था। गुरु द्रोण ने बहुत वर्षो तक शिक्षा देने के बाद एक दिन सबकी परीक्षा लेने का फैसला किया। उन्होने दूर एक पेड़ की एक शाखा पर एक लकड़ी के पक्षी को टाँग दिया। उन्होने अपने सभी छात्रों को बुलाया और एक पंक्ति में खड़ा होने के लिए कहा। उनका लक्ष्य था चिड़िया की आंख को अपने तीर से भेदना।

उन्होने एक शिष्य को बुलाया और उसको निशाना साधने के लिये कहा। इससे पहले कि वो निशाना लगाये, गुरु द्रोण ने उससे पूछा "तुम क्या देख रहे हो ?"

"मैं पेड़ को देख रहा हूं।" शिष्य ने कहा।

द्रोण ने उससे तीर चलवाने की बजाय उसे एक तरफ खड़ा होने को बोला।

उन्होने वही प्रशन प्रत्येक शिष्य को दोहराया। सबने अलग अलग जवाब दिया। कुछ ने कहा कि वे पत्ते को , कईयो ने कहा की वे पक्षियों को और कुछ ने कहा कि वे पेड़ों को देख रहे है। हर बार गुरु द्रोण ने उन्हे एक तरफ खड़ा होने के लिये कहा।

जब अर्जुन की बारी आई और वही प्रश्न उससे किया गया तो  उसने कहा, "मैं केवल चिड़िया की आंख देख रहा हूँ।"

द्रोण ने उसे तुरन्त तीर चलाने के लिये कहा और अर्जुन ने एक ही निशाने मे चिड़िया की आंख को भेद दिया।
यह एक साधारण कहानी है किन्तु सभी अच्छी चीजों की गहराई भी सादगी में ही होती है। एकाग्रता भी एक ऐसी ही प्रकिर्या है जो कि विचारों के जटिल जाल को सरलता से विलीन कर देती है।

यदि आप ध्यान योग के माध्यम से आंतरिक आनंद का अनुभव करना चाहते हैं, तो आप को एकाग्रता के साथ बैठना सीखना होगा। इसमे पसंद नापसंद का प्रश्न नहीं है। यदि समाधि का सुख चाहते हो तो मन को दृढ कर एकाग्रता का निर्माण करना होगा। दृढता से अभ्यास करने के लिये संकल्प शक्ति तथा धैर्य की आवश्यकता होती है। जो एकाग्रता मे स्तिथ होना सीख लेता है, उसके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता। वो अपनी इच्छा मात्र से सब कुछ प्राप्त कर लेता है।

एकाग्रता से आपके विचारों को एक नयी शक्ति तथा चेतना को एक नयी दिशा मिलति है। झरने मे चलती हुई पानी की बूंदे एकाग्रता के कारण ही पत्थर की चट्टानो को बनाती और तोड़ती है। वही बूंदे जब  बिखरी हुई बारिश के रूप मे बरसती है तो उस सक्षमता को खो बैठती हैं।

अधिक बोलने से एकाग्रता क्षीण होती है। मौन मुख से मन को मौन करना भी कदाचित सुगम हो जाता है

शांति।
स्वामी

इस लेख का हिन्दी अनुवाद अज्ञात रूप मे एक भक्त ने किया है  अंग्रेजी में पढ़ने के लिये यहां जायें



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