प्रसन्नता की तलाश

क्या प्रसन्नता एक यात्रा है अथवा एक गंतव्य? यह आप के दृष्टिकोण पर निर्भर है, और दृष्टिकोण आप की समझ पर निर्भर है।

एक पाठक ने निम्नलिखित प्रश्न किया - 

प्रणाम स्वामीजी,

ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वर ने मेरी प्रार्थना सुन ली (आंशिक रूप से) क्योंकि हमें आप के ब्लॉग को पढ़ने का अवसर मिला। मेरे मन में कुछ प्रश्न हैं -
१. प्रसन्नता क्या है?
२. हम कैसे प्रसन्नता की तलाश करें?
३. प्रसन्नता प्राप्त करने हेतु हमें क्या छोड़ देना चाहिए?
४. प्रसन्नता प्राप्त करने हेतु हमें क्या नहीं छोड़ना चाहिए?

जीवन के इस संकटमय समय में (जो जीवन और मृत्यु का प्रश्न प्रतीत होता है), आप के मार्गदर्शन द्वारा संदेह दूर हो सकते हैं तथा आगे का मार्ग दिख सकता है। 

प्रणाम।

१. अवास्तविक प्रसन्नता बाहरी एवं भौतिक वस्तुओं द्वारा उत्पन्न होती है। वह ऐंद्रिय वासनाओं की संतुष्टि से जुड़ी होती है और इस कारण उसका दूसरा पहलू होता है - दुःख। वास्तविक प्रसन्नता, जिस का अर्थ है आनंद, मन की स्वाभाविक स्थिति है। मन का वास्तविक रूप परम आनंद है।

२. प्रसन्नता प्राप्त करने हेतु आप को सभी इच्छाओं को त्यागना होगा अथवा यदि आप भक्ति के मार्ग पर चलते हैं तो अपने इष्ट देवता के प्रति पूर्ण समर्पण की आवश्यकता है तथा यदि आप ध्यान के मार्ग पर चलते हैं तो अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण की आवश्यकता है। ये तीनों परस्पर भिन्न नहीं हैं। जितना अधिक आप दूसरों की सहायता करते हैं अथवा दान देते हैं उतना अधिक आप को अन्य व्यक्तियों से प्रसन्नता प्राप्त होगी। यह आवश्यक नहीं कि आप जिन व्यक्तियों की सहायता करते हैं वही व्यक्ति आप को प्रसन्नता दें - प्रकृति किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से आप को अत्यधिक प्रसन्नता देते हुए प्रतिदान करेगी। जब आप मन को अपने अंदर की ओर केंद्रित करने में सक्षम हो जाएं तो आप स्वयं को सदैव एक सुख की अवस्था में पाएंगे - सभी सांसारिक समस्याओं एवं साधनों से पूर्ण रूप से अप्रभावित। यह मैं स्वयं के अनुभव से कह रहा हूँ।

३. उन सभी भावनाओं का त्याग करें जो आप को दु:ख देती हैं अथवा जो आप की चेतना एवं संकल्प को निर्बल बनाती हैं। यह अभ्यास के द्वारा किया जा सकता है। यदि आप प्रयास करने के लिए इच्छुक हैं, तो आप परिणाम अवश्य देखेंगे।

४. प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए नैतिकता को कभी ना त्यागें। नैतिकता को त्याग कर प्राप्त किया गया सुख अवास्तविक और भ्रामक होता है।

प्रसन्नता एक व्यक्ति के साथ किया गया कोई पारस्परिक व्यवस्था अथवा समझौता नहीं है। यह व्यवस्था तो भगवान के साथ है। जब आप दूसरों को प्रसन्न करने का निर्णय लेते हैं तो ईश्वर आप को शांति एवं प्रसन्नता का आशीर्वाद देता है। और इन दोनों की आप को आवश्यकता है आत्म बोध अथवा किसी भी आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए।

हरे कृष्ण।
स्वामी


परिवर्तन को स्वीकार करें

जब आप किसी असत्य को जान कर भी उससे जुड़े रहते हैं, तो शीघ्र ही दबाव की नरम धारा अशांति के ज्वार में परिवर्तित हो जाती है।

परिवर्तन नित्य है - यह आप ने बहुधा सुना होगा। परिवर्तन की नित्यता ना केवल बाहर की भौतिक संसार का सत्य है यह आप के भीतर की दुनिया का भी सत्य है। जैसे जैसे आप के विचारों में परिवर्तन आता है, आप का दृष्टिकोण भी परिवर्तित होता है और इस नए दृष्टिकोण के साथ आप को एक नया ज्ञान प्राप्त होता है। इस से स्वत: ही आप की भावनात्मक स्थिति एवं विचारधारा में परिवर्तन आता है तथा आप प्रगति की ओर बढ़ते हैं। परंतु अधिकतर व्यक्ति स्वयं को विकसित नहीं कर पाते और अपने आप को बदल नहीं पाते। वह अपने उसी संसार में उलझे रहते हैं - वही पुरानी समस्याएं, वही पुरानी प्रतिक्रियाएं तथा वही पुरानी शिकायतें। यह इसलिए नहीं क्योंकि वे बदलना नहीं चाहते, किंतु केवल इसलिए क्योंकि वे स्वयं को आंतरिक परिवर्तन से वंचित करते हैं।

जैसे जैसे हमारे जीवन के और वर्ष बीत जाते हैं हम अपने अनुभवों से सीखते हैं तथा हमारी विचारधारा में परिवर्तन आता है। समाज और संसार आप को अपने कुछ विचार बदलने देता है परंतु केवल कुछ विचार, सभी नहीं। उदाहरणार्थ बाल अवस्था में आप को यह बताया जाता है कि सैंटाक्लोज़ वास्तविक हैं। वयस्क होने पर सब यह स्वीकार कर लेते हैं कि सैंटाक्लोज़ एक मिथ्या हैं और वे तो कभी थे ही नहीं - यह सब केवल एक खेल था। आप इसे स्वयं ही जान लेते हैं। आप को अहसास होता है कि आप के माता पिता ने आप के लिए केवल सैंटाक्लोज़ का निर्माण किया था।

आप की स्वयं की खोज आप को शक्ति एवं दृढ़ विश्वास देती है कि सैंटाक्लोज़ किसी के काल्पनिक निर्माण थे। ऐसा क्यों है कि सैंटाक्लोज़ के विषय में यह खोज सहज है? क्योंकि आप को उपहार मिलना बंद हो जाता है, ना कि इसलिए कि आप को वे चिमनी से आते हुए नहीं दिखाई देते! जब भौतिक अभिव्यक्ति अर्थात चमत्कारी रूप से उपहार का आना बंद हो जाता है, आप स्वाभाविक रूप से प्रश्न करते हैं। यदि आप से यह कहा गया होता कि सैंटाक्लोज़ आप को शांति और प्रसन्नता देते हैं, तो उनके अस्तित्व को ठुकराना कठिन ही नहीं लगभग असंभव हो गया होता। क्यों? क्योंकि आप उसे ना तो प्रमाणित कर पाते ना ही उसका खंडन कर पाते।

सबसे अहम विषय यह है कि केवल एक ठोस एवं स्पष्ट भौतिक प्रमाण होने पर ही आप को अपने विश्वास को बदलने की अनुमति दी जाती है। समाज आप को अपने भगवान, धर्म अथवा अनुष्ठानों के विषय में प्रश्न करने की स्वतंत्रता अथवा सहज रूप से उन्हें बदलने की अनुमति नहीं देता। आप में एक अपराध की भावना बिठा दी जाती है तथा आप को ऐसा प्रतीत होता है कि संभवत: आप के विचार और आप का मार्ग अनुचित है। आप के मन में शंका उठती है कि आप को एक नास्तिक नहीं होना चाहिए या आप को अन्य धर्म अथवा विचारधारा की ओर आकर्षित नहीं होना चाहिए। आप से यह आशा रखी जाती है कि आप को अपने भगवान - आप के शिव, यीशु अथवा अल्लाह में ही विश्वास करना चाहिए तथा उस पर प्रश्न करने की अनुमति नहीं दी जाती है। आप पर एक दबाव होता है - एक सूक्ष्म, अहम एवं निरंतर दबाव।

धर्म का विषय केवल एक उदाहरण है। इस प्रकार का व्यवहार हर क्षेत्र में दिखाई देता है -  राजनीतिक दलों, नेताओं, संप्रदायों आदि के चयन में भी। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह एक व्यवहार है। धर्म एक व्यवहार है, जो समय के साथ साथ एक स्वाभाविक व्यवहार बन जाता है। आप के अधिकतर कार्य आप के व्यवहार से ही उत्पन्न होते हैं। और आप का स्वाभाविक व्यवहार केवल प्रतिक्रिया की एक स्वचलित प्रणाली है। आप किस से कितना और कैसे प्रभावित हैं यह प्रणाली उस पर आधारित है। क्या यह अनुचित है? ऐसा नहीं है - आप स्वयं निर्णय करें।

परिवर्तन के विषय में मैं यह कहना चाहूँगा कि यदि आप किसी विचार किसी आस्था को पहले मानते थे परंतु अब उस पर विश्वास नहीं करते हुए भी और उस से असहमत होते हुए भी आप उससे जुड़े रहते हैं, तो आप स्वयं पर अत्यधिक दबाव डाल रहे हैं। यदि आप ऐसे मार्ग पर चलते हैं जिस पर आप विश्वास नहीं करते तो  दबाव की नरम धारा अशांति के ज्वार में परिवर्तित हो जाती है। और यदि आप भीतर से शांत नहीं हैं, तो आप चिढ़ने लगते हैं, क्रोधित एवं दुखी हो जाते हैं, आप तुच्छ विषयों से चिंतित होने लगते हैं। ये लक्षण तब दिखाई देते हैं जब आप अपने भीतर फूटने वाले परिवर्तन के बीज को स्वीकार नहीं करते। जब आप अपने आंतरिक परिवर्तन को समझते हैं तथा उसे स्वीकार करते हैं, तो आप स्वतंत्रता की भावना और हल्केपन की लहर का अनुभव करने लगते हैं।

कोई भी समझदार और बुद्धिमान व्यक्ति लगातार हर समय एक ही विश्वास को पकड़ कर नहीं बैठ सकता। विश्वासों की एक कठोर स्थिरता इस बात का संकेत है कि आप अपने भीतर की आवाज़ को नहीं सुन रहे अथवा उसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं। एक धारणा को पकड़े रखने में और एक धारणा पर विश्वास करने में बहुत अंतर होता है। इसे जानें। विचारधारा में परिवर्तन ना आने की आशा इस सामान्य संसार के सामान्य विचारकों द्वारा आप पर रखा गया एक सामाजिक दबाव है। हमारी दुनिया के निन्यानबे प्रतिशत से ऊपर व्यक्ति इस प्रकार के विचारक होते हैं। यदि आप को विश्वास नहीं होता तो केवल अपनी चारों ओर रहने वाले लोगों को निष्पक्ष रूप से देखें। डेविड वालेस के विचारों की संक्षिप्त व्याख्या यह थी कि जब आप को यह अहसास होगा कि लोग आपके विषय में अधिक नहीं सोचते हैं तब आप इस बात को लेकर कम चिंता करेंगे कि लोग आप के विषय में क्या सोचते होंगे!

सर्दी की एक सुबह, मुल्ला नसरुद्दीन के अतिथि ने उस से कहा, “तुम भाग्यशाली हो कि इस ठंड में तुम्हें बाहर मस्जिद जाने की आवश्यकता नहीं है।” मुल्ला ने कहा “सही कह रहे हो! भगवान का शुक्र है कि इन दिनों मैं एक नास्तिक हूँ।”

आप को जो कुछ भी बांधता है उस का त्याग करें। परिवर्तन से भयभीत ना हों। अपने आप को स्वीकार करें।

शांति।
स्वामी

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