प्रसन्नता का गुब्बारा

आज के युग में कैसे प्रसन्न रहा जाए? जानने के लिए यह लेख पढ़ें - दार्शनिक किंतु सत्य से परे नहीं।
एक समय एक आश्रम में एक गुरू के सैकड़ों शिष्य एकत्रित हुए। वे वहाँ अपने गुरू की एक झलक पाने, उनके ज्ञानपूर्ण वचन को सुनने और ध्यान आदि सीखने के लिए एकत्रित हुए थे। विशेषत: वे सभी यह जानना चाहते थे कि इस तनावपूर्ण संसार में प्रसन्न कैसे रहा जाए। क्या ऐसा कोई मार्ग है भी?

गुरू ने उनके प्रश्नों को धैर्यपूर्वक सुना और फिर ‘प्रसन्नता’ पर अपना व्याख्यान आरंभ किया। अपने प्रवचन के बीच में वे रुके और अपने पाँच सौ अनुयाइयों में प्रत्येक को एक गुब्बारा दिया।

उन्होंने कहा “यह प्रसन्नता का गुब्बारा है। इसे फुला कर इस पर अपना नाम लिख दो।”

उन्हें कुछ पेन वितरित किए गए जिससे नाम लिखे जा सकें।

नाम लिखने के पश्चात गुरू ने कहा “अपने गुब्बारों को पास के खाली कमरे में जा कर रख दें।”

“मुझे पता है यहाँ क्या होने वाला है”, एक शिष्य ने कहा। “थोड़ी देर में या तो गुब्बारे फूट जाएंगे या वे स्वयं ही पिचक जाएंगे। प्रसन्नता भी कुछ कुछ ऐसी ही होती है। वह ठहरती नहीं। वह जितनी अधिक मात्रा में होगी उतनी ही शीघ्र नष्ट हो जाएगी। हमें इसे बहुत संभाल कर रखना होगा।”

गुरू उस जिज्ञासु शिष्य की ओर देख कर मुस्कुराए और इशारे से उसे उनके निर्देश का पालन करने को कहा। एक-एक करके उन सभी ने अपने गुब्बारे कमरे में रख दिए और वापस आकर अपने स्थान पर बैठ गए।

जब सभी अपने स्थान पर बैठ गए, तो गुरू ने कहा “जाइये और अपने नाम का गुब्बारा लेकर यहाँ वापस आ जाइये।”

सभी उठे और अपना गुब्बारा लेने के लिए दूसरे कमरे की ओर भागे। आखिर वह “प्रसन्नता” का गुब्बारा था। शीघ्र ही गुब्बारे फटने की आवाजें आने लगीं। बहस शोरगुल सुनायी पडने लगा क्योंकि हर व्यक्ति पागलों की तरह अपना गुब्बारा खोज रहा था। पांच मिनट पश्चात केवल कुछ ही व्यक्तियों को अपना गुब्बारा मिल सका, वह भी संयोगवश।

गुरू ने उन सभी को रोकते हुए कहा कि कोई भी एक गुब्बारा चाहे उस पर कोई भी नाम लिखा हो ले आएं। कुछ ही समय में हर व्यक्ति एक-एक गुब्बारे के साथ कमरे में उपस्थित था।

गुरू ने कहा “अब गुब्बारे पर लिखा नाम पुकारें और वह जिस व्यक्ति का है उसे दे दें।”

शीघ्र ही हर व्यक्ति के हाथ में उनका गुब्बारा था, सिवाय उनके जिनके गुब्बारे उस आपा-धापी में फूट चुके थे।

गुरू ने कहा “इस संसार में जहां हर व्यक्ति प्रसन्नता की खोज में है वहाँ सबसे सहज उपाय यही है कि हम अन्य व्यक्तियों को उनकी प्रसन्नता दे दें और फिर कोई आकर हमें हमारी प्रसन्नता दे जाएगा।”
“यदि किसी दूसरे व्यक्ति के कारण मेरा गुब्बारा फूट गया हो, तो क्या करें?” उनमें से एक ने कहा “मेरे पास तो कुछ भी नहीं।”
“एक नया गुब्बारा फुला लो।” गुरू ने उसे एक नया गुब्बारा देते हुए कहा।

संभवतः इससे बेहतर कोई और उदाहरण नहीं जो प्रसन्नता के सार को समझा सके। हम चाहे कितना भी विश्वास करना चाहें कि दूसरों को अप्रसन्न करके हम स्वयं को प्रसन्न रख सकते हैं, परंतु सत्य तो यही है कि दूसरों को दुःख देकर हम स्वयं को कभी प्रसन्न नहीं रख सकते। संभवतः आप अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठ दिखाने में सफल हो जाएं, संभवतः आप दूसरों को दबा भी दें; पर क्या ऐसा करके आप प्रसन्न रह पाएंगे? मुझे तो ऐसा नहीं लगता।

आप बस उन्हें उनकी प्रसन्नता का गुब्बारा दे दें। और, कोई और आकर आप को आप का गुब्बारा दे जाएगा। अन्य व्यक्ति ऐसा न भी करें, तो प्रकृति अवश्य करेगी। ऐसा नहीं है कि वही व्यक्ति आपको आपका गुब्बारा वापस दे किन्तु कोई और व्यक्ति अवश्य देगा। यहाँ आप पूछ सकते हैं कि यदि कोई भी आकर आप को आप का गुब्बारा नहीं देता, तो? आपने उन्हें उनका गुब्बारा दे दिया पर किसी ने भी आकर आप को आप का गुब्बारा नहीं दिया, तब क्या करें?

ऐसी स्थिति में अपना नियत कर्म करते रहें और प्रतीक्षा करें। धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करें। एक ऐसा समय आएगा जब सभी के पास उनके गुब्बारे होंगे और एक गुब्बारा आपके लिए भी बचा होगा। यदि आप किसी दौड़ में भाग नहीं ले रहे हैं, तो फिर किसी भी तनाव या आकुलता का कोई स्थान नहीं है। यदि आप इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि किसी एक को गुब्बारा किसी दूसरे से शीघ्र मिलेगा तो फिर आपको आपका गुब्बारा अभी मिले या बाद में, इससे आप विचलित नहीं होंगे।

इस कहानी में विचार करने योग्य कुछ और भी महत्वपूर्ण बातें हैं - आप अपना गुब्बारा प्राप्त करने की आशा तभी कर सकते हैं जब आपने पहले कभी, कोई भी गुब्बारा फुलाया हो। अपने गुब्बारे के निर्माण के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं। दूसरे आप की प्रसन्नता का सृजन नहीं कर सकते। यह सृजन आप को स्वयं ही करना होगा। अधिक से अधिक वे यही कर सकते हैं कि आप की प्रसन्नता मिलने पर आप को वापस कर दें। परंतु यदि आप का गुब्बारा ही वहाँ नहीं है, ऐसा कुछ जो आप को प्रसन्नता दे सके, तो फिर आप को कोई भी, कैसे प्रसन्नता दे सकता है। दूसरा व्यक्ति तो केवल आप से जुड़ी प्रसन्नता ही आप को वापस कर रहा है। इस बात को अपने अंदर गहरा उतरने दें - वे हमारी प्रसन्नता के गुब्बारे का निर्माण नहीं कर रहे, केवल उसे वापस कर रहे हैं।

और यदि किसी ने आप के गुब्बारे में सुई लगा दी; तो जाएं और अन्य कोई गुब्बारा खोजें। यह बहुत सरल है। उन पर चिल्लाने अथवा उनके प्रति द्वेष रखने का कोई अर्थ नहीं है। यदि वे चाहें तो भी आपके गुब्बारे को पहले जैसा नहीं कर सकते। दुखी होकर या परेशान होकर स्वयं को दण्ड ना दें। फटे हुए गुब्बारे पर जान बूझ कर चिल्लाने का कोई अर्थ नहीं। इससे तो बेहतर है कि धमाके का आनंद लिया जाए। बाहर निकलें और दुनिया देखें। ऐसे बहुत से गुब्बारे हैं जिन्हें आप चुन सकते हैं। प्रसन्नता के अवसरों की कोई कमी नहीं है। इस जीवन में इस संसार में करने के लिए बहुत कुछ है। आप को केवल प्रारंभ करना है। कहीं से भी, कभी भी। या फिर यहीं से- अभी। तुरन्त; एक नयी शुरूआत।

जीवन बहुत शीघ्रता से दौड़ रहा है। हो सकता है, किसी दिन जागने पर आप को लगे कि जीवन के कईं दशक तो यूं ही निकल गये। दूसरों के गुब्बारों में छेद करने में अपना समय व्यर्थ क्यों करें? क्यों पत्थर उठाएं कि उन्होंने हमारा गुब्बारा फोड़ दिया? आप इन सबसे उपर उठें और शुभकर्म के मार्ग पर आगे बढ़ें। जीवन के हर मोड़ पर आपको एक प्रसन्नता का गुब्बारा मिलेगा।

आप उन्हें उनके गुब्बारे देते रहें और आप को अपना गुब्बारा व कोई और जो किसी का भी न हो मिलता रहेगा। किसी भी स्थिति में बेहतर तो यही होगा कि हम अपनी प्रसन्नता के गुब्बारे को फुला लें; इससे पहले कि जीवन का गुब्बारा ही फूट जाए। उसे तो एक दिन फटना ही है।


शांति।
स्वामी

हिमालय सी विशाल अपेक्षाएँ

अपेक्षाएँ क्या हैं, और क्यों प्राय: हर मानवीय दु:ख का वे ही मूल हैं? - एक दृष्टिकोण
आप जानते हैं कि हर कोई एक अदृश्य बोझ लिए हुए है। चूँकि यह अदृश्य है, आप इसके भार से अंजान रहते हैं व इस बात से भी अनभिज्ञ कि यह बोझ बढ़ता ही जा रहा है। जहाँ तक आपकी स्मरण शक्ति जाए वहाँ से अब तक, यह आपकी चेतना पर लदा हुआ है। परिणामस्वरूप, आपने इसे निर्विवादित रूप से स्वीकार कर लिया है, वैसे हो जैसे एक देश में रहने वाला नागरिक वहाँ के कानून मान लेता है। यह एक सुस्पष्ट, मौन एवं सहज स्वीकृति है। यदि अभी भी आप समझ नहीं पाए, तो जानें कि मैं अपेक्षाओं के विशाल बोझ की बात कर रहा हूँ। आप यह मानते होंगे कि आपको कोई अपेक्षा नहीं अथवा आपकी अपेक्षाएँ मूलभूत व वास्तविक हैं। कृपया, निम्नलिखित खंड को पढ़ने के उपरांत, पुन: विचार करें।

अपेक्षाएँ वे इच्छाएँ हैं जिनकी पूर्ति आपको अपना अधिकार प्रतीत होती है। विभिन्न घटकों द्वारा बने आपके अंत:करण के संस्कार, आप में अपेक्षाएँ जगाते हैं। अपेक्षाएँ हर कष्ट, हर तनाव, का मूल कारण हैं। कामनाएँ चिरकाल से आपके साथ बँधे वे विचार हैं, जिन्हें आप छोड़ नहीं पाते, और वे विचार जो लगातार आपके अंत:करण में विद्यमान हैं व आप उनका अनुसरण करते हैं, यही आपके जीवन निर्माण के शिला खंड हैं। आसक्ति के गाढ़े घोल से निर्मित, आप अपने चारों ओर इच्छाओं-कामनाओं की दीवारें खड़ी किए जा रहे हैं और, अंतत:, अपने को इनमें ऐसे क़ैद पाते हैं कि बाहर आने का कोई मार्ग ही नहीं सूझता। यह एक गंभीर विषय है और इस पर मैं फिर कभी लिखूंगा। अभी मैं आज के विषय पर केंद्रित रहूँगा। अपेक्षाएँ आपके जीवन का विनाश कर देती हैं, वहीं इच्छाएँ जीवन को पोषित करती हैं, व विचार जीवन को बनाते हैं। ये सभी मन की उपज हैं, सामान्यत:, एक अस्थिर एवं अज्ञानी मन की। मेरे मतानुसार, अपेक्षाएँ निम्न तीन प्रकार की होती हैं -

स्वयं से अपेक्षाएँ
आपकी शिक्षा, संस्कार, पालन-पोषण, सामाजिक वातावरण व आपका व्यावसायिक जीवन - इन सबका आपको बनाने में महत्वपूर्ण योगदान रहता है। इन सबके आधार पर आप अपने से अपेक्षा रखते हैं कि अन्य लोगों के समक्ष आपको एक विशेष रूप में प्रस्तुत होना है। जो सूचनाएँ व जानकारी, कई रूपों में, आप तक पहुँचती रहती हैं, उसके अनुरूप आपने अपने लिए कुछ मापदंड व मानक तय कर लिए हैं। सामान्यतः, ये जानकारियाँ आपके धर्म, आपकी संगति एवं अन्य सामाजिक व निजी घटकों पर निर्भर होती हैं। यदि आपकी अपने आप से की गई अपेक्षाएँ पूर्ण नहीं होती हैं, तो वे आप में संकोच व कुंठा को जन्म देती हैं। आप बुझा बुझा व उत्पीड़ित सा महसूस करते हैं। एक अविश्वास व अस्वीकृति की भावना से ग्रस्त, आप अपने को अभागा, अत्यंत दुखी व हारा हुआ मानने लग जाते हैं। आपका वास्तविक 'स्व' (स्वरूप) इन सब अपेक्षाओं के बोझ तले दबा रहता है - वे अपेक्षाएँ, जो अधिकांशत: व्यर्थ के प्रदूषित कचरे का ढेर मात्र हैं, उससे अधिक कुछ नहीं। कृपया उन्हें छानें व केवल वही अपेक्षाएँ रखें जो आपकी चेतना को सशक्त व आप को और अधिक संवेदनशील बनाती हों। विचार करें कि आप स्वयं किस प्रकार का इंसान बन कर जीना चाहते हैं, अपितु इसके कि अन्य आपको किस रूप में देखना चाहते हैं। संभवतः आपको अंतर्दृष्टि प्राप्त हो सके।

अन्य लोगों से अपेक्षाएँ
ये वे अपेक्षाएँ हैं जिन्हें आप अपने अधिकार क्षेत्र में मानते हैं और यह ग़लत धारणा बना लेते हैं कि आप इनके लिए योग्य पात्र हैं। ये कुछ भी हो सकती हैं जैसे - पारस्परिक प्रतिदान, प्रेम, वस्तुएँ, शब्द, भाव प्रदर्शन, इत्यादि। आपने जो कुछ भी देखा समझा है, जो कुछ भी आपको बताया या पढ़ाया गया है; और वह सब जो आपके अनुसार आपने जीवन में किया है - इन सब पर आधारित आप अपने लिए एक निश्चित फल की उम्मीद करते हैं, और चाहते हैं कि वह फल आपके अनुकूल ही हो। चूँकि आप मानते हैं कि जो कामना आप कर रहे हैं वह तर्क-संगत, उचित व स्वाभाविक है, इसलिए आपने अपेक्षाओं का बोझ बढ़ा लिया है। ऐसा करके कभी कभी आप अपने साथ उस व्यक्ति पर भी दबाव बना देते हैं जिससे आपने अपेक्षाएँ रखी हुई हैं। जब ये अपेक्षाएँ पूर्ण नहीं हो पाती तो ये उसी अनुपात में आपके दु:ख व असंतोष का कारण बन जाती हैं जिस दृढ़ता से आपने इन्हें पकड़ रखा होता है। कृपया उन व्यक्तियों की एक सूची बनाएँ जिन्हें आप अपना निकटजन व हितैषी मानते हों, और, उन अपेक्षाओं की भी जो आप को इन सबसे हैं। अब आप यह समझ लीजिए कि आपकी सूची में जो कुछ है वही सब अपेक्षाएँ उन लोगों को भी आपसे हैं। आप अपनी अपेक्षाओं को त्याग दें व देखें कि आपकी शुद्ध ऊर्जा के फलस्वरूप वे आपको आपके असल रूप में ही स्वीकार करेंगे व, धीरे धीरे, आप से अपनी अपेक्षाएँ भी कम करते जाएँगे। प्रकृति अपना कार्य इसी प्रकार करती है। आप मेरे कथन पर विश्वास मात्र न करें बल्कि इस पर चलें व स्वयं अनुभव करें व देखें।

दूसरों की आपसे अपेक्षाएँ
ये आपको तनाव देने के लिए रची गई हैं। आप अपने साथियों, वरिष्ठ अधिकारियों, मित्रों व परिवार की ओर से सदा एक दबाव में रहते हैं। आपने अपना भार उन पर लाद रखा है, व उन्होंने आप पर। केवल मूलभूत अपेक्षाओं को छोड़ कर, अन्य संपूर्ण बोझ को फेंका जा सकता है। भले आप उनकी अपेक्षाओं पर पूरे उतरें अथवा नहीं, किंतु उनका अहसास मात्र भी आप पर असर डालने व आपकी पहले से उद्विग्न मन:स्थिति को और व्यथित करने के लिए पर्याप्त है। जब अपने आप से अपेक्षाओं के प्रति आप स्पष्ट हैं और दूसरों से कोई भी अपेक्षा न रखने में आप सफल हो जाते हैं, तब दूसरों को भी आपसे कोई अपेक्षा नहीं रहेगी। यह स्वत: हो जाएगा। आपका नवनिर्मित 'स्व' (व्यक्तित्व) दूसरों को व उनकी अपेक्षाओं को मूक रूप से स्वत: अनुबंधित कर देगा।

आप जीवन में कुछ भी करें, किंतु कभी भी नैतिकता का मार्ग त्याग न करें। यही परम आनंद का आधार है, व सभी सद्गुणों की जननी। एक सदाचार से युक्त जीवन, चाहे जितना व्यस्त या उलझा हुआ क्यों न हो, अंतत: परम शांति में ही परिणित होगा।

गत जून में अपना लेख लिखने के पश्चात मैंने कामाख्या देवी (पूर्वोत्तर भारत, असम) की यात्रा की। मुझे वहाँ एक महत्त्वपूर्ण दीक्षा-संबंधी साधना संपूर्ण करनी थी। वहाँ मुझे विभिन्न बौद्ध-स्थलों के भ्रमण का समय व अवसर प्राप्त हुआ। अधिकांश स्थल जीवंत पर्वत श्रेणियों के रमणीय स्थानों पर बने हुए हैं। वहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य अवरणनीय है। वहाँ के भ्रमण से मेरी निजी धारणाएँ और अभिपुष्ट हुईं कि आध्यात्मिकता को संस्थागत ताना-बना ओढ़ाने का प्रयास सदा उसे अन्य धर्मों की ही भाँति, एक और नये धर्म का रूप दे देगा, जिसका संपूर्ण  बल मान्यताओं के पालन पर ही होगा, न की नये अन्वेषण पर। आध्यात्मिकता पर जब धर्म की छाप लग जाए तब वह निष्प्राण हो जाती है। खोजने नहीं करने में व्यस्त, वहाँ के लामा (बौद्धभिक्षु), सत्य का अन्वेषण न करके, मान्यताओं के आचरण में संलग्न थे।

एक परिभ्रमी तपस्वी के रूप में मैं पूर्वोत्तर हिमालय में विचरता रहा व, अंतत:, सुदूर जंगल में स्थित एक झोंपड़ी में ठहर गया। हालाँकि यह स्थान साधना के मेरे पिछले स्थान की भाँति एकांत तो नहीं था, तथापि यह अत्यंत शांत व सुरम्य था। मैंने वहाँ एक माह लंबी मंत्र-साधना संपन्न की। ओह! क्या परम आनंद था।

मैं क्या बताना चाह रहा हूँ इसे समझने के लिए आपको हिमालय के शांत वातावरण का स्वयं अनुभव करना होगा। ऐसे परम शांत वातावरण में ही आप अपने विचारों की डोर को पकड़ पाएँगे व मन के परमवास्तविक स्वरूप को खोज पाएँगे। वहाँ आप वास्तविक सौंदर्य का परिचय पाते हैं। और, सौंदर्य दृष्टा की निगाह में नहीं, वरन निहारने वाले के मन में विराजित होता है। जितनी उत्तमोत्तम मन की शुद्धता, उतना उत्तमोत्तम सौंदर्य का आभास; और जितना शांत व मौन से भरा मन, उतना दीर्घ कालीन वह अनुभव। एक खाली मन शैतान का घर नहीं होता, वरन भावातुर मन होता है। शून्य-भाव तो वास्तव में दिव्यता का आशीर्वाद होता है।

एक स्थिर व शांत मन, जिसने अपने स्वरूप की खोज संपन्न कर ली हो, वह आपको स्वतंत्र कर देगा। आखिरी बार आपने कब स्वतंत्रता का आभास किया था? संपूर्ण स्वतंत्रता - उस नदी की भाँति जो स्वच्छंद रूप से बहती जाती है; उस वायु की भाँति जिसे बाँधा नहीं जा सकता; उन पक्षियों के जैसे जो सुदूर गगन मैं उड़ते चले जाते हैं, अथवा तो उस भिक्षु की तरह जिसने सभी सांसारिक आडंबर त्याग दिए हों, और जो भय, कुंठा, लज्जा व अन्य मान्यताओं से ऊपर उठ चुका हो जो पहले कभी उसकी चेतना को मलिन कर चुकी हों!

एक अंतिम विचार जो दन्त-प्रक्षालन के दौरान उपजा - 
जीवन एक टूथपेस्ट की ट्यूब के समान है। सर्वप्रथम यह भरी हुई व भरपूर मात्रा में प्रतीत होती है। आरंभिक कुछ दिन के उपयोग में ऐसा ही प्रतीत होता रहता है। उसके पश्चात इसके आकार पर पिचकने का एक निशान बन जाता है। उसके बाद, हर बार दबाने के उपरांत, उस ट्यूब के आकार को पुन: व्यवस्थित करना पड़ता है, यदि आप वस्तुओं को उनके ठीक रूप में ही देखने के अभ्यस्त हैं। अभी आप ट्यूब के अर्ध-भाग तक ही पहुँचे होते हैं कि अब आपको उसे हर बार नीचे से ऊपर की ओर दबाना पड़ता है। शीघ्र ही आप उसके अंतिम छोर तक भी पहुँच जाते हैं। और, जब आपको लगने लगता है कि ट्यूब खाली हो चुकी है, तब उसे और अधिक दबाने से कुछ और बाहर आ जाती है। शायद ही कोई टूथपेस्ट को पूरा खाली कर पाता हो। अंतिम कुछ उपयोग आपको नई टूथपेस्ट क्रय करने का अवसर देते रहते हैं, ताकि आप टूथपेस्ट से पूर्णत: वंचित न हों, चूँकि अब वह उसी प्रकार सपाट हो चुकी है जैसे ऋण में डूबा अथवा अपेक्षाओं से दबा मनुष्य! 

इसी प्रकार, आरंभ में जीवन लंबा, संपूर्ण व समुचित प्रतीत होता है। बाल्यावस्था त्वरित गति से निकल जाती है। तत्पश्चात, अधिकांश समय परस्पर समझौते की स्थिति रहती है, तब, एक दिन, आप स्वयं को आखिरी छोर पर पाते हैं, बहुत परिश्रम से इसे दबाते हुए कि कुछ बाहर आ जाए। किंतु, टूथपेस्ट की ही तरह, जब आप पुरानी काया त्याग देते हैं तो एक नूतन जीवन आपकी प्रतीक्षा कर रहा होता है। जीवन वैसा ही बनता है जैसा आप इसे बनाते हैं। आपके शरीर के अरबों तंतुओं में, हर तंतु के केंद्र में नाभिकीय ऊर्जा विद्यमान है। यह आप के ऊपर निर्भर है कि उसे आप रेडियो-धर्मिता के भय से सुप्तवस्था में ही पड़े रहने दें अथवा उसमें से महान उपयोगी न्यूक्लियर रिऐक्टर का निर्माण कर लें, अथवा तो आपकी नकारात्मक सोच आपसे इसका दुरुपयोग कर भीषण संहार के अणुशस्त्र बनवा डाले।

जाएँ, व आनंद लें। जीवन के आंतरिक सौंदर्य को बाह्य रूप दें, न कि उसकी नकारात्मकता को। अपनी सारी चिंताएँ छोड़ दें चूँकि भाग्य की पुस्तक में जो लिखा है वह तो होकर गुज़रेगा ही। व्यर्थ के जीवन-संघर्ष का त्याग करें। हर एक क्षण को बीतते हुए निहारें। अंत:करण में व्याप्त चिर यौवन सौंदर्य, आनंद व प्रसन्नता से भरपूर अमृत भंडार की खोज करें। अपने जीवन का आनंद अन्य लोगों के साथ मिलकर लें, उस टूथपेस्ट की भाँति जिसे मिल बाँट कर उपयोग किया जाता है; किंतु स्वयं आप अपनी निजता में स्थित रहें, वैसे ही जैसे टूथब्रश, जिसे किसी के साथ साझा नहीं किया जाता।


शांति।
स्वामी

[वस्तुत: एक ईमेल के रूप में लिखा गया और जून २०१४ में संपादित किया गया]

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