भज गोविन्दम भाग - ३

अपने कार्यों का विश्लेषण करें - भज गोविन्दम शृंखला - वीडियो [3 की 6]

यह तीसरा व्याख्यान है -

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चति आशावायुः ॥12॥
 

समय का बीतना और ऋतुओं का बदलना सांसारिक नियम है। कोई भी व्यक्ति अमर नहीं होता। मृत्यु के सामने हर किसी को झुकना पड़ता है। परन्तु हम मोह माया के बन्धनों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते हैं।  

का ते कान्ता धनगतचिन्ता वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जन संगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका ॥13॥


सांसारिक मोह माया, धन और स्त्री के बन्धनों में फंस कर एवं व्यर्थ की चिंता कर के हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा। क्यों हम सदैव अपने आप को इन चिंताओं से घेरे रखते हैं? क्यों हम महात्माओं से प्रेरणा लेकर उनके दिखाए हुए मार्ग पर नहीं चलते? संत महात्माओं से जुड़ कर अथवा उनके दिए गए उपदेशों का पालन कर के ही हम सांसारिक बन्धनों एवं व्यर्थ की चिंताओं से मुक्त हो सकते हैं ।  

जटिलो मुण्डी लुञ्चित केशः काषायाम्बर-बहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृत शोकः ॥14॥


इस संसार का हर व्यक्ति चाहे वह दिखने में कैसा भी हो, चाहे वह किसी भी रंग का वस्त्र धारण करता हो, निरंतर कर्म करता रहता है। क्यों? केवल रोज़ी रोटी कमाने के लिए। फिर भी पता नहीं क्यों हम सब कुछ जान कर भी अनजान बनें रहते हैं।

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशन विहीनं जातं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चति आशापिण्डम् ॥15॥
 

जिस व्यक्ति का शरीर जवाब दे चूका है, जिसके बदन में प्राण सिर्फ नाम मात्र ही बचे हैं, जो व्यक्ति बिना सहारे के एक कदम भी नहीं चल सकता, वह व्यक्ति भी स्वयं को सांसारिक मोह माया से छुड़ाने में असमर्थ रहा है।  

अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः रात्रौ चिबुक-समर्पित-जानुः।
करतलभिक्षा तरुतलवासः तदपि न मुञ्चति आशापाशः ॥16॥
 

समय निरंतर चलता रहता है। इसे न कोई रोक पाया है और न ही कोई रोक पायेगा। सिर्फ अपने शरीर को कष्ट देने से और किसी जंगल में अकेले में कठिन तपस्या करने से हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी।

भज गोविन्दम भाग- ३ का प्रवचन हिन्दी में सुनने के लिए नीचे क्लिक करे।


 


भाग - ४ अगले हप्ते...

शांति।
स्वामी 

 

भज गोविन्दम भाग - २

वास्तविकता को समझें - भज गोविन्दम शृंखला. वीडियो [2 की 6]

 
यह द्वितीय व्याख्यान है -
 
बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावत् चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥7॥
 
सारे बालक क्रीडा में व्यस्त हैं और नौजवान अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करने में समय बिता रहे हैं। बुज़ुर्ग केवल चिंता करने में व्यस्त हैं। किसी के पास भी उस परमात्मा को स्मरण करने का वक्त नहीं।
  
का ते कांता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयं अतीव विचित्रः।
कस्य त्वं कः कुत अयातः तत्त्वं चिन्तय यदिदं भ्रातः ॥8॥
 
कौन है हमारा सच्चा साथी? हमारा पुत्र कौन हैं? इस क्षण-भंगुर, नश्वर एवं विचित्र संसार में हमारा अपना अस्तित्व क्या है? यह ध्यान देने वाली बात है।  
 
सत्संगत्वे निःसंगत्वं, निःसंगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥9॥
 
संत परमात्माओ के साथ उठने बैठने से हम सांसारिक वस्तुओं एवं बंधनों से दूर होने लगते हैं।
ऐसे हमें सुख की प्राप्ति होती है। सब बन्धनों से मुक्त होकर ही हम उस परम ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं। 
 
वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥10॥
 
यदि हमारा शरीर या मस्तिष्क स्वस्थ नहीं तो हमें शारीरिक सुख की प्राप्ति नहीं होगी। वह ताल ताल नहीं रहता यदि उसमें जल न हो। जिस प्रकार धन के बिखर जाने से पूरा परिवार बिखर जाता है, उसी तरह ज्ञान की प्राप्ति होते ही, हम इस विचित्र संसार के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं।  
 
मा कुरु धन-जन-यौवन-गर्वं, हरति निमेषात्कालः सर्वम्।
मायामयमिदमखिलं हित्वा ब्रह्म पदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥11॥
 
हमारे मित्र, यह धन दौलत, हमारी सुन्दरता एवं हमारा गुरूर, सब एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। कुछ भी अमर नहीं है। यह संसार झूठ एवं कल्पनाओं का पुलिंदा है। हमें सदैव परम ज्ञान प्राप्त करने की कामना करनी चाहिए।
 
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भाग - ३ अगले हप्ते...

शांति।
स्वामी
 
 


भज गोविन्दम भाग - १

अदि गुरू श्री शंकराचार्य

प्रभु का नाम जपिये - भज गोविन्दम शृंखला - वीडियो [1 की 6] 


भज गोविन्दम श्री शंकराचार्य की एक बहुत ही खूबसूरत रचना है। इस स्तोत्र को मोहमुदगर भी कहा गया है जिसका अर्थ है- वह शक्ति जो आपको सांसारिक बंधनों से मुक्त कर दे। छः व्याख्यानों के द्वारा मैंने इन पर रौशनी डालने का प्रयास किया है। सारे व्याख्यान हिंदी में हैं । अपने व्याख्यानों के दौरान मैं स्तोत्र का उल्लेख अवश्य करता हूँ ताकि आप इन्हें पूर्ण रूप से समझ सकें और इनका आनंद उठा सकें।  

भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते।
सम्प्राप्ते सन्निहिते मरणे, नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे ॥1॥

हे भटके हुए प्राणी, सदैव परमात्मा का ध्यान कर क्योंकि तेरी अंतिम सांस के वक्त तेरा यह सांसारिक ज्ञान तेरे काम नहीं आएगा। सब नष्ट हो जाएगा।  

मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णां, कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं, वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥2॥ 

हम हमेशा मोह माया के बंधनों में फसें रहते हैं और इसी कारण हमें सुख की प्राप्ति नहीं होती। हम हमेशा ज्यादा से ज्यादा पाने की कोशिश करते रहते हैं। सुखी जीवन बिताने के लिए हमें संतुष्ट रहना सीखना होगा। हमें जो भी मिलता है उसे हमें खुशी खुशी स्वीकार करना चाहिए क्योंकि हम जैसे कर्म करते हैं, हमें वैसे ही फल की प्राप्ति होती है।  

नारीस्तनभरनाभीनिवेशं, दृष्ट्वा-माया-मोहावेशम्।
एतन्मांस-वसादि-विकारं, मनसि विचिन्तय बारम्बाररम् ॥3॥

हम स्त्री की सुन्दरता से मोहित होकर उसे पाने की निरंतर कोशिश करते हैं। परन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह सुन्दर शरीर सिर्फ हाड़ मांस का टुकड़ा है।  

नलिनीदलगतसलिलं तरलं, तद्वज्जीवितमतिशय चपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोकं शोकहतं च समस्तम् ॥4॥ 

हमारा जीवन क्षण-भंगुर है। यह उस पानी की बूँद की तरह है जो कमल की पंखुड़ियों से गिर कर समुद्र के विशाल जल स्त्रोत में अपना अस्तित्व खो देती है। हमारे चारों ओर प्राणी तरह तरह की कुंठाओं एवं कष्ट से पीड़ित हैं। ऐसे जीवन में कैसी सुन्दरता?  

यावद्वित्तोपार्जनसक्त:, तावत् निज परिवारो रक्तः।
पश्चात् धावति जर्जर देहे, वार्तां पृच्छति कोऽपि न गेहे ॥5॥
 
जिस परिवार पर तुम ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, जिसके लिए तुम निरंतर मेहनत करते रहे, वह परिवार तुम्हारे साथ तभी तक है जब तक के तुम उनकी ज़रूरतों को पूरा करते हो।  

यावत्पवनो निवसति देहे तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥6॥

तुम्हारे मृत्यु के एक क्षण पश्चात ही वह तुम्हारा दाह-संस्कार कर देंगे। यहाँ तक की तुम्हारी पत्नी जिसके साथ तुम ने अपनी पूरी ज़िन्दगी गुज़ारी, वह भी तुम्हारे मृत शरीर को घृणित दृष्टि से देखेगी।

भज गोविन्दम भाग- १ का प्रवचन हिन्दी में सुनने के लिए नीचे क्लिक करे।



भाग - २ अगले हप्ते...

शांति।
स्वामी

ठण्ड मे अधिक दुखता है

जैसे हिम ठंड में सख्त और भंगुर बर्फ बन जाती है, वैसे ही करूणा रहित ह्रदय कठोर हो छोटी सी चोट से ही टूट जाता है।
एक मठ में किताबी ज्ञान से भरा हुआ एक साधक रहता था। शास्त्रार्थ तथा धार्मिक वाद-विवादों में कोई उसे पराजित नहीं कर पाता था। धार्मिक कृत्य के पालन में वह निपुण था। आत्म-बोध और ईश्वर प्राप्ति का उसपर जुनून सवार था। वह अपना पूरा समय विभिन्न धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने में व्यतीत करता था। उसके लिए ईश्वर, ध्यान और आत्म-बोध ही सब कुछ था। किताबों से सूखा ज्ञान लेकर उसमें कदाचित उच्चता और दम्भ की भावना आ गयी थी। वो केवल अपने मोक्ष के लिये प्रयत्नशील था, आसपास चाहे कोई मर क्यूं ना रहा हो, उसे कोई परवाह ना थी।  मोक्ष की प्राप्ति ही उसका परम लक्ष्य था तथा किसी दूसरे का कष्ट उसे बहुत सामान्य लगता, उसे लगता कि किसी दूसरों की उलझनों को सुलझाना समय व्यर्थ करना था। हालाँकि उसने सब शास्त्रो का अध्यन किया हुआ था परन्तु फिर भी वह जल्दी क्रुध हो छोटी छोटी बातों पर भड़क जाता था।

उसके गुरु एक सिद्ध पुरुष थे। वो अपने शिष्य के गुण-अवगुण से भली भांति परिचित थे। हालाँकि वह अपने शिष्य के ध्यान और संकल्प की सराहना करते थे, उन्हे इस बात का अहसास था कि उनके शिष्य अपने वर्तमान मानसिकता के साथ मुक्ति प्राप्त नहीं कर पायेंगे। कई बार उन्होंने अपने शिष्य में दया और विनम्रता को जाग्रत करने का प्रयास किया लेकिन शिष्य के अभिमान और हठ के कारण गुरु असफल रहे।

एक दिन गुरु ने हिमालय जाकर तीन महीनों की एक साधना करने का निर्णय किया। वह अपने शिष्य को भी अपने साथ ले गये। हिमालय के बर्फीले पहाड़, खूबसूरत झरने, लंबे पेड़ों के घने जंगल और जंगली जानवरों के बीच उन्हे एक गुफा मिली जहां वह दोनों आराम से रह सकते थे। गुफा से कुछ दूर ही एक नदी भी बहती  थी। उन्होंने अपनी गुफा में कुछ मूल वस्तुएँ और खाने-पीने का समान रख लिया। कुछ समय बाद एक दिन भारी बर्फ़ पड़ने लगी।

शिष्य नदी से पानी लाने के लिए गया। बर्फीली ज़मीन पर चलते समय वह फिसल कर नीचे गिर गया। बाल्टी लुढ़कती हुई नदी में गिर गई और दुर्भाग्यवश उसका दहिना हाथ बर्फ में छिपे हुए एक नोकीले पत्थर से टकरा गया। ठंड के कारण सुन्न हाथ पर चोट लगने से अत्याधिक पीड़ा हुई। दर्द से कराहता हुआ वह गुफा की ओर वापिस भागा। उसको कठोर मौसम पर अत्यन्त क्रोध आया और बाल्टी के खो जाने की चिन्ता भी सताने लगी (हालाँकि उनके पास एक अतिरिक्त बाल्टी थी)। दर्द के कारण वह चिढ़ हुआ था। गुफा में पहुँच कर उसने गुरु को दुर्घटना के बारे में बताया।

उन्होने शिष्य के घायल हाथ को जांचा और कहा, "यह घाव तो बहुत गहरा है। मैं इस पर थोड़ा गरम पानी डाल देता हूँ।"
जब पानी गरम हो रहा था, उन्होंने कहा, "ठंड में दर्द और अधिक महसूस होता है ना?"
"जी, गुरुजी।"
गुरु ने रक्त के बहाव और दर्द को कम करने के लिए शिष्य के हाथ पर गरम पानी डाला। "यह आरामदायक है - मुझे राहत मिल रही है", शिष्य ने कहा।
"सौहार्द अर्थात गर्मी तो स्वाभिक रूप से ही सुखदायी है, पुत्र।"

जब शिष्य का दर्द कुछ कम हुआ, तब उनके गुरु नदी के पास पड़ी बाल्टी को लेकर आये और लौट कर आने पर उन्होंने कहा:
"केवल धर्म या अनुष्ठान इत्यादि इस मृत बाल्टी के समान होते हैं। वे कभी एक जीवित प्राणी से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकते। यह बाल्टी मात्र एक साधन है जिस का प्रयोग एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है, बाल्टी अपने में स्वयं कोई लक्ष्य नहीं है। क्या तुम जानते हो तुम दूसरों से क्यों इतना चिढ़ जाते हो? क्योंकि तुम अंदर से बर्फ के समान ठंडे और सुन्न हो। ठंड में दर्द और अधिक महसूस होता है। अपने चारों ओर इस बर्फ को देखो। जब ठंडी हवा चलती है, यह बर्फ और सख्त हो जाती है। वैसे ही जब तुम कठोर बन जाते हो तब तुम अपने ह्रदय को सुन्न और सख्त बना देते हो। एक झटका लगते ही तुम टूट जाते हो! उपदेश कभी कभी बर्फ के समान सख्त हो सकता है, परंतु करुणा सदैव गुण-गुणे पानी के समान आरामदायक होती है। आज के हमारे विश्व को दयालु मनुष्यों की नितान्त आवश्यकता है। केवल ग्रंथों का अध्ययन करने या स्वयं के निर्वाण में ही अपना सारा समय व्यतीत करने से इस जगत का कल्याण कैसे होगा? जीवित प्राणियों के दर्द को समझना अधिक महत्वपूर्ण है या बेजान संपत्ति की चिंता करना? इसमें कोई संदेह नहीं कि ध्यान और साधना करना महत्वपूर्ण हैं, परंतु वे केवल आपके लक्ष्य को पाने का एक माध्यम है। उनका उद्देश्य आपको एक शांत और संतुलित अवस्था में लेकर आना है। किन्तु मन की शांति का यह अर्थ नहीं कि आप सुन्न और उदासीन हो जायें। वास्तव में इसका यह अर्थ है कि आप सदा दयालु और करुणामय हों। दूसरों के दु:ख और दर्द को महसूस करें और सदैव लोगों की सहायता करने का प्रयास करें। यही आत्म-बोध है।"

शिष्य को यह अहसास हुआ कि आखिरकार उसके गुरु एक सिद्ध महापुरुष क्यों माने जाते थे। वह समझ गया कि दया और करुणा ही साधना का मूल तथा लक्ष्य है। ये गुण किताबी ज्ञान से कई अधिक महत्वपूर्ण हैं, यही सिद्धि है। केवल ग्रंथों का ज्ञान पर्याप्त नहीं है और वह व्यक्ति के मुक्ति का सूचक नहीं है। अपने जीवन के दर्दनाक घटनाओं, लोगों और परिस्थितियों की एक सूची बनाओ, और फिर उस सूची को जला दो या फेंक दो। उन्हें अंदर रखोगे तो रख कर तुम कठोर और सुन्न हो जयोगे, छोटे से प्रहार से ही टूट जायोगे। याद रखें, करुणा आरामदायक होती है और जब ह्रदय सख्त और ठण्डा होता है तभी दर्द और अधिक महसूस होता है।

करुणामय और शांत रहने से आत्म साक्षात्कार का मार्ग अत्यन्त सुलभ हो जाता है।

शांति।
स्वामी

दिखावे का जीवन

ढोंग करने से आप अपने आंतरिक शांती के स्रोत से दूर हो जाते हो। तनाव तथा उलझने स्वतः ही आपको जकड़ लेती हैं।
एक बार एक गांव के निवासी एक शेर से परेशान थे। हर रात वह शेर गांव में चुपचाप घुस कर कुछ असहाय भेड़ और बकरियों का शिकार करता था। कभी कभी वह गाय या भैंस का भी शिकार करता था। शेर को पकड़ने मे या उसको मारने मे ग्रामीणों का हर उपाय असफल रहा।

आखिरकार, एक बहादुर आदमी ने एक सुझाव दिया, "किसी तरह, हमे दिन के समय शेर को आकर्षित करना होगा ताकि जब वह पास आये तब हम उस पर हमला कर सकें। इस जानवर से छुटकारा पाने का यही एक रास्ता है।"

"लेकिन, ये बिल्ली के गले मे घण्टी बांधने जैसा काम करेगा कौन?" एक बुज़ुर्ग ने कहा।

"मेरे पास ये करने के लिए सही योजना है। इतना तो स्पष्ट है कि जब तक दिन ना ढ़ल जाये तब तक शेर गांव के अंदर नही आता। हमे ही जंगल में जाना होगा। मैं एक बेहतरीन निशानेबाज़ हूँ। मैं एक गाय के भेस में जंगल जाऊँगा और अपनी बंदूक लेकर चुपचाप खड़ा हो जाऊँगा। जैसे ही वो मेरी और आयेगा, मैं गोली चलाकर उसे मार दूँगा । उसे बचने का कोई मौका ही नहीं मिलेगा।"

ग्रामीणों ने उस शानदार उपाय के लिए उसकी प्रशंसा की। उन्होने उसे चारों ओर से गाय की खाल से लिपटा दिया और ध्यान से गाय के मुंह में उसकी बंदूक रखी। जंगली घास भर कर उन्होने उसे रूबरू गाय जैसा बना दिया। फिर गाय की रूप में उस आदमी ने जंगल में प्रवेश किया।

मुश्किल से आधा घंटा ही बीता होगा कि सबने उस आदमी दौड़ कर गांव की ओर वापिस आते देखा। उसकी बंदूक हाथ में नहीं थी, उसके कपड़े फटे हुए थे और उसके भेस से घास बाहर निकल कर गिर रही थी। गाय का सिर तो अभी भी उसके सिर पे था लेकिन अब वह असली गाय जैसा नहीं लग रहा था।

उसकी यह हालत देख कर गांववाले जल्द ही इकट्ठे हुए और उन्होने उसकी मदद की। उन्होने उसे बिठाकर पानी पिलाया और उसे शांत किया।

एक व्यक्ति ने उसकी यह हालत देख कर कहा, "तुम तो बड़े डरे हुए और परेशान लग रहे हो। क्या उल्टा शेर ने तुम पर हमला कर दिया?"

"शेर? अरे भई, शेर तक तो मै पहुंच ही नही पाया। जंगल की ओर जाने की देर थी कि बैलों ने मेरा पीछा करना शुरू कर दिया। मुझे असली गाय समझ कर वे कामातुर बैल बेताहाशा मेरे पीछे भागे। बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचा कर आया हूं"।

यह सुनकर सबकी हंसी छूट गयी।

मज़ाक को एक तरफ रखा जाये तो इस कहानी मे एक बहूमूल्य उपदेश भी है। वह आदमी एक असली गाय को पेड़ से बाँध कर पेड़ पर चढ़कर शेर का इंतज़ार कर सकता था लेकिन उसकी बजाय वह एक बहरूपिये की भांति आडंबर मे पड़ गया। वो बन बैठा जो वो दूर दूर तक नही था। ना केवल कि वह अपने लक्ष्य को पूरा करने में विफ़ल रहा बल्कि एक अप्रत्याशित स्थिति का सामना कर उसने खुद को खतरे में ड़ाला।

जब आप वो बनने का प्रयास करते हैं जो आप हैं नहीं या जब आप किसी और जैसा बनने का दिखावा करते हैं, तब यह आप पर बहुत बड़ा बोझ बन जाता है। इससे आप जीवन मे बेचैन रहते हुए आप स्वयं के अस्तित्व को भूलने लगते हैं। एक नई भूमिका निभाने का बेवजह वजन कन्धो पर आ पड़ता है। अगर नकाब पहन कर जियोगे तो आपकी आंतरिक और बाहरी दुनिया तनाव और उलझनें से भर जायेगी।

माना के संसार मे जीने के लिये शायद यह संभव नहीं कि आप सदैव एक ही तरह के बने रहो, कई बार अलग-अलग भूमीकायें निभानी पड़ती है, लेकिन एक ज्ञानी महापुरुष और एक साधारण व्यक्ति में यही अंतर है कि प्रबुद्ध केवल वर्तमान क्षण मे जीते हुए अपनी भूमिका निभाते हैं, जबकि आम इंसान उस भूमिका को अपनी पहचान समझ कर उसमे जीना शुरु कर देता है। इससे वह स्वयं के अस्थित्व और अपने भीतर बसे हुए ईश्वर से दूर चला जाता है । उदाहरणार्थ, एक सैन्य अधिकारी घर आने पर भी अपनी पत्नी, बच्चों और अन्य लोगों को अपने सैनिकों की भांती सख्ती से पेश आता है। हालांकि वह ना तो वह अपनी वर्दी में है और ना वह अपने कार्यालय में, फिर भी वह अभी भी एक अधिकारी की तरह बर्ताव करता रहता है। उसने अपनी भूमिका को अपनी पहचान बना लिया है। तो क्या यह संभव है कि कोई आसानी से क्षणभर में ही अपनी भूमिका बदल सके। जी हाँ। इसे ही वर्तमान पल में जीना कहते हैं।

अपनी भूमिका को निभाइये लेकिन ध्यान रहे कहीं वो आपकी पहचान ना बदल दे। बेशक भविष्य के बारे मे सोचो परन्तु जियो वर्तमान मे। फिलहाल इस क्षण आप यहाँ रहिये और इस क्षण में जीने का प्रयास कीजिये। भेस कितना ही उत्तम क्यों ना हो आखिरकार वो केवल एक भेस ही रहता है।
(Image credit: Michael Heald)
शांति।
स्वामी

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