एकांत: अकेले रहने की साधना

यदि आप एकांत में सुख पा सकते हैं तो कभी अकेलेपन का अहसास नहीं होगा। एकांत आप की भीतरी शक्ति को विकसित करता है।
अकेले रहने को संस्कृत में एकांत कहते हैं। जो व्यक्ति मन को अपने अंदर की ओर केंद्रित करने में सक्षम हो उस की प्रमाणिक पहचान यह होती है कि उसे एकांत अत्यंत सुखदायी लगता है। एकांत रहने की असमर्थता बेचैन मन का अचूक लक्षण है। एक शांत मन के लिए एकांत जैसा अथाह कुछ नहीं तथा एक बेचैन मन के लिए एकांत से अधिक भयानक कुछ नहीं। केवल दो प्रकार के व्यक्ति ही एकांत में सुखद रह सकते हैं - आलसी और योगी। एकांत से मेरा अर्थ यह नहीं कि आप कहीं दूरस्थ स्थान में रहें किन्तु टेलिविज़न, पुस्तकें, इंटरनेट इत्यादि का उपयोग कर रहें हों। एकांत से मेरा यह तात्पर्य है कि आप केवल स्वयं की संगत में रहें। आप एक ही व्यक्ति से बात कर सकते हैं जो आप स्वयं हैं, केवल एक ही व्यक्ति की सुन सकते हैं जो आप स्वयं हैं, चारों ओर केवल आप ही आप हैं। केवल आप का मन ही आप को व्यस्त रखने वाली वस्तु है। आप ऊब गए तो वापस अपने आपके पास जाते हैं और आप सुखी हैं तो अपने आप के साथ ही प्रसन्नता बांटते हैं। एकांत वास की अभ्यास के समय दूसरों से मिलना या उनसे बात करना तो दूर उनको आप देख भी नहीं सकते हैं। आप केवल एक ही व्यक्ति को देख सकते हैं जो आप स्वयं हैं।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते (भगवद गीता २.५५)
जो स्वयं के भीतर बसता है और भीतर संतुष्ट रहता है वह वास्तव में एक योगी है।
जो साधक भीतर की ओर केंद्रित है वह एकांत में अत्यन्त आनंद पाता है। ऐसी स्थिति में वह भीतरी परमानंद का लगातार अनुभव कर सकता है।

यदि आप एकांत में रहें और पढ़ने या लिखने या इसी तरह की अन्य गतिविधियों में अपने मन को लगाते हैं तो वह भी एकांत ही है। परंतु यह बेहतरीन प्रकार का एकांत नहीं है। यह एक अधूरे एकांत के समान है। सर्वश्रेष्ठ एकांत वह है जिसमें आप को हर बीतते हुए क्षण का अहसास हो रहा है। आप सुस्त नहीं हैं या आप को नींद नहीं आ रही है। आप जागृत एवं सतर्क हैं। आप को बेचैनी का अहसास नहीं हो रहा है। आप को सदैव "कुछ" करने की उत्तेजना नहीं है। आप भीतर से शांति का अनुभव कर रहें हैं। यदि आप अपने मन का सामना करें और सीधे उसे ध्यानपूर्वक देखें तो आप एकांत में हैं। जिसने एकांत में रहने की कला में निपुणता प्राप्त कर ली ऐसा योगी सदैव भीड़ में भी एकांत रहेगा। उसकी शांति बाहर के शोर से अप्रभावित रहती है। उसकी भीतरी दुनिया बाहरी दुनिया से संरक्षित है।

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।। (भगवद गीता ६.१०)

एक व्यक्ति जो स्वयं के परमात्मा से मिलन का इच्छुक है उसे इच्छाओं तथा बंधनों और स्वामित्व से स्वयं को मुक्त करके भीतर की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और एकांत में रहकर ध्यान करना चाहिए।

एकांत में बेचैनी और व्यामोह की प्रारंभिक अवधि के बाद हमारे भीतर परमानंद की भावना बहने लगती है। सब कुछ स्थिर हो जाता है। आप का मन, इंद्रियाँ, शरीर, पास-पड़ोस, बहती नदी, झरने - सब कुछ स्थिर हो जाते हैं। अनाहत नाद और अन्य दिलकश ध्वनियाँ स्वयं ही प्रकट होने लगती हैं। परंतु वे एक विचलन उत्पन्न कर सकती हैं। एक निपुण ध्यानी अनुशासित रूप से अपना ध्यान केंद्रित रखता है। एकांत में रहने के लिए अत्यधिक अनुशासन की आवश्यकता है। और स्वयं के अनुशासन के द्वारा आप जो भी कल्पना करें वह सब प्राप्त कर सकते हैं। एकांत में अनुशासित रहना अपने आप में ही एक तपस्या है। सबसे तीव्र गती से आत्म शुद्धीकरण करने का यही रास्ता है।

कायेन्द्रियसिध्दि: अशुध्दिक्ष्यात तपस: ( पतंजलि योग सूत्र , २.४३ )
स्वयं का अनुशासन सभी वेदनाओं और दोषों को जला देता है। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी रहा है। एकांत बिना किसी उपदेश के आप को तेजी से सिखा सकता है।


जेटसन मिलरेपा, मार्पा के शिष्य
योग एवं तंत्र के ग्रंथों ने एकांत में रहने की क्षमता और स्थिरता प्राप्त करने को अत्यन्त महत्व दिया है। महान तिब्बती योगी जेटसन मिलरेपा ने अपने गुरु के निर्देशानुसार भयंकर चोटियों पर कड़े एकांत में ध्यान करते हुए अपना पूरा जीवन व्यतीत कर दिया। एक बार उनकी महिला शिष्यों ने उन्हें प्रचार के लिए अपने गाँव आमंत्रित किया। शिष्यों का तर्क था कि मिलरेपा की उपस्थिति, आशीर्वाद एवं तपस की शक्ति से मानवता का कल्याण होगा। विशेषकर यदि मिलरेपा शहरों और गाँवों में उनके बीच रहें।

किंतु मिलरेपा ध्यान के अभ्यास में घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध थे। उन्होंने उत्तर दिया - "एकांत में ध्यान अभ्यास करना ही स्वयं में मानवता का कल्याण, उनकी सेवा है। हालांकि मेरा मन अब विचलित नहीं होता है तब भी एक महान योगी का एकांत में रहना अच्छी प्रथा है।" (दी हंडरेड थौसेंड सांग्स आफ मिलरेपा, गर्मा चैंग)

मानसिक परिवर्तन में एकांत रहने का अभ्यास अत्यन्त महत्वपूर्ण है। एकांत अभ्यास में स्वाभाविक रूप से निस्तब्धता की साधना भी शामिल है। आप संक्षिप्त अवधियों में एकांत अभ्यास शुरू कर सकते हैं। पहले कम से कम चौबीस घंटे की अवधि से प्रारंभ कर सकते हैं। नगरवासियों के लिए अकेले रहने की जगह ढूंढना कठिन है। शुरू करने के लिए एक शांत कमरा खोजें और उसमें स्वयं को एक या दो दिनों के लिए बंद करलें। आप के साथ कम से कम सामग्री ले जाएं। आपके कमरे में एक संलग्न शौचालय हो तो उत्तम होगा। ध्यान रहे कि यह केवल शुरुआत है। धीरे-धीरे वीरान स्थानों में अभ्यास करने से एकांत की प्रबलता विकसित होगी। मेरा अनुभव यह कहता है कि आप जब प्रगति करोगे तब ध्यान के लिए अनुकूल जगह सहित प्रकृति सब कुछ की व्यवस्था स्वयं ही कर देगी।

निपुण एकांत की परिभाषा को समझने के लिए नीचे दी गई तालिका को देखें :

(बड़ा किया गया चित्र देखने के लिए चार्ट पर क्लिक करें।)
एकांत के अभ्यास के समय, यदि आप किसी भी व्यक्ति से मिलें या उसे देखें तो उसका प्रभाव लाल अर्थात विशाल है और उस ही क्षण आप विफल हो जाते हैं (और अधिक जानकारी के लिए मौन - निस्तब्धता की साधना पढ़ें)। ऐसे में आप को एकांत का अभ्यास फिर से शुरू करना होगा। इसी प्रकार यदि आप पारस्परिक कार्य टेलीवीज़न अंतर्जाल इत्यादि का उपयोग करें तो उस ही क्षण आप विफल हो जाते हैं। एकांत का अभ्यास मौन से भी दृढ़ अभ्यास है। आपके पास केवल कुछ पढ़ने की छूट है। हालांकि वो भी आप के एकांत को प्रभावित करता है , परंतु यह स्वीकार्य है। आप का लक्ष्य है मन को सभी कार्यों, बंधनों एवं व्याकुलताओं से मुक्त करना।   हिमालय पर्वत पर एकांत का जो मैं ने समय बिताया उस अनुभव पर जब भी मैं लिखना प्रारंभ करता हूं मेरे लेख बहुत लंबे हो जाते हैं। उम्मीद करता हूं किसी दिन मैं विस्तार रूप से इस विषय पर अलग से लिखूंगा।

जागो! स्वयं को संसार की भीड़ से मुक्त करने का प्रयास करो , ताकि भीड़ में भी आप स्वयं को मुक्त पा सकें।
(Image credit: Dennis Wells)
शांति।
स्वामी
यह आत्म परिवर्तन के योग की श्रृंखला में छठा लेख है।



मौन - निस्तब्धता की साधना

यह आत्म परिवर्तन योग शृंखला में पाँचवा अनुच्छेद है।

निस्तब्धता की साधना
मानसिक परिवर्तन

इस पोस्ट में आत्म परिवर्तन का एक मुख्य अभ्यास
प्रस्तुत है।

Image source: Steve Evans
आत्म परिवर्तन की राह पर पहला अभ्यास मौन रहने की कला है। यह आवश्यक नहीं कि इसी अभ्यास से आप आत्म परिवर्तन प्रारंभ करें, इस विषय का केवल मैं सब से पहले विस्तृत वर्णन कर रहा हूँ। निस्तब्धता मन की शांति की प्राप्ति में आप की सहायता कर सकता है। निस्तब्धता को संस्कृत में मौन कहते हैं। दिलचस्प बात यह है कि भगवद गीता में मौन को तपस्या के रूप में परिभाषित किया गया है:

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ (भगवद गीता १७- १६)

सुखद स्वभाव, सम मनोदशा, आत्म विचार और निदिध्यासन, एक शांत मन एवं भाव की शुद्धता मन की तपस्या होती है।

मनुष्य का मन सदैव बात करता रहता है। यदि आप बात कर रहे हों तो आपके मन की बात को सुनना संभव नहीं है। यदि आप अपने मन की बातों की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो उस को शांत करना असंभव है। और, अपने मन की सुनने के लिए आप का मौन होना आवश्यक है। मन की पूर्ण शांति प्राप्त करने के लिए निस्तब्धता सर्वोपरि है।

पहले आप को छोटी सी अवधि से मौन का अभ्यास प्रारंभ करना चाहिए। कम से कम एक साथ चौबीस घंटों के लिए मौन रहना चाहिए। आप केवल बोलती बन्द करके मौन रहें तो इस अभ्यास की केवल पचास प्रतिशत पूर्ती होगी। मौन अभ्यास का अर्थ है पूरी तरह से निस्तब्धता। अर्थात किसी भी प्रकार का वार्तालाप नहीं करना चाहिए। नीचे दिखाये गए चार्ट को ध्यान से जांचें -
(बड़ा किया गया चित्र देखने के लिए चार्ट पर क्लिक करें।)
उदाहरण के रूप में अपने वाहन चालक परीक्षा के बारे में सोचें। जब आप वाहन चलाने के लिए परीक्षण के अधिकारी के साथ गाडी में बैठते हैं तो आप को यह स्पष्ट है कि कईं गलतियाँ "तात्कालिक विफलता" होती हैं जबकि कुछ गलतियों को क्षमा किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि आप मुढ़ते समय इशारा नहीं करते हैं या लेन बदलने से पहले अंध क्षेट्र को देखने में विफल रहें तो आप का परीक्षण तुरन्त समाप्त किया जाता है और आप को वापस जाने को कहा जाता है। किंतु आप यदि पृष्ठ या पीछे देखने वाले दर्पण को लगातार देखने में अधिक सतर्क नहीं रहें और केवल कभी-कभार ही देखते हैं तो आप तब भी सफल हो सकते हैं।

इस प्रकार आगे की सभी प्रथाओं को "तात्कालिक विफलता", "चेतावनी" और "सुधारने की आवश्यकता" के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा। उपर्युक्त चार्ट के प्रभाव पंक्ति में “तात्कालिक विफलता” को लाल तथा “चेतावनी” को पीला और “सुधारने कि आवश्यकता” को हरे से सम्बोधित किया गया है।

समझ लें आप अड़तालीस घंटे के लिए मौन रहने का अभ्यास करते हैं। यदि उस अवधि में आप कोई भी मौखिक वार्तालाप करते हैं तो उसका प्रभाव लाल अर्थात विशाल है और उस ही क्षण आप विफल हो जाते हैं। यदि आप उन अड़तालीस घंटों में समाचारपत्र आदि पढ़ें, तो आप के अभ्यास की उत्कृष्टता पाँच प्रतिशत घट जाती है (चार्ट के महत्व पंक्ति को देखें), यह एक "हरी" गलती है क्योंकि आप अपना अभ्यास अभी भी जारी रख सकते हैं।

मौन के समय, शुरू में आप अपने साथ एक पुस्तक ले जा सकते हैं। परंतु आदर्शतः आप को मौन की पूर्ण अवधि एक कमरे में केवल स्वयं की संगत में ही बितानी चाहिए। परंतु यदि आप चौबीस घंटों में अठारह घंटे सोने में बिता दें क्योंकि आप के पास करने के लिए और कुछ नहीं है तब आप मौन के अभ्यास में अपना समय नष्ट ना करें। यह अभ्यास मौन का है, निद्रा का नहीं। आप जितना अधिक सचेत और सतर्क रहें आप का अभ्यास उतना ही बेहतर होगा। जब आप पूर्ण रूप से मौन का पालन करें, आप को अपने मन के बेचैन एवं अशांत स्वभाव का अहसास होना शुरू होगा। आप को पता चलेगा कि मन उस बेचैन लंगूर की तरह है जो अधिक समय तक किसी भी शाखा पर नहीं टिक पाता।

शुरू में, मौन के समय आप के ध्यान करने की क्षमता कम हो जाएगी। साथ ही संभवत: आप एक बेचैनी का अनुभव भी करेंगे। परंतु आप चिंतित ना हों - यह स्वाभाविक है। संयम के साथ निरन्तर प्रयत्न करते रहें फिर धीरे धीरे शांति का अनुभव करेंगे। इस प्रकार आप उत्कृष्टता से ध्यान करने के लिए तैयार हो जाएंगे। मौन अभ्यास एक उपजाऊ भूमी तैयार करने के समान है जिस पर आप ध्यान के बीज बो सकते हैं।

यह जान लें कि जो साधक समाधि की अवस्था का अनुभव करना चाहता हो उस के लिए मौन का अभ्यास अत्यंत महत्वपूर्ण है। जब आप अपने आइपॉड पर अपने मनपसंद गीत सुन रहे हों, तब ऐसा प्रतीत होता है कि बाहरी दुनिया का शोर अपने आप ही थम गया है। वह संगीत अन्य किसी भी ध्वनि को आप के लिए लगभग महत्वहीन एवं अनावश्यक बना देता है। इसी प्रकार जब आप आंतरिक शोर का नियंत्रण एवं संचालन करने में समर्थ हो जाएं, तब वह संगीत में परिवर्तित हो जाता है। और जब आप आंतरिक संगीत को सुनना आरंभ कर दें, तब आप के लिए सांसारिक दुनिया की किसी भी वस्तु का महत्व ही नहीं रह जाता।

मौन के अभ्यास में किसी भी प्रकार का लिखित, मौखिक अथवा इशारों द्वारा संवाद नहीं किया जाता। मौन केवल भाषण का ही नियंत्रण नहीं, इस में अपने कार्यों, भाषण और विचारों को भी शांत किया जाता है। एक सगुन उपासक जो ईश्वर को किसी देवी या देवता के रूप में पूजता है, वह मौन के समय अपने इष्ट की स्तुति कर सकता है। उसके लिए मौन का उद्देश्य मात्र मन की शांति नहीं। मौन द्वारा वह अपने इष्ट देवता के प्रति अपनी भक्ति को सुदृढ़ बनाता है।

समय आने पर मैं अनाहत नाडा पर अपने व्यक्तिगत अनुभव का वर्णन करूँगा। यह एक ऐसी ध्वनि है जो दो वस्तुओं के टकराने से उतपन्न नहीं होती। अभ्यास से इस ध्वनि तक कोई भी कभी भी पहुँच सकता है। यह निस्तब्धता और एकांत का एक स्वाभाविक परिणाम है।

इस शृंखला के अगले पोस्ट में, मैं मानसिक परिवर्तन के एक मुख्य अभ्यास एकांत पर लिखूँगा।
मौन के महत्व को समझने के लिए आप बातचीत पर लेख (वार्तालाप - एक अनियंत्रित मन की प्रवृति) फिर से पढ़ सकते हैं।

शांति।
स्वामी



 

वार्तालाप - एक अनियंत्रित मन की प्रवृति

 जागरूक अवस्था में मन सदैव बातूनी और व्यस्त रहता है। वह एक बेचैन लंगूर की तरह इधर-उधर कूदता रहता है।

आत्म परिवर्तन की चर्चा को हम मानसिक परिवर्तन से आरंभ करते हैं। हमारा मन ऐसे विचारों से बना है जिनका कोई तत्व नहीं है। मन के ये विचार बातचीत का रूप लेते हैं। मौन रहने की साधना मानसिक परिवर्तन का आधार है। इस लेख में मैं वार्तालाप का वर्णन करूँगा। अगले आत्म परिवर्तन लेख में मैं मौन रहने की साधना पर लिखूँगा।

मानव अवेगों में बात करने की इच्छा बहुत बड़ी होती है। यह माना जाता है कि सभी जीवजन्तु अपनी अपनी भाषा में संवाद करते हैं। परंतु मनुष्य ने अपनी विकसित बुद्धि द्वारा विस्तृत संभाषण प्रणाली का निर्माण किया है। आप अपनी चारों ओर देखें तो लोगों को अधिकतर समय बात करते हुए ही पाएंगे। बोले गए हर शब्द सुने नहीं जाते हैं। बात करने की प्रवृति बेचैन मन से उत्पन्न होती है। क्या ऐसी संभाषण उपयोगी है या व्यर्थ, सकारात्मक है या नकारात्मक यह तो हर व्यक्ति की व्याख्या पर निर्भर है। इस विषय पर और चर्चा करने से पहले चलिए हम यह जानें की वार्तालाप कितने प्रकार के होते हैं, उसकी क्या उत्पत्ति और क्या प्रभाव होता है। मन की गतिविधियों के आधार पर बातचीत तीन प्रकार के होते हैं -

१. बाह्य
इस प्रकार के वार्तालाप बाहरी संसार पर केंद्रित मन का परिणाम होते हैं। दूसरों के साथ शब्दों या इशारों से की गई हर प्रकार की बातचीत बाह्य होती है। यह संभाषण ही अधिकतर लोगों के दिन का अधिकांश भाग होता है। यह फोन, ईमेल इत्यादि हो सकते हैं। इस प्रकार के संभाषण मन की अशांति को बढ़ाते हैं। मन के बाहर की ओर केंद्रित होने का यह एक प्रमुख कारण है। मन जब बहिर्मुखी बन जाता है वह बाहरी वस्तुओं से आनंद उठाने पर विवश हो जाता है। ऐसी यात्रा अनंत आनंद प्रदान करने में असमर्थ होती हैं - इस में कुछ छोटी खुशियां तो मिल सकती हैं किंतु परमानंद नहीं मिल सकता।

इन वार्तालापों की संख्या को जितना हो सके कम करें - यह मन को अपने अंदर की ओर केंद्रित करने की एक निपुण विधि है। संभवतः आप के व्यक्तिगत, व्यावसायिक एवं सामाजिक गतिविधियों के कारण इन्हें तत्काल रोकना संभव नहीं, परंतु यदि मेहनत करें तो आप धीरे-धीरे इस पथ पर अवश्य प्रगति करेंगे। यदि आप को लंबी अवधियों के लिये शांत रहने की आदत हो जाए तो मन में शांति की अनुभूति करेंगे। यह स्वतः बात करने की प्रवृति को कम करेगा। अगली बार मौसम, राजनीति आदि के विषय पर बात करना चाहते हों तो उस प्रवृति को रोकें क्योंकि आप को उससे कुछ भी नहीं मिलेगा और संभवतः वह अन्य व्यक्ति वास्तव में आपके दृष्टिकोण को सुन भी नहीं रहा हो। संभाषण के समय अधिकतर लोग वास्तव में आप की बातों को ध्यान से सुनते नहीं हैं। वे केवल वक्ता की बात पूरी होने की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं ताकी वे स्वयं अपनी बात प्रारंभ कर सकें।

अधिकतर सामाजिक संभाषण व्यर्थ एवं अनावश्यक होते हैं जिसके कारण मन उतावला रहता है। सामाजिक नेटवर्किंग वेब साइटों के आगमन से इस प्रकार के वार्तालाप हमारे जीवन का एक बड़ा अंश बनते जा रहे हैं। यह केवल अधीर मन की बेचैनी बढ़ा रहा है।

२. मानसिक
इस प्रकार के संभाषण एक अस्थिर मन का परिणाम होते हैं। जब आप किसी से बात नहीं कर रहे हैं संभवतः आप अपने आप से बातचीत कर रहे हैं। विचारों का अनुकरण करना और मन को उस में व्यस्त रखना मानसिक बातचीत होती है। यह आप के मन को शांत नहीं रहने देती हैं। शांतिपूर्वक ध्यान करने में मानसिक बातचीत सबसे बड़ी बाधा होती है। कईं वर्षों से समाज और बाहरी दुनिया से प्रभावित होने के कारण आपके मन को बाह्य अथवा मानसिक बातचीत करने की आदत हो गयी है। एक बेचैन मन का स्पष्ट लक्षण मौन रहने की असमर्थता है। विचारमग्न मन, रोता हुआ नकारात्मक मन, कामुक भावुक मन और एक बातूनी बेचैन मन यह सब मानसिक संभाषण के उदाहरण तथा स्रोत और प्रोत्साहन हैं। जहाँ तक मुझे ज्ञात है इन वार्तालापों को रोकने की केवल दो विधियां हैं। एक अस्थायी विधि है अपने मन को कहीं और अलंकृत करना या एक स्थायी समाधान है अपने मन को शांत करना। एक बौद्धिक इच्छा (बौद्धिक इच्छा के विषय में आप इच्छा वृक्ष नामक लेख में जानेंगे) की ओर अपने मन को केंद्रित करने से आप मन को कहीं और अलंकृत कर सकते हैं। भक्ति भाव में अपने आप को स्थापित करके या ध्यान के अभ्यास के द्वारा मन को शांत किया जा सकता है।

यद्यपि ध्यान का मार्ग कठिन है, एकाग्रता एवं संकल्प से महत्वपूर्ण परिणाम मिल सकते हैं। जब तक आप को ध्यान के अभ्यास में प्रवीणता प्राप्त नहीं होती तब तक मानसिक संभाषण के बारे में सचेत रहें। यदि आप अपने आप को मानसिक वार्तालाप करते हुए पाएं तो उस को तुरंत बंद करें। उसे नियंत्रित या प्रतिबंधित करके नहीं रोकना चाहिए अपितु उपेक्षित करके या अपने लक्ष्य की ओर ध्यान केंद्रित करके रोकना चाहिए। याद रखें कि आपका मन तभी बात करता है जब आप उस की सुनते हैं।

३. सूक्ष्म
यदि आप किसी और से बात नहीं कर रहे हैं और ना ही अपने आप से बात कर रहे हैं तो संभवत: आप सूक्ष्म संभाषण कर रहे हैं। मन अशांत एवं बेचैन है तो आप उसे व्यस्त रखना चाहते हैं, कईं बार अनिच्छा से - जिस प्रकार एक अधीर और शरारती बालक के माता पिता उसे व्यस्त रखना चाहते हैं। ये सूक्ष्म वार्तालाप क्या है? यदि आप किसी से बात नहीं कर रहे हों, ना ही अपने आप से बात कर रहे हैं किंतु आप दूसरों को बात करते हुए सुन रहे हों तो आप सूक्ष्म बातचीत कर रहे हैं। सूक्ष्म बातचीत को पता लगाना कठिन है। वास्तव में आपका मन देखी या सुनी गई बातों का परीक्षण कर रहा है जिससे आप या तो सुख या दुख का अनुभव करते हैं अथवा केवल मन व्यस्त रहता है। इन वार्तालापों द्वारा आप कुछ उपयोगी नहीं कर सकते। टेलीविज़न देखना या रेडियो सुनना सूक्ष्म बातचीत के उदाहरण हैं। बिना किसी पूर्वाग्रह से देखा जाए तो सामान्य रूप से पुरुष पहले दो प्रकार के वार्तालाप महिलाओं जितना नहीं करते हैं इसलिए वे प्राय: इस प्रकार के बातचीत में और अधिक व्यस्त रहते हैं। महिलाओं की तुलना में आप पुरुषों को टेलीविज़न और अधिक देखते हुए पाएंगे। जितना अधिक मन उतावला है व्यक्ति उतना ही अधिक चैनलों को बदलता है। पुस्तक पढ़ना एक उपयोगी प्रकार का सूक्ष्म संभाषण है। पुस्तक पढ़ते समय आप का मन परीक्षण करने से अधिक सुन रहा है और सीखने में मगन है।

संक्षेप में एक अनियंत्रित मन को अधीरता से बाहर आने का एक द्वार चाहिए और बातचीत ठीक वही प्रदान करती है। यदि मन सदैव बात करता रहे तो कैसे मौन अवस्था प्राप्त कर सकता है! इसी कारण लोगों को नींद आरामदायक लगती है। नींद से शारीरिक लाभ मिलता है और व्यक्ति को सपनों के अतिरिक्त बातूनी मन का कोई आभास ही नहीं होता। इसी कारण नींद के समय ही मस्तिष्क की कोशिकाओं की मरम्मत होती है। सूक्ष्म बातचीत पर अपनी निर्भरता को जांचने के लिए पूर्व निर्धारित कुछ दिनों के लिए समाचारपत्र नहीं पढ़ने, टेलीविज़न नहीं देखने या रेडियो नहीं सुनने का संकल्प एक अच्छी विधि है। यदि आप किसी वस्तु से वंचित हों तभी यह पता लगाया जा सकता है कि आप उस पर कितना निर्भर हैं।

वार्तालाप की प्रकृति (उदाहरणार्थ भौतिक या आध्यात्मिक वार्तालाप) से आप के मन की स्थिति पर एक अस्थायी असर पड़ सकता है। कोई भी संभाषण सुखदायी, अप्रिय या तटस्थ हो सकता है। आप को सुखद बातचीत दिलचस्प लगती है। अप्रिय बातचीत से आप दूर रहना चाहते हैं और तटस्थ बातचीत आप के रुचि के अनुसार आप को कैसी भी लग सकती है। किसी भी वार्तालाप में रुचि होना या ना होना यह आप के सोच-विचार से प्रभावित मन पर निर्भर है। उदाहरण के लिए जिसने अपने मन को राजनीति या वाहनों की जानकारियों से अभ्यस्त किया हो उसे उन विषयों में और अधिक रुचि होगी उनकी तुलना में जो ललित कला या साहित्य में रुचि रखते हों।

मन बहुत शांत होता है यदि वह अपने वश में हो और वह कोई भी प्रकार के संभाषण नहीं करे। ऐसी शांति में ही आप मन के वास्तविक स्वरूप का अनुभव कर सकते हैं। यदि मन चाहे लंबी अवधि के लिए इस शांति के अनुभव को धारण करने में सक्षम रहें तो समाधी आप के लिए सहज है। एक बार समाधी को बनाए रखने में आप सक्षम हो जायें तभी वास्तविक कार्य आरंभ होता है। इसके बारे में बाद में लिखूँगा।

इन वार्तालापों को त्यागने के लिए जिन प्रथाओं को अपनाया जा सकता है उनका मैं आगे अन्य किसी लेख में वरण करूँगा। अभी के लिए केवल इस विषय पर जागरूकता ही आप को उकसाने के लिए पर्याप्त है। और निस्संदेह आप सचेत प्रयास से सभी प्रकार की बातचीत को कम कर सकते हैं और एक शांत मन का लाभ उठा सकते हैं।
(Image credit: Anup Shah/Fiona Rogers/Solent)
शांति।
स्वामी



 

विचारों से प्रभावित नैतिकता

क्या नैतिकता अप्रभावित एवं सामान्य है? क्या पाँच व्यक्तियों के जीवन को बचाने के लिए आप एक व्यक्ति को मार देंगे? ट्राली के नैतिक प्रयोग को पढ़ें।
नैतिकता के विषय पर मुझसे प्रायः प्रश्न किए जाते हैं। लोग जानना चाहते हैं कि क्या यह उचित है या अनुचित, कि कोई कार्य या व्यवहार नैतिक है या अनैतिक। उचित और अनुचित की क्या परिभाषा है? मैं आपसे पूछता हूँ - हम नैतिकता और अनैतिकता का विभेदन कैसे करें? वे जो मुझसे इस प्रकार का प्रश्न करते हैं प्रायः नैतिकता पर ससक्त विचार रखते हैं। इस में कोई बुराई नहीं - उन की सोच स्पष्ट है। परंतु अधिकतर उनके यह विचार उनके स्वयं के नहीं होते। यह विचारधारा तो मात्र समाज या उनके बड़ों की एक धरोहर है। हर पीढ़ी यह समझती है कि वह विचारधारा ही उचित है।

यदि आप एक पल विचार करें, आप पाएंगे कि न केवल आपकी नैतिकता आपके सोच-विचार से प्रभावित है, अपितु वह आपके हालात और परिस्थिति पर भी निर्भर है। संभव है जीवन में आपके अपने मूल सिद्धान्त हों परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि आपका हर निर्णय पूर्ण रूप से स्वतंत्र, उचित एवं सुनिश्चित है। यह इस पर भी निर्भर करता है कि आप कहाँ रहते हैं, और किस धर्म का पालन करते हैं। कुछ कार्य जो आपके समाज में नैतिक हों, दूसरों के लिए अनैतिक हो सकते हैं। चलिए मैं आपको एक दिलचस्प नैतिक प्रयोग के बारे में बताता हूँ जिसे फिल्लिपा फूटे ने सन १९६७  में रचा था।

कल्पना कीजिए कि दो रेल पटरियां हैं। पाँच व्यक्ति एक रेल पटरी पर बंधे हैं और केवल एक व्यक्ति दूसरी रेल पटरी पर बंधा है। उन्हे पटरियों से बंधनमुक्त करने का समय नहीं है। और एक रेलगाड़ी तीव्र गति से आगे बढ़ रही है। यदि रेलगाड़ी को रोका ना जाए तो वह उन पाँच व्यक्तियों को कुचल देगी। आप उत्तोलन दंड के समीप खड़े हैं। यदि आप उत्तोलन दंड को खींचते हैं, तो रेलगाड़ी दूसरे मार्ग पर चली जाएगी और उन पाँच व्यक्तियों की जान बच जाएगी। परन्तु इस कार्य के फलस्वरूप उस एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाएगी जो दूसरी पटरी पर बंधा है।

आप क्या करेंगे? क्या आपको पाँच व्यक्तियों को मरने देना चाहिए या उस एक व्यक्ति को मार कर पाँच व्यक्तियों का जीवन बचाना चाहिए? यदि वह एक व्यक्ति आपका कोई रिश्तेदार हो तो? साथ ही साथ इन दो प्रयोगों पर भी विचार करें।

प्रथम प्रयोग
कल्पना कीजिए एक ट्राली बड़ी तेज़ी से पाँच व्यक्तियों  की ओर बढ़ रही है। आप एक पुल पर हैं, जिसके नीचे से यह ट्राली जाएगी, और आप किसी वजनदार वस्तु को उसके सामने गिराकर उसे रोक सकते हैं। जैसे ही यह सब हो रहा है एक बहुत भारी व्यक्ति आपके निकट खड़ा है। आपका एक मात्र विकल्प इस ट्राली को रोकने का यह है कि आप उस मोटे व्यक्ति को पुल के ऊपर से उस ट्राली के मार्ग पर गिरा दें। इससे उस व्यक्ति  की मृत्यु हो जाएगी, परन्तु उन पाँच व्यक्तियों का जीवन बच जाएगा। क्या आपको यह विकल्प अपनाना चाहिए?

द्वितीय प्रयोग
एक उत्कृष्ट रोपाना सर्जन (ट्रांसप्लांट सर्जन) के पास पाँच रोगी  हैं। हर एक को एक अलग अंग की आवश्यकता है। उस अंग के आभाव में उनकी मृत्यु निश्चित है। दुर्भाग्यवश, इन पाँचों अंगों के रोपण के लिए किसी भी अंग की उपलब्धता नहीं है। इस चिकित्सक के स्थल पर उसी समय एक स्वस्थ युवा सामान्य निरीक्षण के लिए आता है। निरीक्षण के दौरान, चिकित्सक को यह ज्ञात होता है कि उस युवा के अंग उन अन्य रोगियों के अंगों के रोपण के योग्य हैं। क्या चिकित्सक को उस स्वस्थ युवा की बली देकर उन पाँचों रोगियों की जान बचानी चाहिए?

इन सभी प्रयोगों में, एक व्यक्ति के जीवन का त्याग पाँच व्यक्तियों को जीवित रखने के लिए किया गया है। परंतु नैतिकता के प्रश्न इतने सरल नहीं होते। जीवन निर्विवाद नहीं होता। आपको वास्तव में किसी धर्म या किसी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं, यह बताने के लिए कि क्या उचित है और क्या अनुचित। क्योंकि वे तो सामान्य रूप से ही व्याख्यान करेंगे, जबकि आपका जीवन सामान्य नहीं - उसे तो केवल आप ही व्यक्तिपरक ढंग से समझते हैं। यदि आप सामान्य रूप से उचित और अनुचित का विभेदन करने लगें, तो केवल आप स्वयं को और अधिक दोषी पाएंगे। अपनी सोच को स्वतंत्र करें। मैं यह नहीं कह रहा कि आप नियमों का पालन ना करें परन्तु मैं आपके समक्ष यह सुझाव रख रहा हूँ कि, किसी भी नियम का अनुसरण करने से पहले आप उसका निरीक्षण करें। करुणा के मार्ग पर चलने का प्रयास करें - यह सदैव लाभदायक होता है।

यदि आप जीवन में निराशाजनक परिस्थितियों का सामना कर रहे हों तो अपने अंतर मन की आवाज़ सुनें। फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की के शब्दों में : "इस बुद्धी से अधिक महत्वपूर्ण वे हैं जो बुद्धी का मार्गदर्शन करते हैं - चरित्र, ह्रदय, उदारता तथा प्रगतिशील विचार।"  बुद्धी तो गणना करने वाला यन्त्र है। इसमें किसी भी कार्य को सही सिद्ध करने की क्षमता होती है। अन्ततः  आपका चरित्र ही आपको आपके सिद्धान्तों पर अडिग अटल रहने की क्षमता प्रदान करेगा। सोच-विचार से प्रभावित नैतिकता तो गणनात्मक होती है - यदि आप यह करें तो परिणाम स्वरूप यह होगा, यह इस कारण से अच्छा है और यह इस कारण से बुरा। अपितु अप्रभावित नैतिकता में कोई गणना नहीं की जाती - वह तो केवल अपने बनाये गए मानदंड का पालन करना है, चाहे वह नैतिक मानदंड हो या नहीं। हालात और परिस्थिति से परे नैतिकता? यह केवल मिथ्या है।

अपने व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करने में संकोच ना करें। अपना मानदंड स्वयं स्थापित करें।
(Image credit: Kip DeVore)
शांति।
स्वामी

साधना के चार स्तंभ


आत्म परिवर्तन का अभ्यास चार स्तंभों पर टिका है। आगे पढ़ें।
रामायण की एक कथा में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि राजा प्रतापभानु एक तपस्वी की तंत्र-मंत्र शक्तियों की निपुणता देख चकित हो जाते हैं। तब वह तपस्वी राजा को कहते हैं:

जनी अचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं।।
तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्ताता।।
तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा।। (तुलसी रामायण, १.१६२.१-२)

हैरान मत हो राजन। साधना से कुछ भी असंभव नहीं। तपस से ही ब्रह्मा सृजन करते हैं, विष्णु रक्षा करते हैं और शिव विनाश करते हैं। तपस्या द्वारा तीनों लोकों में कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है।

साधना में सफलता प्राप्त करने का कोई सरल मार्ग् नहीं है। साधना की सफलता अभ्यास की मात्रा, उत्कृष्टता तथा निरंतरता पर निर्भर है। सर्वोत्कृष्ट दृढ़ता का फल अनोखा होता है। पतंजलि योग सूत्र में वे कहते हैं योगक्ष्चित्तवृत्तिनिरोध: (पतंजलि योग सूत्र, १.२)। अर्थात योग मानसिक छाप को मिटाने की साधना है। अथ योगानुशासनम् (पतंजलि योग सूत्र, १.१) अर्थात "अब योग का अनुशासन आरंभ होता है" कह कर वे आरंभ करते हैं। लक्ष्य की प्राप्ति तक दृढ़ता एवं सतर्कता से अनुशासन का पालन करना ही साधना है।

आत्म परिवर्तन का योग स्वयं के भीतर जाने में साधक की सहायता करता है। अनुशासन के अतिरिक्त साधना में सफलता साधक (आकांक्षी), सिद्ध (गुरु), साध्य (लक्ष्य) तथा साधना (संसाधन) नामक चार प्रमुख पहलुओं पर निर्भर होता है। इन चारों में से किसी एक का अभाव भी अभ्यास को अस्थिर बना देता है। पत्थरों का महल भंगुर एवं अस्थायी रेत के महल समान बन जाता है। साधना आरंभ करने से पहले उसके मूल सिद्धांतों को समझना लाभदायक होगा -

१. साधक (आकांक्षी):
साधक वह है जो पथ के प्रति स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर दे। उसे सामग्रिक गतिविधियों की निरर्थकता का अहसास है और स्वाभाविक रूप से भौतिक सिद्धियों की उपेक्षा करता है (वैराग्य)। उसे यह ज्ञान है कि सांसारिक कार्यों में सफलता जितनी भी हो वह नश्वर है। इसके अतिरिक्त भौतिक सुख की तलाश अत्यंत दुख एवं भय का कारण होती है। सांसारिक कार्यों के करने से पूर्व असफलता का भय रहता है। यदि आपको इस भय से मुक्ति मिल भी जाए तो दूसरा भय आपने जो प्राप्त किया है उसे खोने का है। हम अपनी उपलब्धियों को पकड़ के रखने में और उसकी रक्षा करने में व्यस्त रहते हैं। साधक वह है जिसने इस भय से परे जाने का निर्णय कर लिया। जिसने अपने मन की प्रवृत्तियों को पार कर अपनी भीतरी शांति एवं वास्तविक स्वभाव तक पहुँचने का निर्णय कर लिया। जिस प्रकार व्यवसायी के बिना कोई व्यवसाय नहीं होता, उसी प्रकार साधक ही अभ्यास का मुख्य स्तंभ होता है।

साधक को सर्वोपरि दो बातों का ध्यान होना चाहिए - अभ्यास और वैराग्य।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
(भगवद गीता, ६.३५)
हे योद्धा! निस्संदेह, अपने मन को परास्त करना एक असाधारण उपलब्धि है। परंतु अर्जुन, अभ्यास और वैराग्य से यह संभव है।

यदि आकांक्षी बाहरी दुनिया के भौतिकवादी या संवेदी गतिविधियों में सुख खोजने में व्यस्त है तो यह उसकी भीतरी खोज में बाधा बन जाएगी। उसका प्रयास मन्द पड़ जाएगा। आकांक्षी को भौतिक संसार की अस्थायी, अवास्तविक एवं स्वार्थी स्वभाव पर चिंतन करना चाहिए । हमें जो भी बांधता है उसके त्याग फलस्वरूप ही साधक को वैराग्य प्राप्त होता है। यदि आप बिना आसक्ति के आनंद उठाना सीख गए तो समझ लीजिए आप जीने की कला सीख गए। सुख नहीं सुख से लगाव ही हमें बांधता है। हर परिस्थिति में समान रहने से वैराग्य प्राप्त होता है। समता नित्य उपस्थित मन से आता है और यह आप को आप की साधना में दृढ़ रहने में मदद करता है। और एक सतर्क मन ध्यान का ही स्वाभाविक परिणाम है।

२. सिद्ध (गुरु):
गुरु एक निपुण सिद्ध हैं जिन्हें वास्तविकता का बोध है। वे साधक का मार्गदर्शन करते हैं और साधना में होने वाली बाधाओं को पार करने में साधक की मदद करते हैं। गुरुओं ने कईं युगों से शिष्यों को विभिन्न योग एवं प्रथाओं की शिक्षा दी है। एक प्रतिबद्ध साधक को स्वत: ही उसका गुरु मिल जाता है। यह लगभग एक पूर्व निर्धारित मिलन के समान है। एक गुरु की तलाश में जाने कि कोई आवश्यकता नहीं है। जब आप अपने अभ्यास में दृढ़ रहेंगे तब प्रकृति स्वयं आपके जीवन में गुरु की व्यवस्था कर देगी। उस समय तक आप सही गुरु से मिलकर भी अनजान और अनभिज्ञ रहेंगे। बिना विचार करे गुरु का चयन न करें। गुरु का चयन एक औपचारिकता नहीं है। वे केवल आपकी सूची में टिक करने की वस्तु नहीं हैं।

एक उचित गुरु आपके हर संदेह को दूर कर सकते हैं। वे आपकी साधना में आने वाली बाधाओं को दूर करने में और आपकी आध्यात्मिक प्रगति में मदद कर सकते हैं।
अ भवेत्संगयुक्तानां तथाग्विक्ष्वासिनामपि।
गुरुपूजाविहीनानां तथा च बहुसंगिनाम्।।
मिथ्यावादरतानां तथा च निष्ठुरभाषिनाम्।
गुरुसन्तोषहीनानां न सिध्दि: स्यात्कदाचन।।
(शिव संहिता, ३.१७-१८)
उसको आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होगी जो भौतिक संसार से जुड़ा है, जिसमें विश्वास का अभाव है, जिसमें अपने गुरु के प्रति कोई भक्ति नहीं, जो सामाजिकता में रमण है, जो असत्य बोलता है, जो कठोरता से बात करता है, जो गुरु की जरूरतों की उपेक्षा करता है।

एक गुरु अपरिहार्य नहीं है। मैं यह कह कर शास्त्रों के कथन से कुछ अलग कह रहा हूँ। मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर यह कह रहा हूँ। यह बात सही है कि एक उचित गुरु निश्चित रूप से आप की यात्रा की गति बढ़ा सकते हैं। परंतु यदि आप में आत्म बोध की इच्छा की कमी हो तो न केवल गुरु बल्कि भगवान भी आपके लक्ष्य को पाने में मदद नहीं कर सकते हैं। जैसे एक सक्षम आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्य की सर्वश्रेष्ठता को उभरने में मदद कर सकते हैं वैसे ही एक समर्पित शिष्य भी अपने गुरु से सर्वश्रेष्ठ विद्या प्राप्त कर सकता है। भक्ति, विश्वास, ईमानदारी, सेवा एक श्रेष्ठ साधना के उपादान हैं। जो गुरु आप से भौतिक वस्तुओं की अपेक्षा करते हैं या आप जो अर्पण करते हैं उसके अनुसार आपको समय देते हैं उस गुरु को एक बुरा स्वप्न समझ कर भूल जाना चाहिए। जो स्वयं तृष्णा में फंसा हुआ है वह आप को वैराग्य कैसे सिखा सकता है?

नथ संप्रदाय की एक कहावत है कि गुरू बनायो जानी के, पानी पीयो छानी के! अर्थात पानी को छानकर पीना चाहिए और गुरु बनाने से पहले पूर्ण रूप से जांचना चाहिए।

३. साध्य (लक्ष्य)
तीसरा महत्वपूर्ण स्तंभ साध्य (लक्ष्य) है। अपने लक्ष्य को जानना अत्यंत आवश्यक है। आत्म परिवर्तन के योग में कईं छोटे-छोटे गंतव्य हैं जिनका उद्देश्य साधक का मार्गदर्शन करना है। यदि आप अपने लक्ष्य को नहीं जानते तो कुछ छोटी सी प्राप्ति से आप को लगेगा कि आप ने सब कुछ प्राप्त कर लिया या सब कुछ प्राप्त करने के बाद भी आप को लगेगा कि आप ने कुछ प्राप्त नहीं किया। गंतव्य को जानने के बाद ही आप अपनी साधना के विषय में निर्णय ले सकते हैं। कुछ व्यक्ति मनोगत शक्तियां चाहते हैं। कुछ व्यक्ति समाधि चाहते हैं और कईं केवल जीने का एक बेहतर ढंग चाहते हैं। योग अभ्यास से कुछ भी संभव है। एक योगी का लक्ष्य योग समाधि हो सकता है। एक मंत्रिन का लक्ष्य मंत्र की अव्यक्त शक्तियों का आह्वान करना हो सकता है। लौकिक व्यक्ति का लक्ष्य धन कमाना हो सकता है। अस्वस्थ लोगों का लक्ष्य स्वस्थ बनना हो सकता है। जो कुछ भी हो एक लक्ष्य का होना तथा उसके अनुसार कार्य करना अत्यावश्यक है।

मैं वैष्नव: तांत्रिक पाठ से एक छंद प्रस्तुत करता हूँ:
आराध्यैतो यदि हरिस्तपसा तत: किम्।
नारादितो यदि हरिस्तपसा तत: किम्।।
अन्तर्वहिर्यदि हरिस्तपसा तत: किम्।
नान्तर्वहिर्यदि हरिस्तपसा तत: किम्।।
(नारद पंचरात्रा, १.२.६)
यदि आप की पूजा आप को श्री हरि की ओर ले जाता है तो किसी और तपस्या की कया आवश्यकता है? किसी भी तपस्या का क्या लाभ यदि वह श्री हरि की ओर नहीं लेकर जाता है? यदि आप पूर्ण मन और तन से श्री हरि की पूजा करते हैं तो तपस की कोई आवश्यकता नहीं। यदि आप पूर्ण मन और तन से श्री हरि की पूजा नहीं करते हैं तो तपस का कया लाभ हो सकता है।

इस व्याख्यान को कईं बार पढ़ें और इसकी गंभीरता को समझें। भक्ति भावना के साथ बोला गया यह व्याख्यान साधना के सार को स्पष्ट करता है। अर्थात साधना के पथ पर लक्ष्य से कभी भी दृष्टि नहीं हटनी चाहिए। यदि जिस रास्ते पर आप चल रहे हैं वह रास्ता आप को लक्ष्य की ओर नहीं ले कर जा रहा है तो उस पथ पर अपना समय नष्ट क्यों करें? नियम, अनुशासन, प्रणाली एवं दर्शनशास्त्र केवल लक्ष्य तक पहुँचने में आप की मदद करते हैं। उनका पालन करें परंतु उन पर विचार भी करें। आपकी साधना आपके साध्य को प्राप्त करने के लिए है। साध्य की प्राप्ति पर आप स्वयं के नियमों को परिभाषित करने के लिए तैयार हो जाते हैं। आप स्वतंत्र बन जाते हैं। पूर्णतः स्वतंत्र। शुरू में नियमों का पालन करना आवश्यक है। जैसे सड़क पर गाडी चलाते समय स्वयं और दूसरों की सुरक्षा के लिए आप नियमों का पालन करते हैं। परंतु घर पहुँचने के बाद गलियों (लेन्ज़) में चलने या मुड़ने से पहले संकेत देने जैसे सड़क के नियमों का पालन नहीं करते हैं। जिस प्रकार सड़क के चिह्न आपका मार्गदर्शन करते हैं उसी प्रकार कोई भी अनुशासन आप के आध्यात्मिक पथ की सहायता के लिए होते हैं। यदि आप अपने अनुशासन को एक दृष्टि हीन रस्म बना दें तो आप का पथ आनंद और उल्लास से रहित निरर्थक प्रथाओं का संग्रहण बन जाएगा।

४. साधन (संसाधन):
अंतिम पहलू है साधन (संसाधन)। संसाधन के बिना अभ्यास करना असंभव है। संसाधन से मेरा अर्थ पर्याप्त धन जमा करने का नहीं है। प्रारंभिक चरणों में आप अपने घर में बैठ कर अभ्यास शुरू कर सकते हैं। साधना में प्रगति के साथ आप को कम से कम छः महीनों में एक सप्ताह, दस दिन या एक महीने की एकांत-वास का प्रयास करना चाहिए। इस एकांत-वास में घोर तपस आप का दिनचर्या होगा।

साधना में बढ़ती हुई उन्नति के साथ मौन और एकांत के गंभीर अभ्यास के लिए एक निस्तब्ध स्थान की आवश्यकता होगी। तीव्र अभ्यास के बिना कोई उत्कृष्ट परिणाम नहीं मिलेगा।

इस लेख में वर्णित बातों से चिंतित होने की आवश्यकता नहीं। शुरू में प्रबल इच्छा, निरंतर अभ्यास का संकल्प, नैतिक पवित्रता तथा आध्यात्मिक और योग अनुशासन की आवश्यकता है। एक सच्चे साधक की हर आवश्यकता की पूर्ति की व्यवस्था परमात्मा करते हैं। यह मैं स्वयं के अनुभव से कह रहा हूँ।

यात्रा का आनंद लें!

शांति।
स्वामी


समाधि का अर्थ

एक पाठक ने निम्नलिखित टिप्पणी की:

हरि बोल प्रभु जी!

मैं बड़ी उत्सुकता से आपके अगले लेख की प्रतीक्षा कर रहा हूँ और आशा करता हूँ कि आपकी कृपा से सत्य को समझने में सफल हूँगा। मेरा आप से एक प्रश्न है। प्रश्न समाधि के विषय पर है। समाधि या विशुद्ध परमानंद का क्या अर्थ है? मेरा यह समझना है कि समाधि एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति स्वयं की वास्तविकता जान लेता है, अर्थात उसे ईश्वर और स्वयं में कोई अंतर नहीं दिखाई देता। व्यक्ति को यह अहसास होता है कि वह शरीर नहीं चेतन है। जैसे राजा जनक ने सत्य को साकार करने के बाद श्री अष्टावक्र गीता में कहा "मैं अद्भुत हूँ, मैं स्वयं को नमन करता हूँ"।

कृपया आप के इस तुच्छ भक्त का मार्गदर्शन करें।

हरे कृष्ण!
अमित
["आत्म परिवर्तन का योग - मेरा दृढ़ संकल्प" नामक लेख पर यह टिप्पणी की गई ]
मेरे विचार में समाधि का अर्थ है उस एक परमात्मा के समान हो जाना, उस के बराबर हो जाना। उपाधि का अर्थ है लगभग उस जैसा हो जाना, समझ लीजिए केवल एक पद नीचे। परंतु समाधि का अर्थ है पूर्ण रूप से ईश्वर के समान होना। उस दृष्टिकोण से, आप सही हैं कि समाधि एक ऐसी स्थिति है जिसमें आप अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित हैं। परंतु केवल जानने और अनुभव करने में अंतर होता है। सुने-सुनाये ज्ञान से व्यक्ति समाधि के विषय में जानकारी अवश्य प्राप्त कर सकता है परंतु समाधि की वास्तविक स्थिति को पूर्ण रूप से समझने के लिए उसे स्वयं उस अवस्था में जाना होगा। उसे स्वयं अहसास करना होगा। समाधि का अनुभव करना होगा।

व्यक्ति परिस्थितियों एवं समाज से प्रभावित हो जाता है, इसी कारण समाधि की अवस्था की अनुभूति नहीं कर पाता है। यदि वह इस अनुभवातीत स्थिति की प्राप्ति कर ले तो उस के बाद उसे केवल स्वयं को प्रभावित ना होने की अवस्था में रखना है, तब समाधि की स्थिति बने रहेगी। इसके अतिरिक्त - अतुलनीय संवेदना एवं उत्तेजना शरीर से उभरेगी, विशेष रूप से अज्ञा चक्र और सहस्रार में। उत्तेजना इतनी गहरी होगी कि आपको बाहरी कुछ भी दिलचस्प नहीं लगेगा। बाहरी दुनिया आपके आंतरिक स्थिति से अनभिज्ञ रह सकता है, परंतु उत्तेजना और अद्वितीय आनंद आप के भीतर बहता रहेगा। जागृत अवस्था में आप लगातार ऐसी उत्तेजना महसूस करेंगे। यही समाधि की अवस्था है। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है और जो भी प्रयत्न करने के लिए तैयार है वह भी अनुभव कर सकता है। जिस प्रकार जल में लहर गठित हो सकता है परंतु बर्फ में नहीं, उसी प्रकार समाधि में आप बिना चंचलता के स्थायी रूप से परमानंद का अनुभव करते हैं। क्रोध, वासना, घृणा और अन्य नकारात्मक भावनाएं आप के अंदर उभर ही नहीं सकतीं।

समाधि मात्र किसी उज्ज्वल चमक को देखना या क्षण-भंगुर ब्रह्मांड से संयोग महसूस करना नहीं है। ऐसे अनुभव का क्या लाभ? वह कैसे किसी को परिवर्तित कर सकता है? आधुनिक युग के कईं ग्रंथ आपको यह विश्वास दिलाते हैं कि ध्यान में बैठे रहो और एक दिन आपको अचानक समाधि प्राप्त हो जाएगी। यह सब निरर्थक बातें हैं। जिसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता या फिर से दोहराया नहीं जा सकता उसे योगी कभी नहीं मानता। समाधि में आप पूर्ण चेतना का अहसास करते हैं। निश्चित रूप से, यह चेतना इतनी तीक्ष्ण होगी कि सामान्य स्थिति से बिलकुल अलग होगी।

सही समय आने पर मैं इस श्रृंखला एवं विषय पर और लिखूँगा। मैं समाधि से जुड़े रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए उत्सुक हूँ।

हरे कृष्ण
स्वामी


अज्ञात का ज्ञान - योग का पथ

एक पाठक ने निम्नलिखित टिप्पणी की:

आदरणीय स्वामी जी, मेरे मन में कुछ विचार एवं प्रश्न हैं जिन्हे मैं आपके सामने प्रस्तुत करना चाहूँगा। आप के लेखन बहुमूल्य हैं और आप के चाहने वालों के लिए ये अत्यंत लाभदायक हैं।
पहली टिप्पणी: "आप जिस पथ पर चलने जा रहें हैं यदि आप को उस पथ का पहले से ही ज्ञान हो तो सफलता की संभावना बहुसंख्यक बढ़ जाती है।"

आत्म बोध के पथ पर चलने के लिए भी क्या हमें भौतिकवादी दुनिया की तरह सफलता और संभावना की गणना करनी पड़ेगी? यह मार्ग तो अज्ञात की ओर जाने वाला पथ माना जाता है। तो भला अज्ञात की यात्रा का पहले से ही ज्ञान कैसे हो? क्या यह विरोधाभासी नहीं है?

["आत्म परिवर्तन का योग - प्रस्तावना" नामक लेख पर यह टिप्पणी की गई ]

पहला प्रश्न वास्तव में एक गंभीर प्रश्न है। आत्म बोध का मार्ग कईं मायनों में किसी भी अन्य मार्ग की तरह है। आप किसी भी लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं, तो आप को कोई ना कोई रास्ता तो अपनाना ही पड़ता है। परंतु यदि आप को पथ का पहले से ही ज्ञान हो, तो यह आप के आत्मविश्वास एवं सोच को सुदृढ़ बना देता है। यह गणना की बात नहीं है, बल्कि आप जो करने जा रहे हैं उसे समझने की बात है। उदाहरणार्थ यदि आप समुद्र तट पर एक दिन बिताने जा रहे हैं, तो आप अपने साथ तैराकी वेशभूषा ले जाते हैं। गणना तो केवल बुद्धि से ही की जाती है। परंतु आत्म परिवर्तन का लक्ष्य है बुद्धि से ऊपर उठ कर अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव करना। लकड़ी के दो टुकड़े आग को प्रज्वलित करते हैं, परंतु वही आग उस लकड़ी को भस्म कर देती है। उस ही प्रकार बुद्धि और पथ का ज्ञान ही आत्म परिवर्तन की आग को प्रज्वलित करते हैं। आत्म का ज्ञान प्राप्त करने पर, आप की आंतरिक शांति और ज्ञान द्वारा आप अपने बुद्धि और विवेक से भी ऊपर उठ कर मन की एक दिव्य अवस्था प्राप्त करने में समर्थ हो जाएंगे।

आप के दूसरे टिप्पणी पर मेरे ये विचार हैं:

यात्रा का क्या अर्थ है? यात्रा और पथ में क्या अंतर है? पथ आप का नक्शा है, तो यात्रा वास्तव में उस पर चलना है। समझ लीजिए आप को लंदन से मैनचेस्टर जाना है। दिशा जान ने के लिए ऑनलाइन जाना पथ के समान है तथा गाडी में सवार हो कर मैनचेस्टर जाना यात्रा के समान है। आप के मार्ग में अप्रत्याशित बाधाएं आ सकती हैं परंतु क्योंकि आपको अपने लक्ष्य का ज्ञान है इसलिए आपकी यात्रा एक हद तक सहज हो जाती है।

मैंने एक बार सुना था कि यदि आप को यह पता नहीं कि आप कहाँ जा रहे हैं, या आप का लक्ष्य क्या है तो आप को कोई भी सड़क वहाँ ले जा सकती है। संभवत: ग्रंथों या अन्य लोगों से आप को गंतव्य का केवल बौद्धिक रूप से ही ज्ञान होगा जब तक आप वहाँ पहुँचते नहीं हैं। वहाँ पहुँचने पर वह अज्ञात नहीं रहता। गंतव्य का ज्ञान ना होने का यह अर्थ नहीं कि आप को पथ का ज्ञान नहीं है। एक उदाहरण द्वारा इसे स्पष्ट करता हूँ -

आप के दांत में दर्द है और आप एक नये दंत चिकित्सक के पास जाने का निर्णय करते हैं। आप उसके क्लीनिक जाने की दिशा जान लेते हैं। आप उस दंत चिकित्सक या उसके क्लीनिक कभी नहीं गए हैं, यह अज्ञात है। वाहन चलाने के निर्देश के आधार पर, आप को यह पता है कि आप को कितनी दूर जाना है और आप को किन सड़कों पर यात्रा करनी है। रास्ते में भले ही अनेक बाधाएं या विचलन हों, आप अंत में उसी मार्ग पर लौट कर आते हैं जो आप को क्लीनिक की ओर ले कर जाता है। क्योंकि आप को रास्ता पता है आप को यह भी पता होगा कि आप को किस की आवश्यकता है - एक गाडी, ड्राइवर का लाइसेंस, एक नियुक्ति, स्वास्थ्य कार्ड इत्यादि।

प्रत्येक मार्ग, भक्ति, योग, तंत्र या कोई अन्य मार्ग की कुछ आवश्यकताएं एवं सिद्धांत होते हैं। इन मूल सिद्धांतों के ज्ञान द्वारा आप अपने मार्ग पर चल सकते हैं और अपनी प्रगति का निरीक्षण कर सकते हैं। यह मेरा दृष्टिकोण है।

हरे कृष्ण
स्वामी

 

मन - कर्म का प्रभाव एवं मानसिक छाप

आत्म परिवर्तन क्यों?
कर्म का प्रभाव एवं मानसिक छाप

क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ।   (पतंजलि योग सूत्र, 2.12)
हमारी मानसिक स्थिति पर हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों का प्रभाव पड़ता है। हमारे कर्म कईं जन्मों से संचित होकर हमारे दुःख का कारण बनते हैं।

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एक वर्णक्रमीय रंग के कताई पहिये की कल्पना करें। क्योंकि वह घूम रहा है इसलिए हमें यह भ्रम हो जाता है कि उसका रंग श्वेत है। परन्तु सत्य तो यह है कि उस पहिये पर कोई श्वेत रंग है ही नहीं। वह अत्यन्त तीव्र गति से घूम रहा है, इस कारण सब वर्णक्रमीय रंगों का संयोजन हो जाता है और हमें वह श्वेत प्रतीत होता है। इसी तरह हमारा मन भी एक चरखे के समान घूमता रहता है। यह हमारे मन में दुनिया की वास्तविकता का भ्रम पैदा करता है। हमें लगता है कि यह दुनिया स्थाई है, परन्तु यह सच नहीं है।

अपने सच्चे एवं स्वरूप को समझने के लिए, आप अपने मन को कुछ शांति प्रदान करें। उस शांति को प्राप्त करने के लिए तथा अपने मन की प्रकृति का ज्ञात करने के लिए, हर तरह के उपद्रव को समाप्त करना होगा। इस के बाद ही आप इसे महसूस कर सकेंगे। यदि आप अपने कर्म में अनुशासन का पालन करेंगे तो आप मानसिक स्थिरता को प्राप्त कर पाएंगे। हमारी भाषा, क्रिया एवं शब्द हमारे मन पर एक गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। इस लेख का उद्देश्य है आपको अपने कर्मों के अवशिष्ट से अवगत कराना। यह अवशेष हमारी मानसिक स्थिति का ज्ञात कराते हैं।
अधिकतर योगिक ग्रन्थ यह कहते हैं कि उनका अनुसरण करने वाला सख्त कार्मिक एवं नैतिक अनुशासन का पालन करे। यदि आप मुझसे पूछें तो यह अत्यावश्यक है। अब हम कर्म एवं उसके अवशेषों पर विचार करेंगे -

कर्म तीन प्रकार के होते हैं - शारीरिक, मौखिक तथा मानसिक। हमारा हर कर्म एक छाप छोड़ जाता है। शारीरिक कर्म भौतिक अवशेष छोड़ जाते हैं, तथा मौखिक एवं मानसिक कर्म मन पर छाप छोड़ जाते हैं। यदि हम अपने कर्म के निशान का विश्लेषण करें तो हमें ज्ञात होगा कि यह घट अवश्य सकता है परन्तु कभी नष्ट नहीं हो सकता। मैं इस सत्य को एक उदाहरण के द्वारा विस्तृत करूँगा -

1. शारीरिक कर्म - मूर्त अवशेष
सभी शारीरिक कर्म जिनमें स्पर्श की आवश्यकता होती है उन्हें हम भौतिक कर्म कहते हैं। शारीरिक कर्म अपने पीछे भौतिक अवशेष छोड़ जाते हैं। समझ लीजिए कि आपके पास एक सेब है। उसके स्वाद का आनंद लेने के लिए आप उसे छील के खाते हैं। जो भाग बच जाते हैं उन्हें हम त्याग देते हैं। और वही बचा हुआ भाग किसी गाय का भोजन बन जाता है। इसी प्रकार हमारे कर्मों के अवशेष किसी अज्ञात जीव की मदद कर देते हैं। जिस सेब का हमने सेवन किया वह हमारे शरीर में रहता है। यह हमारे पाचन तंत्र द्वारा संसाधित किया जाता है। इस प्रकार दो तरह के अवशेषों का निर्माण होता है। एक जो हमारे शरीर में हमारे नसों में दौड़ता है और उसका अनवशोषित भाग मूत्र तथा मल द्वारा बाहर निकल जाता है। और फिर कईं तरह के बैक्टीरिया इसका सेवन करते हैं। सेब खाने की हमारी भौतिक कार्यवाही कईं जीव जंतुओं पर अपनी छाप छोड़ती है। उस सेब का अवशेष जो हमारे लहू में बस गया है, हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। जो अवशेष गाय के शरीर में रहते हैं, वह उसके स्वास्थ्य तथा उसके दूध की गुणवत्ता पर प्रभाव डालते हैं। आपके शरीर से निकले हुए अवशेष कईं जीव जंतुओं पर प्रभाव डालते हैं। देखने में यह इतना विचित्र एवं बड़ा नहीं लगेगा परन्तु यदि हम सोचें कि छः अरब मनुष्यों के अवशेष प्रकृति के जीव जंतुओं को प्रभावित करते हैं तो यह प्रक्रिया अत्यंत बड़ी लगती है। हमारे शारीरिक कर्मों का प्रभाव हम पर तथा हमारे आस पास के लोगों पर पड़ता है। यह पूरे संसार को प्रभावित करता है। आत्म परिवर्तन के मार्ग पर,आत्मसंयम रखना अत्याधिक महत्वपूर्ण होता है। इस की वास्तविक प्रथाओं को उचित धाराओं के तहत पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।

2.मौखिक कर्म - मानसिक अवशेष
आप जो कुछ भी बोलना चाहें वह एक अनुदेश हो, कोई व्याख्यान हो, अथवा कोई प्रश्न हो, वह मौखिक कर्म के अंतर्गत ही आता है। सारे मौखिक कर्म अपने पीछे मानसिक अवशेष छोड़ जाते हैं। हमारे द्वारा बोले गए शब्द हमें तथा हमारे आस पास के लोगों को प्रभावित करते हैं। शारीरिक अवशेषों को मिटाना सरल होता है, परन्तु मानसिक अवशेष मिटने में समय लग जाता है। हम सेब के उदाहरण पर लौट कर जाते हैं। समझ लीजिए कि आपने एक सेब खाया हो जो आपको अत्यधिक स्वादिष्ट लगा। सेब खाते समय आपके साथ और लोग भी थे और उसी समय आपने सेब के स्वाद के विषय पर कुछ कह दिया। कुछ समय बाद आपको सेब का स्वाद याद रहे न रहे परन्तु आपको अपने द्वारा बोली गयी बातें अवश्य याद रहेंगी। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि यदि आपने उस सेब को खाते समय कुछ नहीं बोला होता तो आपको संभवतः उस सेब का स्वाद याद भी नहीं होता क्योंकि उस समय आपके मन में उस सेब की छाप नहीं छूटी होती। आत्म परिवर्तन के मार्ग पर, दृढ़ मौखिक अनुशासन की आवश्यकता होती है। मैं प्रासंगिक वर्गों में इस पर अधिक स्पष्टीकरण दूंगा।

3. मानसिक कर्म - हमारे मन पर उनका प्रभाव
तीनों कर्मों में सबसे सूक्ष्म एवं शक्तिशाली मानसिक कर्म होता है। यह हमारे पीछे एक स्थाई निशान छोड़ देता है जिसकी छाप मिटाना अत्यंत कठिन हो जाता है। किसी भी प्रकार के कर्म का मूल एक विचार ही होता है। किसी विचार का पीछा करना ही एक मानसिक कर्म होता है। यह आपकी मानसिक स्थिति पर तत्काल प्रभाव तथा आपकी चेतना पर चिरस्थाई प्रभाव डालता है चाहे आपका मन कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो। एक बार फिर हम उस सेब के उदाहरण पर लौट कर जाते हैं। मान लीजिए कि इस बार आपके पास सेब नहीं हैं, परन्तु केवल सेब का विचार आपके मन में आता है। आप उस विचार को छोड़ते नहीं हैं बल्कि उसका पीछा करते हैं। वह विचार संभवतः आपको दुकान से सेब खरीदने के लिए प्रेरित करे। ध्यान दीजिए कि सेब के विचार से अब हम दुकान के विचार पर आ चुके हैं जिस से हमने पहले सेब खरीदा था। उस दुकानदार का चेहरा तथा उससे किया गया वार्तालाप सब हमारे मन में आ जाता है। हमें याद आता है कि हमने उसे पैसे दिए थे। हमें दूसरे ग्राहक का भी ध्यान आता है, जो केले खरीद रही थी हमें याद आता है कि वह किस प्रकार केले चुन रही थी। हमें दुकानदार से किया गया उसका वार्तालाप याद आता है। आप उस दुकानदार के विचार पर वापिस आ जाते हैं जब वह आपको सेब का थैला प्रदान करता है। फिर आप उस थैले को लेकर चलना शुरू करते हैं और उसी समय आपके मन में विभिन्न प्रकार के विचार आते हैं, जैसे कि बाज़ार का हाल क्या होगा या फिर कोई अनहोनी जो आपके साथ घटी थी या और कुछ। यह प्रक्रिया इसी प्रकार चलती रहती है।

यदि आपने उस सेब के विचार को पहले ही दरकिनार कर दिया होता तो आप इस मानसिक कर्म के चक्कर में फंसते ही नहीं। यह सब हमारे मन की उपज होती है। यदि आपने यह ठान लिया होता कि आप अपनी ध्यान की वस्तु को छोड़ के और किसी वस्तु पर ध्यान नहीं लगायेंगे तो आपको इसका अच्छा फल मिलता। क्या आपको पता है कि एक सामान्य इंसान के मन में चौबीस घंटों में साठ हज़ार विचार आते हैं। इसी कारण हमें सोना अत्यंत पसंद है, क्योंकि हमें थोड़ी सी छुट्टी मिलती है। यदि आप एकाग्र रहेंगे तो आपके मानसिक कर्म अनुशासित रहेंगे तथा ध्यान लगाने में भी सहयोग मिलेगा।

हमारा ध्यान सही रखने में हमारी स्मृति बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जब आप अपनी स्मृति में केवल अपने ध्यान की वस्तु को रखने में सक्षम होते हैं तो समझ लीजिए कि अब आप शांतिपूर्वक ध्यान लगा सकते हैं। हमारी स्मृति सही तरह से ध्यान लगाने में बाधा भी उत्पन्न करती है। इसका कारण यह है कि हमारी स्मृति पर हमारी मानसिक कर्मों का प्रभाव होता है।

अनुभूतविषयासंप्रमोषः स्मृतिः. (पतंजलि योग सूत्र, 1.11)
स्मृति चेतना का एक समारोह एवं शब्दों और अनुभवों के अनछुए संग्रह होती है।

हम अपने मन को खाली नहीं कर सकते हैं। हालांकि यह संभव है कि हम उस विचार को उसकी उपज होते ही त्याग दें। जब हम अपने मन को शांतिपूर्वक रखते हैं तो मानसिक छाप हटने लगती है।

आप अपने मन में जिस प्रकार के विचार भरेंगे आप को उस ही प्रकार के परिणाम मिलेंगे। तो यदि आप बुरा सोचेंगे अथवा बुरा बोलेंगे तो उसका अवशेष आपको भी बुरा बना देगा। वहीं यदि आप सद्विचार रखेंगे तो उसका फल भी अच्छा मिलेगा। आपका मन एक गोदाम की तरह है। इसे व्यर्थ वस्तुओं से न भरें।

परम योगी श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं -

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता.
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ।। (6.19 भगवद गीता )


अर्थात एक विजयी योगी का मन उस पवनरहित स्थान में पड़े दिए की तरह होता है जो कभी विचलित नहीं होता।

पवन की अनुपस्थिति में जिस प्रकार लौ स्थिर रहती है, उसी प्रकार इच्छाओं के वायु के अभाव में हमारा मन भी विचलित नहीं होता है। और हमारी इच्छाएँ केवल हमारे विचार ही होते हैं जिनका त्याग करने में हम सक्षम नहीं हो पाते। यदि हम अपना मन ईश्वर की और लगा दें तो हमें अवांछित विचारों से छुटकारा मिल जाएगा। यदि हमारा मन स्थिर रहेगा तो उसमें विचारों की उथल पुथल होगी ही नहीं। मन को केवल प्रेम से ही भरना चाहिए।

जिस तरह हमारा शरीर अत्यधिक कार्य करने के कारण थक जाता है, उसी प्रकार अनवरत बोलने से,हमारा मन भी थकावट का शिकार हो जाता है। यदि हम आत्म परिवर्तन के योग को सम्पूर्ण रूप से अपना लें, तो हम प्रसन्नता एवं शांति के अथाह सागर में गोते लगाएँगे। एक स्वस्थ शरीर, नियंत्रित भाषण और शांत मन सही ढंग से आत्म परिवर्तन के पथ पर चलने के परिणाम हैं।

शांति।
स्वामी






 

भेड़ के बीच शेर - मन का वास्तविक रूप

यदि कोई शेर भेड़-बकरियों की संगत में रहे तो वह भी उनकी तरह बन सकता है। हमारा मन अपने वास्तविक रूप में सदा शांति एवं आनंद से परिपूर्ण रहता है।

 
मैं अपने इष्ट, अपने गुरु को दंडवत प्रणाम करता हूँ। वे जो सृष्टिकर्ता एवं पालनकरता हैं। मैं स्वयं को सम्पूर्ण एवं स्पष्ट रूप से उनके कमल चरणों पर अर्पित करता हूँ।
एक समय की बात है, अपने बच्चे को जनम देने के पश्चात ही एक शेरनी की मृत्यु हो जाती है। एक बालिका जिसने कभी किसी शेर के बच्चे को नहीं देखा होता है वह उसे वन से अपने घर ले आती है। वह उसे बकरियों का दूध पिलाती है और उसका पालन पोषण भेड़-बकरियों के समान करती है। शेर भी बकरियों के साथ ही बड़ा होता है तथा उनही के समान वह भी घास चरने लगता है। बकरियों के साथ रह कर वह यह भूल जाता है कि वास्तव में वह एक शेर है।

एक दिन झुण्ड के साथ चरते चरते शेर अन्य बकरियों से बिछड़ जाता है और वह अपने आप को वन के बीच अकेला पाता है। घने वन में अपने आप को अकेला देख कर शेर भयभीत हो जाता है। जब वह सामने से एक भेड़िये को आते देखता है तो अपनी जान बचाने के लिए वह भागने लगता है। परंतु उसे यह देख कर आश्चर्य होता है कि अन्य पशु उस से भयभीत हो कर भागने लगते हैं। वह वहाँ पर रुक कर इस बात का निरीक्षण करने लगता है। उसे लगता है कि अवश्य ही कोई बात है जिस से वह अनभिज्ञ है। वह उस घटना पर और चिंतन करता है और उसे लगता है कि उसे इस बात पर और गहन खोज करनी चाहिए।

वह स्वतंत्र रूप से निर्भय होकर घूमने का निर्णय लेता है। जहाँ भी वह जाता है उसे वही प्रतिक्रिया दिखाई देती है कि सारे पशु उसके भय से भाग जाते। कुछ देर तक ऐसा ही चलता रहा फिर उसने देखा कि उसी की तरह कुछ और शेर एक सांड के मृत शरीर को खा रहे हैं। उसके अंदर भी मास खाने की एवं शिकार करने की अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है। वह अपने भोजन के लिए एक बछड़े का शिकार करने का निर्णय करता है। बछड़े के शिकार एवं भोजन करने पर उसे ऐसा आनंद मिलता है जिस की अनुभूति उसने जीवन में पहले कभी नहीं की होती। इसके अतिरिक्त उसके मन में निर्भीकता की भावना उत्पन्न हो जाती है। उसे लगने लगता है कि वन ही उसका वास्तविक घर है और वहाँ उसे कोई हानि नहीं पहुँचा सकता।

इसी प्रकार, आनंद एवं निर्भीकता ही हमारा वास्तविक स्वरूप है। हमारे अंदर का शेर बकरियों की तरह व्यवहार इसलिए करने लगा है क्योंकि हमारी परवरिश उनही की तरह हुई है। हम अपने परिवार एवं समाज से प्रभावित हो जाते हैं। हम कईं कारणवश अपने वास्तविक स्वभाव को पहचान नहीं पाते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि सदैव हमने इस संसार को नश्वर शरीर के द्वारा ही महसूस किया है।

जिस आनंद की हम तलाश कर रहे हैं वह हमें बाहरी दुनिया में प्राप्त नहीं होगा। हमारे अंदर परमानन्द का एक सागर है। आत्म बोध का अर्थ है हमारे भीतर छिपे सम्पूर्ण आनंद एवं शांति की प्राप्ति। हमारा स्वरूप एक आनंद एवं शांति के अथाह समुद्र के समान है। परंतु हमारा स्वरूप सांसारिक प्रथाओं के द्वारा परिवर्तित कर दिया गया है। हमारे विचार संसार के विचारों का ही प्रतिबिंब हैं। परंतु हम स्वयं अपने कर्मों एवं मनोकामनाओं के ही परिणाम हैं। हम सांसारिक बंधनों में बंध कर अपने वास्तविक स्वरूप को भूल चुके हैं। यह परिवर्तन पारिवारिक धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों से आया है। सदियों से ये प्रथायें चली आ रही हैं जिन को अधिकतर व्यक्ति खंडित नहीं करते हैं और इसे स्वीकार कर लेते हैं।

हमारी बाहरी दुनिया हमारी भीतरी दुनिया का केवल एक प्रक्षेपण है। वास्तव में, हमारी बाहर की दुनिया, हमारी अंदर की दुनिया की एक सटीक प्रतिकृति है। हमारी भीतरी दुनिया हमारे विचारों से ही निर्मित है। क्योंकि हम अपने वास्तविक स्वरूप को भूल चुके हैं, इसी कारण हमारे भीतर की दुनिया हमारे बाहर की दुनिया से बहुत प्रभावित होती है। यदि भीतर की दुनिया में अशांति हो, तो हमें बाहर की दुनिया भी उदासीन एवं निराशाजनक लगती है।

आत्म परिवर्तन के योग का लक्ष्य है आपको आपके वास्तविक स्वरूप का बोध कराना और आपको अपनी भीतरी दुनिया का अनुभव कराना। मैं केवल आपको इन प्रथाओं से अवगत करा सकता हूँ तथा आपको इनपर चलने का सही मार्ग दिखा सकता हूँ;  इसकी प्राप्ति आप ही पर निर्भर है।

हरे कृष्ण।
स्वामी
 

आत्म परिवर्तन का योग - मेरा दृढ़ संकल्प

अगले कुछ महीनों में मैं आत्म परिवर्तन पर लेख लिखूँगा। हो सकता है कि आपको मेरी लिखी बातें उन बातों के बिल्कुल विपरीत लगें जो आप आज तक पढ़ते या सुनते आएं हैं। मैं आप से आग्रह करता हूँ कि आप वो मार्ग चुनें जो आपको आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे। आप स्वयं का विश्लेषण करें ताकि आप आत्म बोध के लक्ष्य तक पहुँच सकें। इससे पहले कि मैं आप सबके सामने अपने विचार प्रकट करूँ, मैं अपने दृढ़ संकल्प को आप सब के सामने प्रस्तुत करना चाहता हूँ:

मैं संकल्प लेता हूँ कि मैं आपको केवल उन्ही बातों से अवगत करूँगा जिन का मैंने स्वयं अनुभव किया है। योगिक प्रथाओं के संदर्भ में मैं संभवत: कुछ ग्रंथों या महान लेखों में कही गयी बातों पर प्रकाश डालूँ परन्तु यह केवल वही बातें होंगी जिनकी मैंने स्वयं पुष्टि की है और जिसे मैं आप के सामने प्रमाणित कर सकूं। मैं आपके सामने योगिक प्रथाओं तथा उन की शक्तियों का विवरण करूँगा।

आत्म परिवर्तन के योग के द्वारा ही मुझे समाधी की प्राप्ति हुई है। जब मैंने अपनी आध्यात्मिक यात्रा आरम्भ की थी तब मुझे इस बात का ज्ञान नहीं था कि मुझे अपने लक्ष्य तक पहुँचने में कितना समय लगेगा या फिर मैं वहां तक पहुँच भी पाऊंगा या नहीं। इसे अनुभव करने के बाद, मैं इसके सिद्धांत एवं व्यवहार को एकत्रित करके आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ- आत्म परिवर्तन का योग।

आत्म परिवर्तन का योग ना ही कोई राम बाण है जो हमारी सारी त्रुटियाँ मिटा दे और न ही उससे हम अन्तर्यामी बन जाएँगे । परन्तु यदि हम इसका अभ्यास गंभीरता पूर्वक एवं पूर्ण निष्ठा के साथ करेंगे तो हम अपने अंदर एक सकारात्मक बदलाव देखेंगे।

क्योंकि मैंने संकल्प लिया है इसीलिए मैं समक्ष संपूर्ण रूप से सच्चाई प्रस्तुत करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ। मैं किसी भी बात को बढ़ा चढ़ाकर नहीं कहूँगा अथवा आपके मस्तिष्क में किसी भी प्रकार की झूठी धारणाएं नहीं डालूँगा। इसके परिणाम स्वरूप संभवत: आप को यह सारे अध्याय आकर्षक नहीं लगें परन्तु आपको सच्चाई का ज्ञात अवश्य हो जाएगा। कोई अदीक्षित यदि योग प्रथाओं पर विभिन्न प्रकार के लेख पढने लगे तो उसके मन में भ्रम पैदा हो सकता है क्योंकि उन लेखों में जिन सिद्धिओं का उल्लेख रहता है उन्हें कठोर एवं निरंतर अभ्यास से ही प्राप्त किया जा सकता है। पुरातन एवं किताबी धारणाओं को नष्ट करके मैं इस विषय पर अपने विचार नयी तरह से प्रस्तुत करूँगा।

मैं आपसे केवल इतना ही वादा कर सकता हूँ की यदि आप मेरी लिखी गयी बातों पर अमल करेंगे तथा उन्हें अपने जीवन का एक हिस्सा बनाने का प्रयास करेंगे तो आप परिणाम अवश्य देखेंगे। यदि आप प्रयास ही नहीं करेंगे या बहुत कम प्रयास करेंगे तो आपको कोई परिणाम दिखायी नहीं देगा। सशक्त प्रयासों से ही उत्कृष्ट परिणाम मिलेंगे।

यदि आप आत्म परिवर्तन के योग में सफल हो जाते हैं तो आपको आलौकिक ज्ञान एवं आनंद की प्राप्ति होगी।

हमारे साथ जुड़े रहिए।

शांति।
स्वामी
 

आत्म परिवर्तन का योग - प्रस्तावना

Image source: cjn
आज तक मैं सभी विषयों पर कुछ खंडित रूप से लेख लिख रहा था। अपने अनुभव एवं पारस्परिक व्यवहार के आधार पर जो विषय मुख्य लगे उन पर प्रकाश डाला। अब उन सभी विषयों को एकत्रित करके एक स्त्रोत में पिरोने की आवश्यकता है। मैं इन सिद्धांतों एवं दार्शनिक विचारों को काफी समय से केन्द्रित करने की सोच रहा था। मैं चाहता हूँ कि लोग इन का लाभ उठाएं तथा अपने जीवन में इन्हें उपयोग में लाएं। यदि इस कार्य को आप पूर्ण निष्ठा के साथ करें तो आप को अमूल्य फल मिलेगा। आप अपने अंदर के वास्तविक सत्य को जानने लगेंगे और जब यह होगा तब आप के भीतर संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा जागृत होगी।

मैं योग शक्ति पर एक पुस्तक लिखने की सोच रहा हूँ। परन्तु इसे लिखने में अभी थोड़ा समय लगेगा। मैं कुछ लेख लिख रहा हूँ जो बाद में एक पुस्तक में परिवर्तित कर दिए जाएँगे। आने वाले कुछ महीनों में मैं आपको इन विषयों से अवगत कराऊंगा -

मेरे सिद्धांत
हम स्वयं का रूपांतरण दो विधियों द्वारा कर सकते हैं। पहली विधि यह है कि उस सिद्धांत पर गहन विचार करें, उस को पूरी तरह से समझें और फिर यदि आप उस से सहमत हैं तब उस पर अमल करें। दूसरी विधि यह कि सबसे पहले उन सिद्धांतों पर अमल करें और धीरे धीरे उनमें छुपी सच्चाई को जानें। मेरा मानना है कि मुझे आप सब को इसके कुछ आधारिक तथ्यों से अवगत करने की आवश्यकता है। तभी आप इसे पूर्ण रूप से समझ पाएंगे तथा अपने जीवन में इसका उपयोग करने में सफल हो पाएंगे।

इन गहन सिद्धांतों पर विचार करने के साथ साथ मैं अपने पुराने लेखों के भी कुछ विषयों पर प्रकाश डालूँगा। इस व्याख्यान में निम्नलिखित विषयों पर चर्चा की जाएगी-
१. मन का स्वरूप
२. आत्म परिवर्तन की आवश्यकता क्यों है
३. आत्म परिवर्तन की विधि

मैं आत्म परिवर्तन के पथ को कुछ इस तरह से देखता हूँ -
मुझे लगता है कि हम अपने गंतव्य पर आसानी से पहुँच सकते हैं यदि हमें अपने मूल का ज्ञान हो। इसीलिए हमें आत्म परिवर्तन करने से पहले आत्म विश्लेषण करना चाहिए। आत्म विश्लेषण के बाद हमें अपने गुणों एवं अवगुणों का अच्छे से ज्ञात हो जायेगा और हमें पता चल जाएगा कि हमें और कितनी मेहनत की आवश्यकता है। उदहारणार्थ आप में से किसी किसी का शरीर पहले से स्वस्थ होगा तो उन्हें अपने शरीर को चुस्त बनाने मे अधिक समय नहीं लगेगा। मानव स्वरूप कईं तत्वों से साँचा गया है। मैं हर तत्व पर एक-एक कर के चर्चा करूंगा। यह तत्व हैं-
१. व्यक्तित्व
२. अहंभाव
३. इच्छाएं
४. भय
५. विश्वास

आत्म परिवर्तन के पथ पर अग्रसर व्यक्तियों को नैतिक, भावनात्मक, शारीरिक एवं मानसिक स्तरों पर स्वयं को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। इन पहलुओं पर अधिक ज्ञान हमें निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा मिलेगा -
१. नैतिक परिवर्तन
२. भावनात्मक परिवर्तन
३. शारीरिक परिवर्तन
४. मानसिक परिवर्तन

यदि हम इन चारों स्तरों पे अपने आप को परिवर्तित कर पाते हैं तो हम संपूर्ण आत्म परिवर्तन कर पायेंगे तथा समाधी प्राप्त करके ईश्वर में लीन हो पाएंगे।

मूल प्रथाएं
मूल प्रथाओं के तहत हम आत्म परिवर्तन के लिए शारीरिक एवं मानसिक योग प्रथाओं के बारे में जानेंगे। संक्षेप में इन प्रथाओं में शामिल होंगे-
१. शारीरिक प्रक्षालन की छह गुना प्रणाली
२. शारीरिक अनुरक्षण की पांच गुना प्रणाली
३. एकाग्रता का अभ्यास
४. ध्यान का अभ्यास
५. विश्राम का अभ्यास
६. एकांत एवं मौन का अभ्यास
७. आत्म विश्लेषण एवं प्रलेखन का अभ्यास

समाधी
इस खंड में मैं आपको समाधी की ओर बढ़ने वाले पथ से अवगत कराऊंगा तथा समाधी  प्राप्त करने पर क्या होता है, इस सत्य पर भी प्रकाश डालूँगा। आम धारणा के विपरीत समाधी एक अल्पकालिक अनुभव नहीं है। इसे प्राप्त करने में काफी समय लगता है तथा इससे भी अधिक समय इस स्थिति को बनाए रखने में लगता है। सबसे बड़ी चुनौती होती है विचलन से अपने आपको बचाना क्योंकि समाधी की अवस्था में परम आनंद में खो जाने का डर है। जब ईश्वर आप को यह परम आनंद देता है, तब आप का कर्तव्य बन जाता है कि आप अपने ज्ञान का उपयोग दूसरों की सेवा में करें। सभी प्रमुख ग्रन्थ इस सत्य का उल्लेख करते हैं और मैं उन का समर्थन करता हूँ। आप का असली काम तो तब प्रारंभ होता है जब आप समाधी की अवस्था में रहना सीख जाते हैं। उस अवस्था में आप के अंदर एक मौलिक एवं नवीन दृष्टिकोण पैदा हो जाती है।

समाधी के पश्चात
इस खंड में हम जानेंगे कि हम स्वयं से किस प्रकार के परिवर्तन की आशा कर सकते हैं तथा जब हम योग के द्वारा आत्म परिवर्तन करने में सफल हो जाते हैं तब हमें कैसा अनुभव होता है। आत्म परिवर्तन के अंत में हमें स्वयं के वास्तविक स्वरूप का अनुभव होगा।

आप समाधी से केवल सात कदम ही दूर हैं। आप अपने हर कदम को या तो एक ऐसी बाधा के रूप में देख सकते हैं जिसे आप लगन से पार कर लेंगे अथवा एक गहरी खाई के रूप में जिसे आप निरंतर प्रयास करने के बाद भी पार नहीं कर पाएंगे - यह आप ही पर निर्भर है कि आप इसे कैसे देखते हैं।

हरे कृष्ण
स्वामी

क्या आपने नकारात्मक भावनाओं को अपने भीतर दबा रखा है?

उग्र सुनामी के आने से पहले समुद्र शांत होता है। क्या आपने अपने शांत स्वरूप के पीछे एक तूफान को रोक रखा है?
कभी कभी क्रोध में चिल्लाने से मन को राहत मिल सकती है, हमारे भीतर जो कुंठाएं घर कर लेती हैं उन्हें निकालने की यह सहज विधि है। परन्तु जब हम क्रोधित होकर चिल्लाते हैं इससे दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचती है तथा रिश्तों में दरारें आ जाती हैं। इसीलिए यह एक व्यवहारिक विकल्प नहीं है। इसके अतिरिक्त क्योंकि यह क्रोध की भावना से जुड़ा हुआ है, इसीलिए यह हमें निर्बल एवं लज्जित कर देता है। कल्पना कीजिए कि यदि आप बिना क्रोधित हुए चिल्ला सकते। यह संभवत: आपको अभी मूर्खतापूर्ण विधि लगे परन्तु इस लेख को पढने के बाद आपकी विचारधारा अवश्य बदल जाएगी।

शालीनता एवं शिष्टाचार के नाम पर, धर्म का पर्दा कर के, हमारे समाज ने सदैव स्वतंत्र अभिव्यक्ति का बहिष्कार किया है। जब तक हमारे कार्य हमारी जीवनशैली तथा हमारे विचार, समाज के ढाँचे के अनुसार हैं तब तक ही हम इस समाज का एक सम्माननीय अंश बन के रह सकते हैं। यदि हमने इस रूढ़िवादी समाज की नीतियों का विद्रोह किया, तो यह समाज हमें बहिष्कृत कर देता है। सुकरात को इसी कारण विष का प्याला पीना पड़ा, ईसा मसीह को क्रॉस पर चढ़ा दिया गया, तथा अरस्तु को सब कुछ छोड़ के भागना पड़ा। आम जीवन में भी यदि कोई कर्मचारी अपने प्रबंधक से या कोई खिलाड़ी रेफ़री से ऊँचे स्वर में बात करे तो उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है या मैदान से भगा दिया जाता है। यदि कोई अभिव्यक्ति सामाजिक दायरे के अंदर नहीं आती है तो समाज उसे नष्ट कर देता है।

शारीरिक गतिवधियां जैसे की खेल, ख़रीददारी, व्यायाम या सहवास, ये सब विधियाँ होती हैं, अपने अंदर दबी हुई भावनाओं को बाहर निकालने की। आप किसी खेल के मैदान में, या किसी व्यायाम करने के स्थान पर चिल्ला सकते हैं। उसके तुरंत बाद आपको शांति की अनुभूति होती है। सब कुछ तरो ताज़ा लगता है। सभी बौधिक गतिविधियाँ एक मार्ग प्रदान करती हैं अपनी अंदरूनी भावनाओं को बाहर निकालने का। कईं व्यक्ति बड़ी बड़ी संस्थाओं एवं सरकारों को कितने ही विषयों के बारे में लिख डालते हैं। वो जानते हैं कि उनके पत्र कभी नहीं पढ़े जायेंगे परन्तु उन्हें ऐसा करने से अपनी भावनाओं को बाहर निकालने का एक मार्ग मिलता है। कितना अच्छा होता यदि आपके पास अपनी सारी नकारात्मक भावनाओं को बाहर निकालने की कोई विधि होती। आप में से कुछ लोगों के अंदर भावनाओं का एक तूफ़ान है जो अपने आप को व्यक्त करने का केवल एक मार्ग ढूंढ रहा है।

यदि हम बच्चों का उदाहरण लें तो हमें यह ज्ञात होगा कि वे आराम से चिल्ला एवं रो सकते हैं, जिनसे वो भावनाओं के बोझ से मुक्त होकर अगले ही पल फिर से खुश हो जाते हैं। समझने की बात यह है कि वे किसी पर चिल्ला नहीं रहे होते वे केवल चिल्ला रहे होते हैं। वे किसी भी सामाजिक दायरे में बंधे नहीं होते। उन्हें अपरिपक्व समझकर लोग उनकी बातों को भूल जाते हैं। जबकि एक वयस्क अपने मन की भावनाओं की उथल पुथल में ही फँस कर रह जाता है। वह केवल चिल्लाता नहीं, दूसरों पर चिल्लाता है। अब मैं इस विषय की जड़ पर आता हूँ। कोई ऐसी जगह ढूँढ़िए जहाँ जाकर आप बिना किसी डर के चिल्ला सकें, वो भी ऊँचे स्वर में। जहाँ आपको इस बात की चिंता न हो कि आपको कोई देख रहा होगा।

तब तक चिल्लाते रहिए जब तक आपके अंदर छुपी सारी चिंताओं एवं भावनाओं का उमड़ता तूफ़ान बाहर न निकल जाए। हो सकता है, आपके जीवन में कुछ पल ऐसे आयें हो, जब आपके साथ किसी ने गलत किया हो परन्तु आप उस समय रोने में अक्षम महसूस कर रहे थे या फिर आप ने किसी अपने को खो दिया हो परन्तु उस विषाद को आप ठीक से व्यक्त नहीं कर पाएँ हों। कुछ ऐसे पल जब आपको समाज के सामने दृढ़ बन कर रहना पड़ा हो जब आपका मन अंदर से घबरा रहा था, या आपके सपने जो आपने अपने परिवार के लिए त्याग दिए। काफी सारी भावनाएं हैं जिनके बोझ तले हम दबे हुए हैं, इन्हें बाहर निकालने की आवश्यकता है। तब तक चिल्लाते रहिये जब तक यह भावनाएं आँसू बनकर आपकी आँखों से न निकलें।

इसे महसूस की जिये, अपने अंदर झांकिए, आपके अंदर कितना भार है। इसमें बहुत सी भावनाओं को तो आप अपने अंदर नहीं रखना चाहते हैं परन्तु आपको इस बात का ज्ञात नहीं है कि इसे अपने अंदर से कैसे निकालें। लोग ध्यान करते हैं, क्रीड़ा करते हैं, व्यायाम करते हैं, अपने आप को इस भार से हल्का करने का प्रयत्न करते हैं। जब एक बच्चा सोता है तब उसका चेहरा एकदम शांत स्वभाव का होता है, क्योंकि वह स्वयं को इस बोझ से वंचित करने में सक्षम है। आप को भी अपने आप को इस बोझ से मुक्त करने की आवश्यकता है। यदि आपके अंदर सकारात्मक भावनाएं हैं तो उन्हे और बढ़ाने का रास्ता ढूंढें। कुंठाओं एवं नकारात्मक भावनाओं को बाहर निकालिए ताकी आप अपने आप को हल्का महसूस कर सकें।

यदि मेरे पास बीस लोगों का समूह होता तो हम तीन दिनों के लिए कहीं दूर चले जाते। मैं आपको अपने अंदर छुपी हुई कुंठाओं को दूर भगाने तथा अपने आप को इस बोझ से मुक्त करने के उपाय सिखाता। ध्यान करने का अर्थ किसी मृत वस्तु के समान बैठना नहीं होता, ध्यान करने का वास्तविक अर्थ है जीवन से परिपूर्ण होना। परन्तु यह सारी बातें मैं आपको किसी और दिन समझाऊंगा।

आप पवित्र हैं, अपनी जयजयकार कीजिये। जो वस्तुएँ आपको अपवित्र बनाती हैं, उनका त्याग कीजिए। इन्हें अपने अंदर भर कर मत रखिए, अपने आप को इनसे मुक्त करिए।
(Image credit: Shane Maddon)
शांति।
स्वामी







 

कैसे प्रसन्न रहें

कठिनाईयों की वर्षा हो या समस्याओं का कीचड़, प्रसन्नता का वाहन सदैव तीन पहियों पर चलता है।
 मुझे अक्सर दुनिया भर के पाठकों से ईमेल आते हैं, उनमें से अधिकतर की कोई समस्या होती है, कुछ की अनेक समस्याएं होती हैं। परंतु विषय यह नहीं कि उन की इतनी समस्याएं हैं, मुद्दा तो यह है कि वे इन समस्याओं के बीच प्रसन्न रहने में असमर्थ हैं। इसलिए यह एक आम धारणा है कि यदि हमारी समस्या दूर हो जाए, तो हमारी पीड़ा भी दूर हो जाएगी और यदि कोई पीड़ा ना हो, तो हम सुखी हो जाएंगे। कदाचित ही यह संभव है।

मनुष्य के अधिकतर कार्य या व्यवसाय खुशी प्राप्त करने की इच्छा और संतुष्टि का अनुभव करने के लिए ही किए जाते हैं। किंतु सुख ही अंतिम लक्ष्य नहीं है। हाँ यह एक परिणाम हो सकता है, परंतु सर्व प्रथम यह एक मानसिक अवस्था है।

भौतिक संपत्ति, बौद्धिक कारनामे एवं सामाजिक मान्यता की सहायता से आप संतुष्टि का अनुभव तो कर सकते हैं परंतु यह प्रसन्नता सीमित और अस्थायी होगी। आपके आनंद की मौलिक अवस्था इस पर निर्भर नहीं कि आपके पास क्या है या क्या नहीं है। चलिए मैं आपको प्रसन्नता के तीन पहियों के विषय में बताता हूँ, जिनके साथ जुड़े हैं तीन अमूल्य प्रश्न। यदि आपके जीवन का वाहन इन तीन पहियों पर खड़ा हो, तब आप अपनी यात्रा सहजता और प्रसन्नतापूर्वक पूरी करेंगे।

१. स्वीकृति - क्या मैं सब कुछ स्वीकार कर सकता हूँ और क्या मैं शांति का मार्ग चुन सकता हूँ?
स्वीकृति एक दिव्य तत्व है। यदि आप दूसरों को बिना किसी अपेक्षा के स्वीकार करते हैं तो तुरंत आपके कण कण में शांति भर जाती है। अस्वीकृति प्रतिरोध करने के समान होती है - प्रवाह के विरुद्ध तैरने के समान, यह सदैव कठिन होती है।

वसंत के मौसम में चारों ओर फूल खिले होते हैं और तब कुछ व्यक्तियों के शरीर पराग को स्वीकार करते हैं और वह स्वस्थ रहते हैं। अन्य व्यक्ति के शरीर उसे ठुकरा देते हैं और उस से लड़ने का प्रयास करते हैं। इसके फल स्वरूप उन के शरीर में बलगम का गठन होता है और उन्हे बुख़ार हो जाता है। इसी प्रकार आपको केवल तभी लड़ने की या प्रतिरोध करने की आवश्यकता पड़ती है जब आप स्वीकार नहीं कर पाते। यदि कोई प्रतिरोध ही ना हो तो कोई प्रतिक्रिया भी नहीं होगी।

स्वयं को प्रसन्न करने के लिए जब तक आप दूसरों पर निर्भर हैं, तब तक अन्य व्यक्ति आपकी मानसिक स्थिति को प्रभावित और निर्धारित करते रहेंगे। यह अति आवश्यक है कि आप लोगों को स्वीकार करने और परिस्थितियों को स्वीकार करने में अंतर जानें। आप लोगों को नहीं बदल सकते हैं परंतु आपके जीवन में उनका होना या ना होना आपकी परिस्थितियों को बदल सकता है। यदि आप लोगों से खुश नहीं हैं, तो इस समस्या के समाधान के लिए आपको अपने अंदर झांक कर देखना होगा। यदि आप अपनी परिस्थितियों से खुश नहीं, तो आपको उन परिस्थितियों को बदलने पर विचार करना होगा।

स्वीकृति का यह अर्थ नहीं कि जिसे आप महत्वपूर्ण मानते हैं उसे भुला दें। इस का यह अर्थ है कि आप अपने वर्तमान परिस्थितियों या परिणामों के कारण अपनी मन की शांति को भंग ना करें।

२. प्रवृत्ति - मैं इसका सामना कैसे करना चाहता हूँ?
दूसरा पहिया है प्रवृत्ति। आप कैसे जीवन का अनुभव और सामना करते हैं ये जीवन के प्रति, दूसरों के प्रति, और अपने आप के प्रति आपके दृष्टिकोण पर निर्भर है। जब आप सदैव इस सोच में डूबे रहते हैं कि आपका जीवन कैसा होना चाहिए या कैसा हो सकता है और जब आप ख़याली पुलाव पकाते रहते हैं, तब आपके पास पहले से जो है उस का महत्व शीघ्र ही कम होने लग जाता है।

मुल्ला नसरुद्दीन एक बार जर्जर वस्त्र पहने हुए एक थके हुए व्यक्ति से मिला जिसके हाथ में एक बोरी थी। मुल्ला नसरुद्दीन से रहा नहीं गया और वह पूछा, "जीवन कुशल मंगल तो है ना?"

उस व्यक्ति ने कहा, "कैसे हो सकता है? मेरे पास ना कोई घर है ना भोजन, ना कोई नौकरी ना कोई धन। जो कुछ भी है वह इस बदबूदार छोटी बोरी में है।"

बिना कुछ कहे, मुल्ला ने उसकी बोरी छीन ली और तुरंत भाग गया। उस व्यक्ति ने उसका पीछा किया परंतु उस को पकड़ नहीं पाया। कुछ देर बाद, मुल्ला ने सड़क के बीच उसकी बोरी रख दी और एक दुकान के पीछे जा कर छिप गया।

वह आदमी तेजी से आया, अपने पैरों पर गिरा, अपनी बोरी को पकड़ा और खुशी के आँसू बहाते हुए बोला, "आह मेरी बोरी ! मुझे अपनी बोरी वापस मिल गयी। मुझे लगा कि मैं तुम्हें फिर कभी नहीं देख सकूंगा! धन्यवाद ईश्वर! मुझे अपनी बोरी वापस मिल गयी।"

मुल्ला खुद से बोला "चलो, यह हुआ ना रास्ता किसी को खुश करने का!"

दुखी लोग अपना समय उसे पाने की चिंता में बिताते हैं जो उन के पास नहीं है। जीवन में जैसी भी परिस्थितियों का सामना करना पड़े स्वयं से यह पूछिए - मैं इसका सामना कैसे करना चाहता हूँ?

अपने आप को याद दिलाएं कि आप के पास दो रास्ते हैं, एक सकारात्मक रवैया अपनाने का या फिर नकारात्मकता का रास्ता। आपको चुनना होगा।

३. जागरूकता - क्या मैं प्रसन्नता की ओर बढ़ रहा हूँ या उस से दूर जा रहा हूँ?
इससे पहले कि आप किसी भी स्थिति में एक प्रतिक्रिया चुनें, आप के पास कुछ क्षण होते हैं जिस में आप को अपना अंतिम निर्णय करना होता है। सही निर्णय और प्रतिक्रिया के लिए जागरूकता की आवश्यकता है। यदि आपकी कोई आदत हो, अच्छी या बुरी, तब जागरूकता दुर्बल हो जाती है और आपकी प्रतिक्रिया एक स्वत: कार्य हो जाता है। उदाहरणार्थ, समझ लें कि कोई ऐसा व्यक्ति हो जो आसानी से क्रोधित हो जाए, और हर प्रतिकूल स्थिति में उसकी अभिक्रिया क्रोध ही हो। क्योंकि यह उसकी आदत है, शीघ्र ही वह बिना जाने ही अपने आप को क्रुद्ध पाएगा। जब उस का क्रोध शांत हो जाए उस के बाद ही उसे यह अहसास होगा कि वह क्रोधित हुआ था और संभवतः वह क्षमा भी मांगे। इसी प्रकार कईं लोग किसी विशेष कारण से नहीं, केवल अपनी आदत और प्रवृत्ति के कारण दुखी होते हैं।

जागरूकता विकसित करने के लिए अभ्यास एवं सतर्कता की आवश्यकता है। जागरूकता द्वारा आप सही मार्ग पर चलने लगेंगे। आप के कर्म या तो आप को प्रसन्नता की ओर या उस से दूर ले जा सकते हैं। इससे पहले कि आप किसी भी स्थिति में एक प्रतिक्रिया चुनें, स्वयं से पूछें -  क्या मैं प्रसन्नता की ओर बढ़ रहा हूँ या उस से दूर जा रहा हूँ? बड़ी सावधानी से अपनी प्रतिक्रिया का चयन करें - बहुत कुछ इसी पर निर्भर है।

यदि आप अपने आप को, दूसरों को और परिस्थितियों को वैसे के वैसे रहने दें और केवल शांति का मार्ग चुनें, तो आप प्रसन्नता को स्वत: आकर्षित करेंगे। खुशी आप का दृष्टिकोण है, इस को स्वयं से दूर ना होने दें। शेक्सपियर ने सही ही कहा है, "दूसरे व्यक्ति की आँखों  से देखो तो प्रसन्नता भी कितनी कड़वी लगती है।"

क्या आप सदैव प्रसन्न रह सकते हैं? हाँ। कैसे? प्रसन्न रहने की कामना को त्याग दें। खुश होने की इच्छा से ना बंधें। और जिस से आप बंधे ही नहीं उसे आप खो कैसे सकते हैं!
(Image credit: Ruth Burrows)
शांति।
स्वामी

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