ध्यान और विचार

रारंभ में, विचार ध्यानी को विचलित और अस्थिर करते हैं। दृढ़ता और धैर्य के साथ, कुशल ध्यानी उन को वश में करता है।
हमारा आश्रम सुंदर पहाड़ों से घिरा है। यहाँ एक विस्तृत एवं उथली नदी बहती है। अपने जलमार्ग और प्रवाह के माध्यम से नदी स्वयं को स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर रही है। नदी का उथलापन मुझे उन व्यक्तियों की याद दिलाता है जो भौतिक सुख की प्राप्ति में सतही एवं अगंभीर हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपनी शांति तथा अपने व्यक्तित्व का गाम्भीर्य खो देते हैं।

एक पाठक जिन का आश्रम परियोजना में निस्वार्थ भागीदारी और योगदान रहा, उन्होंने निम्नलिखित प्रश्न किया। कईं व्यक्तियों ने मुझ से इस प्रकार के प्रश्न किए हैं।

प्रभु, क्या आप मन और विचारों को नियंत्रित करने के विषय पर हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं? ये बुमेरांग के समान होते हैं जिसे आप जितनी तीव्रता से भी फेंकें वे वापस आप ही के पास लौट कर आते हैं। विचारों को नियंत्रित करने का जितना भी प्रयास करें वे उतने ही अधिक मात्रा में मन में आते हैं तथा और अधिक अशांति एवं निराशा पैदा करते हैं। आप के अनुसार इन पर विजय पाना सबसे कठिन कार्य है, किंतु यह असंभव नहीं है और जब हम इसे करने में सफल हो जाएं तो अत्यंत आनंद का अनुभव करेंगे।

मन को नियंत्रित करने के कार्य को एकाग्रता कहते हैं। इस प्रकार के नियंत्रण को बनाए रखने की कला को ध्यान कहते हैं। मन को अपने भीतर की ओर केंद्रित कर के मन के साथ ऐक्य प्राप्त करने को समाधी कहते हैं। मन पर नियंत्रण प्राप्त करने से स्वत: ही विचारों की प्रवाह रुक जाती है और इस का विपरीत भी सही है। ऐसा इसलिए क्योंकि मन और विचार अविभाज्य हैं। ये केवल सांकेतिक परिभाषाएँ हैं। भविष्य में मैं इस विषय (ध्यान) पर विस्तार से लिखूँगा। मन की शांति प्राप्त करने हेतु एक दृढ़ एवं उत्सुक प्रयास की आवश्यकता है। अपने ध्यान के स्तर एवं गुणवत्ता को सुधारने के लिए, ध्यान करते समय जब भी आप अपने मन को भटकते हुए पाएं तो आप को उसे वापस अपने ध्यान के केंद्र अथवा ध्यान के विचार पर लाना होगा। यह धीरे से बिना अत्यधिक परिश्रम एवं तनाव के किया जाना चाहिए। अनावश्यक रूप से निरंतर और कठिन प्रयत्न एवं संघर्ष से मन को नियंत्रित करने का प्रयास मन को बेचैन और व्याकुल कर देगा।

बजाय इसके कि आप लंबी अवधि का ध्यान सत्र करने का प्रयास करें जहाँ आप को थकान हो और एकाग्रता में चूक का अनुभव हो, आप ध्यान के छोटी अवधि के अनेक सत्र करें। तीक्ष्ण ध्यान बनाए रखा जाना चाहिए और सत्र की अवधि को नियमित रूप से बढ़ाया जाना चाहिए। साधकों के लिए मैं भविष्य में ध्यान के विषय पर विस्तार से लिखूँगा - ध्यान का मार्ग, पूर्वापेक्षा, प्रथा, कार्यसिद्धि, बाधा तथा परिणाम इन सब पर विवरण दूँगा। तब तक इतना जान लें - एक मन जो समाज से और अन्य व्यक्तियों से प्रभावित हुआ हो उस से विचार उत्पन्न होते हैं। मन की स्वाभाविक अवस्था वास्तव में परम आनंद है - लगभग ऐसी अवस्था मानो मन हो ही नहीं।

जब तक आप अंत तक ना पहुँचें हार ना मानें। यदि आप इस मार्ग पर निष्ठा से और परिश्रमपूर्वक चलते रहें तो आप पर अवश्य ईश्वर की कृपा होगी। कैसे? ध्यान करें और जानें।


शांति।
स्वामी

क्या वास्तव में कष्ट सहना आवश्यक है?

श्रद्धा के दीपक से कष्ट का अंधकार दूर हो जाता है। आप अपनी परिस्थिति को स्पष्ट रूप से समझ पाते हैं।
अनेक व्यक्तियों के साथ नियमित कथन द्वारा तथा विश्व भर के पाठकों के ई-मेल पढ़ कर, मैं ने यह जाना है कि किसी के साथ जब कुछ भी प्रतिकूल घटित होता है सर्वप्रथम उन्हें अविश्वास की भावनाओं का अनुभव होता है। हालांकि प्रत्येक मनुष्य आत्मसंदेह एवं अयोग्यता के उदासीन क्षण अनुभव करता है, परंतु मन ही मन सर्वाधिक व्यक्तियों का यह मत है कि वे अन्य व्यक्तियों से अधिक श्रेष्ठ हैं। उदाहरणार्थ अधिकतर व्यक्ति यह मानते हैं कि वे अपने पति या पत्नी की तुलना में अधिक दानी होते हैं, दूसरों का अधिक ध्यान रखते हैं तथा अपने सहकर्मचारीओं से उत्तम काम करते हैं। इसलिए जब भी उन के साथ कोई अप्रिय घटना होती है तो उन की सर्वप्रथम प्रतिक्रिया यह  होती है कि ऐसा मेरे साथ नहीं हो सकता, मैं इसके योग्य नहीं।

कुछ समय पश्चात, जब आप यह स्वीकार करना आरंभ कर देते हैं कि किसी के साथ भी कुछ भी अप्रिय हो सकता है, मेरे एवं आप के साथ भी, तब एक और प्रश्न मन को परेशान करने लगता है - ऐसा मेरे साथ ही क्यों हुआ? लोगों की पीड़ा की ऐसी बहुत भयानक कथाएं हैं जो हमें वास्तव में यह प्रश्न करने पर विवश कर देते हैं कि उन व्यक्तियों ने भला अपने जीवन में ऐसा क्या किया होगा कि उन को ऐसी कठोर परिस्थिति का सामना करना पड़ रहा है? और यदि उन्होंने कुछ किया भी हो तो क्या प्रकृति अथवा  ईश्वर अथवा सृष्टि उन्हें क्षमा नहीं कर सकती? सत्य तो यह है कि कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं होते। कभी कभी कर्म, आकर्षण एवं प्रत्यक्षीकरण के सिद्धांत सभी विफल हो जाते हैं। हमारे पास मात्र कुछ परिकल्पनाएं, आश्वासन एवं संभावनाएं रह जाती हैं।

मनुष्य सुख एवं प्रसन्नता की प्राप्ति हेतु निरंतर प्रयास करता रहता है तथा उसे सदैव के लिए पकड़ कर रखना चाहता है। किंतु ऐसा करने पर वास्तव में केवल एक वस्तु ही सदैव के लिए रह जाती है, जो इन सब के विपरीत है - कष्ट। आप कुछ समय के लिए भोजन त्याग दें तो आप का शरीर भूख से पीड़ित होने लगता है, रात की निद्रा त्याग दें तो आप थकावट से पीड़ित होने लगते हैं, आप कुछ समय के लिए विश्राम करना त्याग दें तो आप मंद होने लग जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति किसी भी सुख प्राप्ति पर किसी भी प्रकार का छूट देना नहीं चाहती और व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के प्रति उदासीन है। ऐसा क्यों? पीड़ा हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग क्यों है? इससे पहले कि मैं इस विषय पर गहन रूप से चर्चा करूँ चलिए महाभारत से ली गई यह कथा पढ़ें।

युद्ध में विजय प्राप्त करने के पश्चात पांडव आभार प्रकट करने कृष्ण के पास गए। उन कृतज्ञ भाइयों की माता कुंती उन के साथ थीं।
“कृष्ण मैं सदैव अपनी समस्याओं का भार ले कर आप के पास आती हूँ”, कुंती ने कहा । "आप की कृपा एवं आशीर्वाद के बदले में मैं ने आप को कुछ नहीं दिया है। एक भिक्षुक के समान मैं ने ग्रहण और केवल ग्रहण ही किया है। मुझे यह ज्ञात है कि मैं आप को कुछ नहीं दे सकती। पहले से ही आप के पास सब कुछ है, वास्तव में आप स्वयं ही सब कुछ हैं। मैं आप को जो कुछ भी अर्पण करूँ वह सूर्य को दीपक दिखाने के समान होगा।”

कुंती का हाथ पकड़ कर, कृष्ण ने कहा, “आप को मेरा आभार प्रकट करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं तो केवल धर्म के मार्ग पर चल रहा था। मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ कि आप पुन: राजमाता बनेंगी।”
“किंतु मैं अब भी सुखी नहीं हूँ कृष्ण, क्योंकि मुझे भय है। आज भी मैं आभार व्यक्त करने नहीं आई हूँ, किंतु एक अंतिम कामना लेकर आई हूँ।”
कृष्ण हस्ते हुए अपने स्थान पर स्थित रहे और शांति एवं आतुरता से कुंती को देखते रहे।
कुंती ने कहा, “मुझे तीव्र असुरक्षा की भावनाओं का अनुभव हो रहा है। दुखों एवं समस्याओं के साथ निरंतर संघर्ष करते करते, मेरे जीवन की प्रत्येक महत्वपूर्ण वस्तु तथा व्यक्ति नष्ट हो गए हैं। मैं ने अपना अधिकतर जीवन भय के साथ जिया है क्योंकि जीवन में आनंद के क्षण अस्थायी तथा अल्प थे। और अब अंत में प्रसन्नता और सुख जब मेरे द्वार पर आ खड़े हैं, मुझे यह भय है कि इस आनंद एवं उत्साह की अवस्था में मुझे कहीं आप का विस्मरण ना हो जाए। इसलिए हे कृष्ण मैं आप से बिनती करती हूँ कि मेरे कष्ट को दूर ना करें ताकि मैं सदैव आप का स्मरण करती रहूँ। मैं आप को खो देना नहीं चाहती।”

सुख एवं दुख में, हमारी प्रार्थना की रचना ऐसी की गई है कि हम ईश्वर को उस की कृपा के बदले में कुछ नहीं देते। वास्तव में हम कुछ दे भी नहीं सकते। प्रार्थना का लक्ष्य यह होता है कि ईश्वर के साथ हमारा बंधन अखंड रहे। जिस प्रकार एक बालिका अपनी माँ के लिए रोती है और जिस प्रकार एक मछली जितना भी ऊँचा कूदे किंतु वापस फिर पानी में ही लौट कर आती है वैसे ही हमारे दुख हमें ईश्वर के साथ, प्रकृति के साथ तथा एक दूसरों से जोड़ के रखते हैं।

यद्यपि किसी को भी अपने जीवन में कष्ट की अभिलाषा नहीं होती, कुंती माता को भी नहीं, किंतु अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति द्वार उन्होंने हमें मानव अस्तित्व का सत्य दिखाया है। कष्ट द्वारा आप अपने मूल स्रोत के साथ जुड़े रहते हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि हमें और अधिक दुख माँगने चारों ओर जाना चाहिए (वैसे भी आप ऐसा कदापि नहीं करेंगे), किंतु मैं यह संकेत कर रहा हूँ कि पीड़ा को किसी अन्य दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है। जैसे कि कोई ऋतु के समान जो समय के साथ चली जाती है। “में पीड़ा के योग्य नहीं हूँ” यह वाक्य प्रकृति नहीं समझती। “ऐसा मेरे साथ ही क्यों हुआ” यह एक ऐसा प्रश्न है जिस का उत्तर प्रकृति नहीं देती। इसलिए, यदि हम वास्तव में पीड़ा की अनुभूति से उपर उठने की इच्छा रखते हैं, तो हमें पीड़ा के किसी और पहलू की ओर ध्यान देना होगा।

ऐसा ही एक दृष्टिकोण है शक्ति। पीड़ा हमें जो शक्ति प्रदान करती है, सुख हमें वह कदापि नहीं दे सकता। पीड़ा आप से गहन परिश्रम कराते कराते आप को प्रबल बनाती है जब कि सुख आप को विश्राम की अवस्था में डाल देता है। पीड़ा वह प्रखर सूर्य है जिस के कारण आप शीतलता के मूल्य को जान ने लगते हैं। कष्ट एक ठंडी रात्रि है जिस के कारण हम सूर्य की कामना करते हैं। वह हमें वास्तविकता के जोड़े रखता है। यदि आप ईश्वर पर विश्वास करते हैं, तो पीड़ा आप की प्रार्थना की सत्यता बढ़ाती है। वह आप के और ईश्वर के व्यक्तिगत संबंध को भक्ति से भर देती है। और पीड़ा हमें भूमि पर टिकाए रखती है, वह हमें विनम्र बनाती है। मेरा मानना है कि विनम्रता एक सार्थक एवं संतोषमय जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंश है। जब आप कष्ट का अनुभव करते हैं तब आप के भीतर कुछ सदैव के लिए बदल जाता है। आप और अधिक दृढ़, बुद्धिमान, कृतज्ञ एवं सहानुभूतिशील बन जाते हैं।

मैं इस बात से पूर्ण रूप से सहमत हूँ कि आप को अनावश्यक रूप से पीड़ा को निमंत्रण देने की तथा जीवन की प्रशंसा करने के लिए अभावपूर्ण जीवन जीने की कोई आवश्यकता नहीं है। वैसे भी पीड़ा कोई ऐसी अतिथि नहीं जिसे निमंत्रण की आवश्यकता हो। किंतु वह जब भी आप के जीवन में आती है, जो वह नित्य रूप से आएगी, तब आप को केवल धीरज एवं शांति से उस का सामना करना होगा। आप ना उसके साथ लड़ सकते हैं और ना उसे भगा सकते हैं। आप को केवल धैर्य से उसे सहना होगा। आत्मा की ऐसी अंधेरी रात्री में श्रद्धा का दीपक जलाएं। समर्पण उस दिये की बाती है ओर भक्ति उसका तेल। फिर पीड़ा संपूर्ण कमरे में नहीं फैलेगी, केवल कुछ क्षण के लिए कुछ कोनों में ही रहेगी।

हर परिस्थिति में कृतज्ञ बने रहें क्योंकि कृतज्ञता कष्ट का मारक है। वह आप को उन्नत समय में भी नम्र एवं सशक्त बनाये रखती है। कृतज्ञता की उपस्थिति में कष्ट भाग जाता है; उनका सहवर्ती होना असंभव है। संभवत: थोड़ी पीड़ा वहाँ रह जाएगी किंतु कृतज्ञता का मलहम धीरे धीरे पीड़ा के घाव को भर देता है। जैसे की महात्मा बुद्ध ने कहा है - पीड़ा अनिवार्य है किंतु दु:ख स्वैच्छिक है

हमारी जो वस्तु नष्ट हो गयी हो उसे खोजने के प्रयत्न में हमारे पास जो वस्तु है कहीं हम उसे ना नष्ट कर दें।


शांति।
स्वामी

अनुशासन की कला

दृढ़ता और अनुशासन के द्वारा असंभव भी संभव हो जाता है। मानव जाति की प्रगति का यही कारण है।
यदि इस विश्व में जन्मे सबसे प्रसिद्ध एवं सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों को देखा जाए - सबसे प्रभावशाली नेता, महान विचारक, सर्वोत्तम दार्शनिक तथा अन्वेषक, तो संभवतः आप उन सब के जीवन में एक मूलतत्त्व पाएंगे - अनुशासन। उन सब ने अत्यधिक अनुशासन का जीवन जिया। अनुशासन वह कला है जिस के द्वारा आप अपने निर्धारित पथ पर चलते हैं, अपने बनाए गए योजनाओं का पालन करते हैं तथा अपने मन को नियंत्रण में रखते हैं। यह एक कौशल है।

बहुधा लोग मुझसे कहते हैं कि वे कुछ करना चाहते हैं - वजन कम करना चाहते हैं, धूम्रपान या शराब त्यागना चाहते हैं, मेहनत से पढ़ाई करना चाहते हैं, ध्यान करना चाहते हैं, एक बेहतर नौकरी ढूंढना चाहते हैं आदि। यह सुन कर मैं मन ही मन हँसने लगता हूँ। मैं केवल एक ही बात सुनता हूँ - “मैं चाहता हूँ”। इस में कोई संदेह नहीं कि आप कुछ चाहते हैं। यह तो अच्छी एवं सरल बात है। यह कोई विशेष विषय नहीं। एक कुत्ता स्नेह चाहता है, अधिकतर व्यक्ति धन चाहते हैं, सभी सम्मान चाहते हैं, कुछ स्नेह चाहते हैं, कुछ मैत्री तथा कुछ व्यक्ति सब कुछ चाहते हैं। यदि आप वास्तव में अपनी इच्छाओं की पूर्ती करना चाहते हैं तो आप को उस के अनुसार कार्य करना होगा। यदि आप उन इच्छाओं के लिए परिश्रम नहीं करते हैं तो आप की इच्छाएं केवल सपने बन कर ही रह जाएंगी और उनकी पूर्ती लगभग असंभव है। किंतु यदि आप अपने मन को कर्म के मार्ग में लगाएं तो हर प्रकार के सपनों की पूर्ती संभव है।

विडंबना यह है कि अनुशासन आप को मुक्त करता है। यह आप को स्वतंत्रता प्रदान करता है - कुछ भी करने की स्वतंत्रता, कुछ भी प्राप्त करने की स्वतंत्रता, कुछ भी बन जाने की स्वतंत्रता। जो व्यक्ति अनुशासित रूप से जीते हैं उन्हें स्वत: ही विद्या, ज्ञान एवं सफलता प्राप्त होती है। आइंस्टीन ने कहा - “ऐसा नहीं है कि मैं अधिक बुद्धिमान हूँ। मैं केवल समस्याओं का हल ढूंढने के विषय में और समय बिताता हूँ।” अनुशासन के लिए विश्वास भरी दृढ़ता की आवश्यकता है। आप को पसंद हो या ना हो उस की चिंता करे बिना यदि आप अपने चुने हुए मार्ग पर चलते रहें तो वह वास्तव में अनुशासन है। यदि आप सकारात्मक हो कर अपने मार्ग को पसंद करने की विधि जान लें तो अनुशासित रूप से जीना सहज हो जाता है। 

मान लें आप अपना वजन कम करना चाहते हैं, परंतु आप को व्यायाम से घृणा है और मिठाईयाँ आप को बहुत प्रिय हैं। आप को यह समझना है कि व्यायाम में रुचि होना आवश्यक नहीं। उस विषय में सोचे बिना आप को अपने पथ पर आगे बढ़ते जाना है। चेतन मन एक हठी बालक के समान होता है। हो सकता है वह अपने माता-पिता की उपस्थिति में उद्दंड एवं अवज्ञाकारी हो जाए। किंतु जब वही बालक अपने मित्र के घर जाता है तो उस का व्यवहार सभ्य हो जाता है। उसे पता है कि वहाँ कोई भी उस का हठीला व्यवहार नहीं सहेगा। आप के मन का आचरण भी कुछ ऐसा ही है - यदि आप उस की अवज्ञा को सहना बंद कर दें तो वह अपने आप सही राह पर आ जाता है। मन को अनुशासित करना आप की अपनी व्यक्तिगत समस्या है और केवल आप स्वयं ही उस को सुलझा सकते हैं।

आप सुबह उठते हैं, तैयार हो कर काम पर जाते हैं और वहाँ अपना पूरा दिन बिताते हैं। चाहे आप को पसंद हो या ना हो, आप में काम करने की प्रेरणा हो या ना हो आप फिर भी काम करते हैं क्योंकि आप को यह पता है कि काम करना आवश्यक है। आप के मन को संभवत: यह पसंद नहीं है परंतु एक हद से अधिक वह शिकायत नहीं करता। वह जानता है कि आप उसे कोई विकल्प नहीं दे रहे हैं। यही जीवन के हर पहलू पर लागू होता है। यदि आप कुछ करना चाहते हैं, तो आप को अपने चुने हुए मार्ग पर आगे बढ़ते जाना होगा। अनुशासन के साथ आगे बढ़ते हुए जब आप को अनुकूल परिणाम प्राप्त होने लगते हैं तो आप और अधिक प्रेरित एवं उत्साही हो जाते हैं।

चाहे आप जितना भी नकारात्मक हों और आप को सफलता की संभावना अत्यंत कम प्रतीत हो फिर भी यदि आप अनुशासन का पालन करें तो आप को अवश्य सफलता प्राप्त होगी। निस्संदेह!

मुझे अरस्तू के शब्द याद आते हैं - “मानव अपनी परिस्थिति को बेहतर बनाने के लिए उत्सुक है, परंतु स्वयं को बेहतर बनाने के लिए तैयार नहीं है।”

आप को जब भी आलस महसूस हो अथवा आप के मन में जब भी अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने की इच्छा आए, तो आप को इस विषय में चिंतन करना चाहिए कि उसे सिद्ध करने हेतु आप को क्या करना होगा। फिर आप को डट कर निश्चित रूप से आगे बढ़ना चाहिए। आप की वर्तमान परिस्थिति आप के कर्मों, इच्छाओं, भावनाओं, मान्यताओं और मिथ्या धारणाओं का ही परिणाम है। स्वयं को परिवर्तित करने के लिए आप को या तो इन सब में परिवर्तन लाना होगा अथवा आप इन सब की जड़ अर्थात अपने मन अपने विचारों को बदल सकते हैं।

सफलता के समान अनुशासन भी एक प्रबल लत है।

हाँ और मैं यह अवश्य कहना चाहूँगा कि अनुशासन से मेरा अर्थ केवल आत्म अनुशासन है। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आप दूसरों को अनुशासित करने लगें।

उठें और आगे बढ़ें! अपने कर्म पर और अपने चुने हुए मार्ग पर ध्यान दें। अपनी पसंद को अपने कार्यों के मार्ग में ना आने दें। दिवास्वप्न देखना और शिकायत करना बंद करें। यदि आप अपने भाग्य का निर्माण नहीं कर सकते, तो कोई भी आप के लिए यह कार्य नहीं कर सकता।


शांति।
स्वामी

प्रसन्नता का गुब्बारा

आज के युग में कैसे प्रसन्न रहा जाए? जानने के लिए यह लेख पढ़ें - दार्शनिक किंतु सत्य से परे नहीं।
एक समय एक आश्रम में एक गुरू के सैकड़ों शिष्य एकत्रित हुए। वे वहाँ अपने गुरू की एक झलक पाने, उनके ज्ञानपूर्ण वचन को सुनने और ध्यान आदि सीखने के लिए एकत्रित हुए थे। विशेषत: वे सभी यह जानना चाहते थे कि इस तनावपूर्ण संसार में प्रसन्न कैसे रहा जाए। क्या ऐसा कोई मार्ग है भी?

गुरू ने उनके प्रश्नों को धैर्यपूर्वक सुना और फिर ‘प्रसन्नता’ पर अपना व्याख्यान आरंभ किया। अपने प्रवचन के बीच में वे रुके और अपने पाँच सौ अनुयाइयों में प्रत्येक को एक गुब्बारा दिया।

उन्होंने कहा “यह प्रसन्नता का गुब्बारा है। इसे फुला कर इस पर अपना नाम लिख दो।”

उन्हें कुछ पेन वितरित किए गए जिससे नाम लिखे जा सकें।

नाम लिखने के पश्चात गुरू ने कहा “अपने गुब्बारों को पास के खाली कमरे में जा कर रख दें।”

“मुझे पता है यहाँ क्या होने वाला है”, एक शिष्य ने कहा। “थोड़ी देर में या तो गुब्बारे फूट जाएंगे या वे स्वयं ही पिचक जाएंगे। प्रसन्नता भी कुछ कुछ ऐसी ही होती है। वह ठहरती नहीं। वह जितनी अधिक मात्रा में होगी उतनी ही शीघ्र नष्ट हो जाएगी। हमें इसे बहुत संभाल कर रखना होगा।”

गुरू उस जिज्ञासु शिष्य की ओर देख कर मुस्कुराए और इशारे से उसे उनके निर्देश का पालन करने को कहा। एक-एक करके उन सभी ने अपने गुब्बारे कमरे में रख दिए और वापस आकर अपने स्थान पर बैठ गए।

जब सभी अपने स्थान पर बैठ गए, तो गुरू ने कहा “जाइये और अपने नाम का गुब्बारा लेकर यहाँ वापस आ जाइये।”

सभी उठे और अपना गुब्बारा लेने के लिए दूसरे कमरे की ओर भागे। आखिर वह “प्रसन्नता” का गुब्बारा था। शीघ्र ही गुब्बारे फटने की आवाजें आने लगीं। बहस शोरगुल सुनायी पडने लगा क्योंकि हर व्यक्ति पागलों की तरह अपना गुब्बारा खोज रहा था। पांच मिनट पश्चात केवल कुछ ही व्यक्तियों को अपना गुब्बारा मिल सका, वह भी संयोगवश।

गुरू ने उन सभी को रोकते हुए कहा कि कोई भी एक गुब्बारा चाहे उस पर कोई भी नाम लिखा हो ले आएं। कुछ ही समय में हर व्यक्ति एक-एक गुब्बारे के साथ कमरे में उपस्थित था।

गुरू ने कहा “अब गुब्बारे पर लिखा नाम पुकारें और वह जिस व्यक्ति का है उसे दे दें।”

शीघ्र ही हर व्यक्ति के हाथ में उनका गुब्बारा था, सिवाय उनके जिनके गुब्बारे उस आपा-धापी में फूट चुके थे।

गुरू ने कहा “इस संसार में जहां हर व्यक्ति प्रसन्नता की खोज में है वहाँ सबसे सहज उपाय यही है कि हम अन्य व्यक्तियों को उनकी प्रसन्नता दे दें और फिर कोई आकर हमें हमारी प्रसन्नता दे जाएगा।”
“यदि किसी दूसरे व्यक्ति के कारण मेरा गुब्बारा फूट गया हो, तो क्या करें?” उनमें से एक ने कहा “मेरे पास तो कुछ भी नहीं।”
“एक नया गुब्बारा फुला लो।” गुरू ने उसे एक नया गुब्बारा देते हुए कहा।

संभवतः इससे बेहतर कोई और उदाहरण नहीं जो प्रसन्नता के सार को समझा सके। हम चाहे कितना भी विश्वास करना चाहें कि दूसरों को अप्रसन्न करके हम स्वयं को प्रसन्न रख सकते हैं, परंतु सत्य तो यही है कि दूसरों को दुःख देकर हम स्वयं को कभी प्रसन्न नहीं रख सकते। संभवतः आप अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठ दिखाने में सफल हो जाएं, संभवतः आप दूसरों को दबा भी दें; पर क्या ऐसा करके आप प्रसन्न रह पाएंगे? मुझे तो ऐसा नहीं लगता।

आप बस उन्हें उनकी प्रसन्नता का गुब्बारा दे दें। और, कोई और आकर आप को आप का गुब्बारा दे जाएगा। अन्य व्यक्ति ऐसा न भी करें, तो प्रकृति अवश्य करेगी। ऐसा नहीं है कि वही व्यक्ति आपको आपका गुब्बारा वापस दे किन्तु कोई और व्यक्ति अवश्य देगा। यहाँ आप पूछ सकते हैं कि यदि कोई भी आकर आप को आप का गुब्बारा नहीं देता, तो? आपने उन्हें उनका गुब्बारा दे दिया पर किसी ने भी आकर आप को आप का गुब्बारा नहीं दिया, तब क्या करें?

ऐसी स्थिति में अपना नियत कर्म करते रहें और प्रतीक्षा करें। धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करें। एक ऐसा समय आएगा जब सभी के पास उनके गुब्बारे होंगे और एक गुब्बारा आपके लिए भी बचा होगा। यदि आप किसी दौड़ में भाग नहीं ले रहे हैं, तो फिर किसी भी तनाव या आकुलता का कोई स्थान नहीं है। यदि आप इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि किसी एक को गुब्बारा किसी दूसरे से शीघ्र मिलेगा तो फिर आपको आपका गुब्बारा अभी मिले या बाद में, इससे आप विचलित नहीं होंगे।

इस कहानी में विचार करने योग्य कुछ और भी महत्वपूर्ण बातें हैं - आप अपना गुब्बारा प्राप्त करने की आशा तभी कर सकते हैं जब आपने पहले कभी, कोई भी गुब्बारा फुलाया हो। अपने गुब्बारे के निर्माण के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं। दूसरे आप की प्रसन्नता का सृजन नहीं कर सकते। यह सृजन आप को स्वयं ही करना होगा। अधिक से अधिक वे यही कर सकते हैं कि आप की प्रसन्नता मिलने पर आप को वापस कर दें। परंतु यदि आप का गुब्बारा ही वहाँ नहीं है, ऐसा कुछ जो आप को प्रसन्नता दे सके, तो फिर आप को कोई भी, कैसे प्रसन्नता दे सकता है। दूसरा व्यक्ति तो केवल आप से जुड़ी प्रसन्नता ही आप को वापस कर रहा है। इस बात को अपने अंदर गहरा उतरने दें - वे हमारी प्रसन्नता के गुब्बारे का निर्माण नहीं कर रहे, केवल उसे वापस कर रहे हैं।

और यदि किसी ने आप के गुब्बारे में सुई लगा दी; तो जाएं और अन्य कोई गुब्बारा खोजें। यह बहुत सरल है। उन पर चिल्लाने अथवा उनके प्रति द्वेष रखने का कोई अर्थ नहीं है। यदि वे चाहें तो भी आपके गुब्बारे को पहले जैसा नहीं कर सकते। दुखी होकर या परेशान होकर स्वयं को दण्ड ना दें। फटे हुए गुब्बारे पर जान बूझ कर चिल्लाने का कोई अर्थ नहीं। इससे तो बेहतर है कि धमाके का आनंद लिया जाए। बाहर निकलें और दुनिया देखें। ऐसे बहुत से गुब्बारे हैं जिन्हें आप चुन सकते हैं। प्रसन्नता के अवसरों की कोई कमी नहीं है। इस जीवन में इस संसार में करने के लिए बहुत कुछ है। आप को केवल प्रारंभ करना है। कहीं से भी, कभी भी। या फिर यहीं से- अभी। तुरन्त; एक नयी शुरूआत।

जीवन बहुत शीघ्रता से दौड़ रहा है। हो सकता है, किसी दिन जागने पर आप को लगे कि जीवन के कईं दशक तो यूं ही निकल गये। दूसरों के गुब्बारों में छेद करने में अपना समय व्यर्थ क्यों करें? क्यों पत्थर उठाएं कि उन्होंने हमारा गुब्बारा फोड़ दिया? आप इन सबसे उपर उठें और शुभकर्म के मार्ग पर आगे बढ़ें। जीवन के हर मोड़ पर आपको एक प्रसन्नता का गुब्बारा मिलेगा।

आप उन्हें उनके गुब्बारे देते रहें और आप को अपना गुब्बारा व कोई और जो किसी का भी न हो मिलता रहेगा। किसी भी स्थिति में बेहतर तो यही होगा कि हम अपनी प्रसन्नता के गुब्बारे को फुला लें; इससे पहले कि जीवन का गुब्बारा ही फूट जाए। उसे तो एक दिन फटना ही है।


शांति।
स्वामी

हिमालय सी विशाल अपेक्षाएँ

अपेक्षाएँ क्या हैं, और क्यों प्राय: हर मानवीय दु:ख का वे ही मूल हैं? - एक दृष्टिकोण
आप जानते हैं कि हर कोई एक अदृश्य बोझ लिए हुए है। चूँकि यह अदृश्य है, आप इसके भार से अंजान रहते हैं व इस बात से भी अनभिज्ञ कि यह बोझ बढ़ता ही जा रहा है। जहाँ तक आपकी स्मरण शक्ति जाए वहाँ से अब तक, यह आपकी चेतना पर लदा हुआ है। परिणामस्वरूप, आपने इसे निर्विवादित रूप से स्वीकार कर लिया है, वैसे हो जैसे एक देश में रहने वाला नागरिक वहाँ के कानून मान लेता है। यह एक सुस्पष्ट, मौन एवं सहज स्वीकृति है। यदि अभी भी आप समझ नहीं पाए, तो जानें कि मैं अपेक्षाओं के विशाल बोझ की बात कर रहा हूँ। आप यह मानते होंगे कि आपको कोई अपेक्षा नहीं अथवा आपकी अपेक्षाएँ मूलभूत व वास्तविक हैं। कृपया, निम्नलिखित खंड को पढ़ने के उपरांत, पुन: विचार करें।

अपेक्षाएँ वे इच्छाएँ हैं जिनकी पूर्ति आपको अपना अधिकार प्रतीत होती है। विभिन्न घटकों द्वारा बने आपके अंत:करण के संस्कार, आप में अपेक्षाएँ जगाते हैं। अपेक्षाएँ हर कष्ट, हर तनाव, का मूल कारण हैं। कामनाएँ चिरकाल से आपके साथ बँधे वे विचार हैं, जिन्हें आप छोड़ नहीं पाते, और वे विचार जो लगातार आपके अंत:करण में विद्यमान हैं व आप उनका अनुसरण करते हैं, यही आपके जीवन निर्माण के शिला खंड हैं। आसक्ति के गाढ़े घोल से निर्मित, आप अपने चारों ओर इच्छाओं-कामनाओं की दीवारें खड़ी किए जा रहे हैं और, अंतत:, अपने को इनमें ऐसे क़ैद पाते हैं कि बाहर आने का कोई मार्ग ही नहीं सूझता। यह एक गंभीर विषय है और इस पर मैं फिर कभी लिखूंगा। अभी मैं आज के विषय पर केंद्रित रहूँगा। अपेक्षाएँ आपके जीवन का विनाश कर देती हैं, वहीं इच्छाएँ जीवन को पोषित करती हैं, व विचार जीवन को बनाते हैं। ये सभी मन की उपज हैं, सामान्यत:, एक अस्थिर एवं अज्ञानी मन की। मेरे मतानुसार, अपेक्षाएँ निम्न तीन प्रकार की होती हैं -

स्वयं से अपेक्षाएँ
आपकी शिक्षा, संस्कार, पालन-पोषण, सामाजिक वातावरण व आपका व्यावसायिक जीवन - इन सबका आपको बनाने में महत्वपूर्ण योगदान रहता है। इन सबके आधार पर आप अपने से अपेक्षा रखते हैं कि अन्य लोगों के समक्ष आपको एक विशेष रूप में प्रस्तुत होना है। जो सूचनाएँ व जानकारी, कई रूपों में, आप तक पहुँचती रहती हैं, उसके अनुरूप आपने अपने लिए कुछ मापदंड व मानक तय कर लिए हैं। सामान्यतः, ये जानकारियाँ आपके धर्म, आपकी संगति एवं अन्य सामाजिक व निजी घटकों पर निर्भर होती हैं। यदि आपकी अपने आप से की गई अपेक्षाएँ पूर्ण नहीं होती हैं, तो वे आप में संकोच व कुंठा को जन्म देती हैं। आप बुझा बुझा व उत्पीड़ित सा महसूस करते हैं। एक अविश्वास व अस्वीकृति की भावना से ग्रस्त, आप अपने को अभागा, अत्यंत दुखी व हारा हुआ मानने लग जाते हैं। आपका वास्तविक 'स्व' (स्वरूप) इन सब अपेक्षाओं के बोझ तले दबा रहता है - वे अपेक्षाएँ, जो अधिकांशत: व्यर्थ के प्रदूषित कचरे का ढेर मात्र हैं, उससे अधिक कुछ नहीं। कृपया उन्हें छानें व केवल वही अपेक्षाएँ रखें जो आपकी चेतना को सशक्त व आप को और अधिक संवेदनशील बनाती हों। विचार करें कि आप स्वयं किस प्रकार का इंसान बन कर जीना चाहते हैं, अपितु इसके कि अन्य आपको किस रूप में देखना चाहते हैं। संभवतः आपको अंतर्दृष्टि प्राप्त हो सके।

अन्य लोगों से अपेक्षाएँ
ये वे अपेक्षाएँ हैं जिन्हें आप अपने अधिकार क्षेत्र में मानते हैं और यह ग़लत धारणा बना लेते हैं कि आप इनके लिए योग्य पात्र हैं। ये कुछ भी हो सकती हैं जैसे - पारस्परिक प्रतिदान, प्रेम, वस्तुएँ, शब्द, भाव प्रदर्शन, इत्यादि। आपने जो कुछ भी देखा समझा है, जो कुछ भी आपको बताया या पढ़ाया गया है; और वह सब जो आपके अनुसार आपने जीवन में किया है - इन सब पर आधारित आप अपने लिए एक निश्चित फल की उम्मीद करते हैं, और चाहते हैं कि वह फल आपके अनुकूल ही हो। चूँकि आप मानते हैं कि जो कामना आप कर रहे हैं वह तर्क-संगत, उचित व स्वाभाविक है, इसलिए आपने अपेक्षाओं का बोझ बढ़ा लिया है। ऐसा करके कभी कभी आप अपने साथ उस व्यक्ति पर भी दबाव बना देते हैं जिससे आपने अपेक्षाएँ रखी हुई हैं। जब ये अपेक्षाएँ पूर्ण नहीं हो पाती तो ये उसी अनुपात में आपके दु:ख व असंतोष का कारण बन जाती हैं जिस दृढ़ता से आपने इन्हें पकड़ रखा होता है। कृपया उन व्यक्तियों की एक सूची बनाएँ जिन्हें आप अपना निकटजन व हितैषी मानते हों, और, उन अपेक्षाओं की भी जो आप को इन सबसे हैं। अब आप यह समझ लीजिए कि आपकी सूची में जो कुछ है वही सब अपेक्षाएँ उन लोगों को भी आपसे हैं। आप अपनी अपेक्षाओं को त्याग दें व देखें कि आपकी शुद्ध ऊर्जा के फलस्वरूप वे आपको आपके असल रूप में ही स्वीकार करेंगे व, धीरे धीरे, आप से अपनी अपेक्षाएँ भी कम करते जाएँगे। प्रकृति अपना कार्य इसी प्रकार करती है। आप मेरे कथन पर विश्वास मात्र न करें बल्कि इस पर चलें व स्वयं अनुभव करें व देखें।

दूसरों की आपसे अपेक्षाएँ
ये आपको तनाव देने के लिए रची गई हैं। आप अपने साथियों, वरिष्ठ अधिकारियों, मित्रों व परिवार की ओर से सदा एक दबाव में रहते हैं। आपने अपना भार उन पर लाद रखा है, व उन्होंने आप पर। केवल मूलभूत अपेक्षाओं को छोड़ कर, अन्य संपूर्ण बोझ को फेंका जा सकता है। भले आप उनकी अपेक्षाओं पर पूरे उतरें अथवा नहीं, किंतु उनका अहसास मात्र भी आप पर असर डालने व आपकी पहले से उद्विग्न मन:स्थिति को और व्यथित करने के लिए पर्याप्त है। जब अपने आप से अपेक्षाओं के प्रति आप स्पष्ट हैं और दूसरों से कोई भी अपेक्षा न रखने में आप सफल हो जाते हैं, तब दूसरों को भी आपसे कोई अपेक्षा नहीं रहेगी। यह स्वत: हो जाएगा। आपका नवनिर्मित 'स्व' (व्यक्तित्व) दूसरों को व उनकी अपेक्षाओं को मूक रूप से स्वत: अनुबंधित कर देगा।

आप जीवन में कुछ भी करें, किंतु कभी भी नैतिकता का मार्ग त्याग न करें। यही परम आनंद का आधार है, व सभी सद्गुणों की जननी। एक सदाचार से युक्त जीवन, चाहे जितना व्यस्त या उलझा हुआ क्यों न हो, अंतत: परम शांति में ही परिणित होगा।

गत जून में अपना लेख लिखने के पश्चात मैंने कामाख्या देवी (पूर्वोत्तर भारत, असम) की यात्रा की। मुझे वहाँ एक महत्त्वपूर्ण दीक्षा-संबंधी साधना संपूर्ण करनी थी। वहाँ मुझे विभिन्न बौद्ध-स्थलों के भ्रमण का समय व अवसर प्राप्त हुआ। अधिकांश स्थल जीवंत पर्वत श्रेणियों के रमणीय स्थानों पर बने हुए हैं। वहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य अवरणनीय है। वहाँ के भ्रमण से मेरी निजी धारणाएँ और अभिपुष्ट हुईं कि आध्यात्मिकता को संस्थागत ताना-बना ओढ़ाने का प्रयास सदा उसे अन्य धर्मों की ही भाँति, एक और नये धर्म का रूप दे देगा, जिसका संपूर्ण  बल मान्यताओं के पालन पर ही होगा, न की नये अन्वेषण पर। आध्यात्मिकता पर जब धर्म की छाप लग जाए तब वह निष्प्राण हो जाती है। खोजने नहीं करने में व्यस्त, वहाँ के लामा (बौद्धभिक्षु), सत्य का अन्वेषण न करके, मान्यताओं के आचरण में संलग्न थे।

एक परिभ्रमी तपस्वी के रूप में मैं पूर्वोत्तर हिमालय में विचरता रहा व, अंतत:, सुदूर जंगल में स्थित एक झोंपड़ी में ठहर गया। हालाँकि यह स्थान साधना के मेरे पिछले स्थान की भाँति एकांत तो नहीं था, तथापि यह अत्यंत शांत व सुरम्य था। मैंने वहाँ एक माह लंबी मंत्र-साधना संपन्न की। ओह! क्या परम आनंद था।

मैं क्या बताना चाह रहा हूँ इसे समझने के लिए आपको हिमालय के शांत वातावरण का स्वयं अनुभव करना होगा। ऐसे परम शांत वातावरण में ही आप अपने विचारों की डोर को पकड़ पाएँगे व मन के परमवास्तविक स्वरूप को खोज पाएँगे। वहाँ आप वास्तविक सौंदर्य का परिचय पाते हैं। और, सौंदर्य दृष्टा की निगाह में नहीं, वरन निहारने वाले के मन में विराजित होता है। जितनी उत्तमोत्तम मन की शुद्धता, उतना उत्तमोत्तम सौंदर्य का आभास; और जितना शांत व मौन से भरा मन, उतना दीर्घ कालीन वह अनुभव। एक खाली मन शैतान का घर नहीं होता, वरन भावातुर मन होता है। शून्य-भाव तो वास्तव में दिव्यता का आशीर्वाद होता है।

एक स्थिर व शांत मन, जिसने अपने स्वरूप की खोज संपन्न कर ली हो, वह आपको स्वतंत्र कर देगा। आखिरी बार आपने कब स्वतंत्रता का आभास किया था? संपूर्ण स्वतंत्रता - उस नदी की भाँति जो स्वच्छंद रूप से बहती जाती है; उस वायु की भाँति जिसे बाँधा नहीं जा सकता; उन पक्षियों के जैसे जो सुदूर गगन मैं उड़ते चले जाते हैं, अथवा तो उस भिक्षु की तरह जिसने सभी सांसारिक आडंबर त्याग दिए हों, और जो भय, कुंठा, लज्जा व अन्य मान्यताओं से ऊपर उठ चुका हो जो पहले कभी उसकी चेतना को मलिन कर चुकी हों!

एक अंतिम विचार जो दन्त-प्रक्षालन के दौरान उपजा - 
जीवन एक टूथपेस्ट की ट्यूब के समान है। सर्वप्रथम यह भरी हुई व भरपूर मात्रा में प्रतीत होती है। आरंभिक कुछ दिन के उपयोग में ऐसा ही प्रतीत होता रहता है। उसके पश्चात इसके आकार पर पिचकने का एक निशान बन जाता है। उसके बाद, हर बार दबाने के उपरांत, उस ट्यूब के आकार को पुन: व्यवस्थित करना पड़ता है, यदि आप वस्तुओं को उनके ठीक रूप में ही देखने के अभ्यस्त हैं। अभी आप ट्यूब के अर्ध-भाग तक ही पहुँचे होते हैं कि अब आपको उसे हर बार नीचे से ऊपर की ओर दबाना पड़ता है। शीघ्र ही आप उसके अंतिम छोर तक भी पहुँच जाते हैं। और, जब आपको लगने लगता है कि ट्यूब खाली हो चुकी है, तब उसे और अधिक दबाने से कुछ और बाहर आ जाती है। शायद ही कोई टूथपेस्ट को पूरा खाली कर पाता हो। अंतिम कुछ उपयोग आपको नई टूथपेस्ट क्रय करने का अवसर देते रहते हैं, ताकि आप टूथपेस्ट से पूर्णत: वंचित न हों, चूँकि अब वह उसी प्रकार सपाट हो चुकी है जैसे ऋण में डूबा अथवा अपेक्षाओं से दबा मनुष्य! 

इसी प्रकार, आरंभ में जीवन लंबा, संपूर्ण व समुचित प्रतीत होता है। बाल्यावस्था त्वरित गति से निकल जाती है। तत्पश्चात, अधिकांश समय परस्पर समझौते की स्थिति रहती है, तब, एक दिन, आप स्वयं को आखिरी छोर पर पाते हैं, बहुत परिश्रम से इसे दबाते हुए कि कुछ बाहर आ जाए। किंतु, टूथपेस्ट की ही तरह, जब आप पुरानी काया त्याग देते हैं तो एक नूतन जीवन आपकी प्रतीक्षा कर रहा होता है। जीवन वैसा ही बनता है जैसा आप इसे बनाते हैं। आपके शरीर के अरबों तंतुओं में, हर तंतु के केंद्र में नाभिकीय ऊर्जा विद्यमान है। यह आप के ऊपर निर्भर है कि उसे आप रेडियो-धर्मिता के भय से सुप्तवस्था में ही पड़े रहने दें अथवा उसमें से महान उपयोगी न्यूक्लियर रिऐक्टर का निर्माण कर लें, अथवा तो आपकी नकारात्मक सोच आपसे इसका दुरुपयोग कर भीषण संहार के अणुशस्त्र बनवा डाले।

जाएँ, व आनंद लें। जीवन के आंतरिक सौंदर्य को बाह्य रूप दें, न कि उसकी नकारात्मकता को। अपनी सारी चिंताएँ छोड़ दें चूँकि भाग्य की पुस्तक में जो लिखा है वह तो होकर गुज़रेगा ही। व्यर्थ के जीवन-संघर्ष का त्याग करें। हर एक क्षण को बीतते हुए निहारें। अंत:करण में व्याप्त चिर यौवन सौंदर्य, आनंद व प्रसन्नता से भरपूर अमृत भंडार की खोज करें। अपने जीवन का आनंद अन्य लोगों के साथ मिलकर लें, उस टूथपेस्ट की भाँति जिसे मिल बाँट कर उपयोग किया जाता है; किंतु स्वयं आप अपनी निजता में स्थित रहें, वैसे ही जैसे टूथब्रश, जिसे किसी के साथ साझा नहीं किया जाता।


शांति।
स्वामी

[वस्तुत: एक ईमेल के रूप में लिखा गया और जून २०१४ में संपादित किया गया]

मेरा सत्य

भीड़ भरे वाराणसी और हिमालय के पर्वतों के पार परमानंद का शांत सागर था। यह है मेरी आध्यात्मिक यात्रा का संक्षिप्त विवरण।
पिछले कुछ समय से मैंने लिखा नहीं। मैं आप सबके साथ कुछ जानकारी बाँटने को तैयार हूँ। यह रहा मेरे विषय में सब कुछ (कैसे, कब, कहाँ, क्या), तीन समयावधि में विभाजित। मैं इसे संक्षिप्त रखने का प्रयास करूँगा।

१५ मार्च २०१० की दोपहर को मैंने अपनी आध्यात्मिक यात्रा के लिए प्रस्थान किया। मैं वाराणसी गया। १८ मार्च तक मैंने अपने गुरु को ढूँढ़ लिया था - वाराणसी से ८० किलो मीटर उत्तर दिशा में एक छोटे से गाँव में। उन्होंने मुझे ११ अप्रैल को सन्यास धर्म में दीक्षित किया। मेरे गुरु एक ७५ वर्ष की आयु के नागा संत हैं। मैंने उनका आश्रम चार मास उपरांत छोड़ दिया क्योंकि मैंने अपना सत्य जानने के लिए सन्यास लिया था; वह चाहते थे कि मैं उनकी संपत्ति का ध्यान रखूँ व उनका स्थान लूँ। मैं एक "आध्यात्मिक व्यवसाय"  नहीं संभालना चाहता था। मैं हिमालय आ गया। बद्रीनाथ से ६ किलो मीटर उत्तर दिशा में और आगे, नीलकंठ जाने के रास्ते में, मुझे एक पर्वत चोटी पर, जिसका नाम नारायण पर्वत है, एक उपयुक्त गुफा मिली। वहाँ से अनेकानेक जल-स्त्रोतों, बहुत से झरनों व हिमालय की अद्वितीय पुरातन विशुद्धता का विस्मयकारी दृश्य देखते ही बनता था। मैंने वहाँ दो महत्त्वपूर्ण साधनायें कीं।

दो महीने उपरांत, अपनी साधनाएँ संपूर्ण करने के पश्चात मैं भगवान जगन्नाथ जी (पुरी) की शरण में गया। मैंने उड़ीसा में लगभग २ सप्ताह एक अनुकूल समुद्र तटीय स्थान की खोज में व्यर्थ बिताये। मैं पुनः हिमालय आ गया। इस बार मैंने हिमालय के घने जंगल में एक सुदूर एकांत स्थान को चुना। मैं इस स्थान के विषय में विस्तार से फिर कभी बताऊँगा। संक्षेप में, यह स्थान भव्यता से भरपूर था। जंगली जानवर जैसे हिरण, बनैला सूअर (वाराह), भालू तथा विकराल जंगली चूहों से प्रवासित इस स्थान की भव्य छटा थी। यह प्रकृति के गोल्फ कोर्स समान था। मैंने वहाँ अपनी साधना १९ नवंबर को प्रारंभ की। ५ जनवरी को अपनी सबसे महत्त्वपूर्ण साधना आरंभ करने से पूर्व मैं २७ दिसंबर को, एक दिन के लिए, वहाँ से नीचे आया आप सब को ई-मेल भेजने के लिए। यह साधना १५० दिन तक चली। ध्यान व ऐसी अन्य क्रियाएं १७ घंटे का समय लेतीं। मैं वापस आने पर उस पर विस्तार से चर्चा करूँगा। प्रभु की असीम कृपा से वह सफलतापूर्वक संपन्न हुई। मेरी साधना के अंत के १०० दिनों में पूर्ण एकाकीपन व एकांत था; अपने स्वयं के विचारों से भी परे। इसके परिणाम ने मुझे परिपूर्ण कर दिया है।

मैं अपने अभी के निवासस्थान के विषय में नहीं बता सकता। किंतु मैं प्रसन्न व सकुशल हूँ व परम आनंद में हूँ। परमानंद, जो मुझ पर लगभग हर पल आच्छादित रहता है। मैंने अपनी ध्यानावस्था को हर समय बनाए रखना सीख लिया है, बाहरी संसार की अवस्था से अभिन्न, वह भी हर समय हर क्षण। मैं अपनी आध्यात्मिक यात्रा के अगले व अंतिम गंतव्य की ओर प्रस्थान कर रहा हूँ।

मेरी अगली व समापक साधना सही मायने में साधना न हो कर, एक परीक्षण है। मेरी आधारभूत व प्रमुख साधना संपन्न हो चुकी है। मैंने वह पा लिया है जो मैं ढूँढ़ रहा था। वह सामने आ गया है। मैंने उसे समझ लिया है। सब कुछ सुस्पष्ट है। १३ फ़रवरी को, और फिर पुनः ११ मई को, मैंने अपने इष्ट के सुस्पष्ट दर्शन किए। उसके पश्चात जिस परमानंद से मेरा संपूर्ण शरीर हर समय आच्छादित रहता है, वह भाव हर क्षण मेरे साथ है। मैं स्वेच्छा से किसी भी समय वापस उस स्थिति में जा सकता हूँ। एक ऐसा अस्थिर अनुभव जिसे आप पुनः महसूस नहीं कर सकते वह शायद ही किसी काम का हो। यदि हमने अपने प्रयास से कुछ अनुभव किया है, तो हमारा उसे अपनी इच्छानुसार पुनः अनुभव कर पाने में सक्षम होना अनिवार्य है। यदि हमने एक सुनिश्चित ढंग से कोई कार्य किया है तो वही स्थितियाँ पुनः बनाने पर वही अनुभव पुनः होना चाहिए। इस विषय में मैं अपनी वापसी के पश्चात और लिखूंगा। अपनी समापक साधना पूर्ण करने के पश्चात मैं वापस आकर आप सब को मिलूँगा। इस मेल के अंत में मैं अपने लौटने की तिथि बताऊँगा। उससे पहले, मैं अपनी उपलब्धियों का सारांश आप के साथ बाँटना चाहूँगा, जो इस प्रकार है- 

बुद्ध ने स्थापित किया कि कोई ईश्वर या ईश्वरीय सत्ता नहीं है। कृष्ण ने घोषित किया कि मैं ही भगवान हूँ। आइंस्टाइन ने कहा कि सब कुछ ऊर्जा का मिलाजुला स्वरूप है। मीरा ने अपना सत्य कृष्ण में पाया, रामकृष्ण परमहंस ने काली में, तुलसीदास ने राम में, शंकराचार्य ने अद्वैत में ओर बहुत से अन्य लोगों ने अपनी तरह से अपना सत्य पाया। अधिकतर लोग यह मानते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार इत्यादि उनके लिए लाभदायक नहीं हैं; फिर भी वे यह सब क्यों करते हैं? मैं अपना सत्य स्वयं अनुभव करना चाहता था। अपने अनुभव व अपनी वर्तमान अवस्था को शब्दों में वर्णित करने में मैं अपने को पूर्णतः अक्षम पा रहा हूँ।

आत्म-साक्षात्कार कोई आकस्मिक मिला लाभ नहीं है। यह कोई अचानक आई भावना नहीं है। ऐसी आत्मानुभूति की वैचारिक अवधारणा एक 'अविर्भाव' प्रतीत हो सकता है, किंतु वास्तविक उपलब्धि इससे बहुत भिन्न है। आत्म-साक्षात्कार का अनुभव हर वह व्यक्ति कर सकता है जो इसके लिए प्रयत्न करने को तैयार है। ऐसी आत्मानुभूति के पश्चात आप के पास केवल उत्तर ही होंगे। तब आप के पास कोई प्रश्न नहीं होंगे। बौद्धिक स्तर पर आप मूल दर्शन-तत्व या सैद्धांतिक मूल्यों को समझ तो सकते हैं, किंतु, हो सकता है यह जानकारी आप को और अधिक कट्टर बना दे। आप केवल जानकारी रखने तक ही सीमित रह जाएँगे, बिना उसकी प्रामाणिकता की पुष्टि किए।

यदि आप मानते हैं कि ईश्वर साकार हैं तो आप उनके साकार रूप का इसी जन्म में दर्शन कर सकते हैं। यदि आप मानते हैं कि ईश्वर निराकार हैं, तो आप आने वाले समय में गहन समाधि का अनुभव कर सकते हैं। यही है जो मैंने अनेकानेक बार अनुभव किया। आप का संसार आप के विचारों से बना है। यदि आप के संसार में एक साकार ईश्वर हैं और आप के विचार, हर समय हर क्षण, उसी के विषय में हैं, तो उनकी वही छवि आप के सामने प्रकट हो जाएगी। यदि आप के संसार में परमानंद है, और आप के विचार, हर समय हर क्षण, उस परमानंद पर ही केंद्रित हैं, तो आप को उस परमानंद का अनुभव होगा। हालाँकि वह एक कठिन कार्य है क्योंकि केवल एक विचार पर, एक लंबी समयावधि तक ध्यान लगाने के लिए एक पूर्णतः स्थिर एवं एकाग्र मन चाहिए। एक प्रारंभिक प्रबल प्रयास द्वारा यह प्राप्त किया जा सकता है।

जैसे एक नव-साक्षर को आरंभ में पढ़ना कठिन प्रतीत होता है, किंतु कुछ समय पश्चात वह प्रवीणता प्राप्त कर लेता है; आप का भी मार्ग में अनेकानेक बाधाओं से सामना होगा। यदि आप मार्ग पर सुदृढ़ रहें तो आप अवश्य ही लक्ष्य तक पहुँच जाएँगे। मुझे यह ज्ञात हुआ है कि यदि आप भक्ति अथवा ध्यान ग़लत ढंग से करते हैं, तो आप कभी भी लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते। विभिन्न ग्रंथों अथवा भाष्य-टीकाओं में वर्णित आनंदमय अनुभव अथवा इसी प्रकार के दूसरे असाधारण दावों जैसा कुछ भी आप अनुभव नहीं करेंगे। यदि आप इसे सही ढंग से कर सकते हैं, तो आप एक अल्पावधि में अपने ईश्वर-तत्व को अनुभव करके प्रकट कर सकते हैं। परंतु मुझे यह निश्चयपूर्वक कहना होगा कि इसके लिए अत्याधिक गहन प्रयत्न की आवश्यकता होगी।

अपने लौटने पर मैं यह स्पष्ट करूँगा कि मेरे दृष्टिकोण से "सही" क्या है। सत्य अत्यंत सरल है और आप सब इसे जानते भी हैं। किंतु इसे अनुभव करना एक बिल्कुल ही भिन्न अध्याय है। अधिकतर लोग सही और ग़लत का भेद जानते हैं, फिर भी वे स्वयं को बारबार अनैतिक व अवांछनीय कृत्यों में उलझा हुआ क्यों पाते हैं? ऐसा इसलिए है कि उनका मन वश में नहीं है। एक अशांत मन व उसकी चित्तवृतियाँ उन्हें संसार का अनुभव व आनंद केवल अपने शरीर द्वारा ही लेने को बाध्य करती हैं। अनुशासन की परिशुद्धता, चाहे भक्ति में अथवा ध्यान में, मन वश करने में आप को सहायक हो सकती है। तब आप एक अवर्णननीय, अनवरत बहते आनंद की अनुभूति करेंगे। मैं इसके विषय में पढ़ा करता था, और, इधर-उधर कुछ अनुभव भी किए थे। 'समाधि' का वास्तविक सतत् अनुभव अविश्वसनीय है। वह परम आनंद सदा सर्वदा आप के साथ है - केवल थोड़े से प्रयत्न मात्र से।

मैं सत्य की बौद्धिक धारणा और उसे वास्तव में अनुभव करने के बीच के अंतर को स्पष्ट करना चाहूँगा। मान लीजिए कोई मोतियाबिंद से पीड़ित है। उस व्यक्ति को अपनी दृष्टि की विकृति का ज्ञान है। क्या वह ज्ञान मात्र उसकी दृष्टि ठीक करने के लिए पर्याप्त है? वह जानता है कि समस्या कहाँ है, वह जानता है कि उसी के परिणामस्वरूप वह ठीक से देख नहीं पा रहा। वह यह भी जानता है कि मोतियाबिंद का आपरेशन करवा लेने से उसकी दृष्टि ठीक हो जाएगी। बौद्धिक रूप से वह सब जानता है। वह उसे समझता है। किंतु वह समझ उसे बिना परेशानी के देख पाने में कोई सहायता नहीं करती। उसकी क्षीण दृष्टि किसी बौद्धिक दोष का परिणाम नहीं है। इसलिए वह किसी वैचारिक समझ या सुधार द्वारा ठीक नहीं की जा सकती। उसे अपनी दृष्टि पुनः ठीक करने के लिए आपरेशन करवाना ही होगा। इसी प्रकार आप का संसार के प्रति विकृत दृष्टिकोण या आप का भ्रमित चित्त कोई बौद्धिक समस्या नहीं है।

किसी एक दर्शन-शास्त्र का समर्थन करना या किसी विशेष दार्शनिक सिद्धांत की सत्यता पर विश्वास कर लेना - यह दोनों ही मन:क्षेत्र के कार्य हैं। यह आप को आप की अपनी सत्यता जानने में सहायक नहीं हो पाएँगे; समाधि अथवा अपने इष्ट के दर्शन तो दूर की बात है। सबसे सुंदर बात तो यह है कि आप अपनी वास्तविक सत्ता का अनुभव कर सकते हैं एवं आप उस अनवरत बहने वाले आनंद का भी अनुभव कर सकते हैं - अपने मन को स्वयं के वश में करने से। एक ऐसा मन जो शांत नहीं है व पूर्ण रूप से वश में नहीं है, आप को भक्ति अथवा ध्यान, सही विधि व पवित्रता से नहीं करने देगा। ऐसी शुद्धता के अभाव में आप का कोई गूढ अनुभव कर पाना कुछ असंभव सा है। यदि एक बार आप अपने अनुभव को दोहराने में सफल हो जाते हैं, आप का संसार सदा के लिए बदल जाएगा। आप अंतर्मुखी हो चुके होंगे। पूर्णतः। आप इन तीन अवस्थाओं से गुज़रेंगे - 

पराश्रित
यह प्रथम अवस्था है। आप हर प्रकार से संसार पर आश्रित हैं। उनकी टीका-टिप्पणी अथवा आलोचना आप में सकारात्मक या नकारात्मक भाव जगाते हैं। उनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति से आप को अच्छा या बुरा अनुभव होता है। उनके कार्य आप को प्रसन्नता या दु:ख दे सकते हैं। सारांश में, आप के विचारों की दुनिया में बहुत से व्यक्ति हैं। परिणामस्वरूप, आप का जीवन उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता है। आप एकांत में नहीं रह सकते। एक बार आप अंतर्मुखी होना आरंभ करते हैं व वस्तुतः अपने हर एक कृत्य में सांसारिक, आध्यात्मिक व नैतिक अनुशासन की परिशुद्धता ले आते हैं, तो आप  दूसरी अवस्था में पहुँच जाएँगे।
                                                                    
स्वाश्रित
अविचल नैतिकता व अनुशासन की परिशुद्धता द्वारा आप अपना दृष्टिकोण स्वयं बनाना आरंभ कर देंगे। अपने एवं अपने संसार के प्रति स्वयं का दृष्टिकोण। एक ऐसा दृष्टिकोण जो इस बात से अधिकतर अप्रभावी रहेगा कि अन्य व्यक्ति आप के विषय में क्या सोचते हैं। फिर भी, अभी भी, वे व्यक्ति आप की अपने स्वयं के विषय में जो सोच है - उसे प्रभावित करने में सक्षम होंगे। जैसे जैसे आप अधिक स्वाश्रित होते जाएँगे - एकांत आप का, काफ़ी हद तक, मित्र बन जाएगा। एक ऐसा मित्र जिसके साथ आप को यदा कदा समय बिताना अच्छा लगेगा। आप की मानसिक अवस्था कुछ स्थिर होनी आरंभ हो जाएगी, और आप पाएँगे कि ऐसे बहुत से कार्य जो करने ही होते हैं, आप उन्हें करने में आनंदित हो रहे हैं। फिर भी, जब भी, असावधानी होगी, आप का अंत:करण अभी भी अशांत विचारों व भावों से पराजित होता रहेगा। संसार के प्रति आप का दृष्टिकोण अभी भी आप के द्वारा अर्जित सुनी-सुनाई जानकारी पर आधारित होकर ही सामने आएगा।  जैसे-जैसे आप को अपने वास्तविक स्वरूप की झलक मिलने लगती है, और आप अनवरत रूप से, न कि अन्धा-धुन्ध प्रकार से, आत्म-शुद्धि की ओर बढ़ते रहते हैं; आप तीसरे स्तर पर पहुँच जाएँगे।
                                                                 
स्वाधीन (स्वतंत्र)
आप उस परम-आनंद का अनुभव करते हैं जो आप के संपूर्ण अस्तित्व में व्याप्त हो चुका है। आप तेज-पुंज हो जाते हैं और अब आप को कहीं भी, किसी भी प्रकार की उलझन नहीं है। अब आप को हर बात समझ आ रही है। आप को  बोध हो चुका है। अब आप अपने मन के कहे अनुसार नहीं चलते। आप के पास एक स्थिर मन है जिस में कोई विचार नहीं है और आप में परम-बोध व परम-चेतना का उदभव हो चुका है। एक बार आप अपने मन की पुरातन-पवित्रता को खोज लेते हैं, तो आप अपने आसपास की सारी वास्तविकता को समझ जाएँगे व जान जाएँगे। आप अपने को सांसारिक भावनाओं से अछूता पाएँगे। अब आप का सांसारिक भोगों की ओर कोई झुकाव नहीं रहता और न ही आप में किसी प्रकार की कोई अभिलाषा बची है। और तो और, आप के आध्यात्मिक अनुभव भी अब आप के लिए अधिक मायने नहीं रखते। आप स्वतंत्र हो जाते हैं। और यही है आप का वास्तविक स्वरूप। हर क्षण - हर पल, एक आनंदमयी अवस्था में; आप जो भी कार्य करते हैं, सबका एक ही परिणाम - आनंद। आप किसी भी क्षण अपने इष्टदेव के दर्शन व अपनी समाधिस्थ अवस्था से अलग नहीं हो पाएँगे। आसपास के सभी प्राणी भी आनंद का अनुभव करेंगे, बिल्कुल ऐसे ही जैसे सूर्य के समीप जाने पर, बिना किसी पक्षपात के, हर कोई सूर्य के ताप का आनंद लेता है। जब कभी भी आप कुछ देखते हैं या किसी को देखते हैं, तो उन्हें केवल आनंद का ही आभास होगा।

मेरे अनुभव में यह आया है कि आप अपने इसी जीवन काल में स्वतंत्र अवस्था तक पहुँच सकते हैं। हालाँकि यह आसानी से नहीं होता। उत्कट प्रयास के साथ सही स्थितियाँ व संतुलन आवश्यक हैं। मैं इस पर आने वाले समय में कभी विस्तार से लिखूंगा। यह ईमेल न तो सही मंच है और न ही सही माध्यम, अपने सत्य पर विस्तृत प्रकाश डालने के लिए। फिर भी मैंने आप के साथ आवश्यक जानकारी बाँट ली है।

अब यह कोई भ्रम नहीं रहा। ऐसा कुछ भी नहीं बचा जिस की मुझे खोज हो। ऐसा कुछ भी नहीं है जो मुझे अभी और प्राप्त करना है। अपने संकल्प हेतु व अपने सत्य को कसौटी पर परखने के लिए, मुझे अभी कुछ और समय एकांतवास में बिताना है। मैं अपने सत्य का विवरण आप के साथ बाँटने को उत्सुक हूँ, यदि आप उस आनंद का अनुभव करना चाहते हो जिसे आज के युग में संभवतः आप केवल दृष्टांत कथा मात्र मान चुके हों।

और कब तक आप नाहक ही नीरस कामों में लगे रहेंगे? क्या आप तब तक बाज़ार के चक्कर काटते ही रहेंगे  जब तक कि अधिकारी आप का लाइसेंस पुनः बनाने के लिए मना न कर दे चूँकि आप रास्ते के अवरोध को देख पाने में अब अक्षम हैं! क्या आप किसी वस्तु अथवा व्यक्ति की राह देख रहे हैं? और कब तक आप बिना स्वाद की कॉफी के घूँट भरते रहेंगे? क्या आप अपना संसार अभी भी व्यक्ति-विशेष के इर्द-गिर्द ही बनाए रखेंगे? क्या आप ऐसे ही वृद्ध हो जाएँगे और अपने बच्चों के फ़ोन-काल मात्र से संतुष्ट होते रहेंगे?

एक दिन आप एक ऐसी दस्तक द्वारा गहरी नींद से उठाए जाएँगे, जो केवल आप को ही सुनाई देगी। वह दस्तक ऐसी होगी जो आप को आप की अंतिम निद्रा में ले जाएगी। उस घड़ी आप को महसूस होगा कि आप का अंतिम भोजन तो हो चुका, अंतिम फ़ोन-काल, अंतिम ईमेल, अंतिम नींद, आप का अंतिम स्नान व अंतिम वार्तालाप - सब हो चुका! हाँ, निर्णायक शब्द किसी और का होगा, वह आप का नहीं होगा। आप की यहाँ रहने अथवा जाने की अभिरुचि की बड़ी निर्दयता से उपेक्षा कर दी जाएगी।

मैं आप को दुनिया से सन्यास लेने की सलाह नहीं दे रहा। इसके विपरीत, मैं आप से जीवन जीने की कला सीखने की याचना कर रहा हूँ। शालीनता से, शांति से,  ईश्वर-कृपा का आनंद लेते हुए, संसार के प्रति सही दृष्टिकोण एवं अपने स्वयं की सत्य की अनुभूति के साथ। आप अपने स्वयं के घर में रहते हैं; अपने स्वयं के वस्त्र धारण करते हैं; अपना स्वतंत्र काम-धंधा करते हैं; अपनी स्वयं की कार चलाते हैं; किंतु संसार के प्रति दृष्टिकोण व अपने स्वयं के प्रति दृष्टि - ये आप के अपने नहीं हैं। यह, निरंतर, आप के आसपास की दुनिया से प्रभावित रहता है। यह इस रूप में नहीं होना चाहिए।

जब आप अपने वास्तविक स्वरूप को खोज लेते हैं, तब आप समस्त सांसारिक क्रिया-कलापों के मध्य रह कर भी एक सन्यासी हो जाते हैं। आप अपनी वर्तमान जीवन शैली अपनाए रख सकते हैं और बार-बार भावनात्मक उतार-चढ़ाव से गुज़रते रह सकते हैं; अथवा तो आप अपनी दिव्यता का अनुभव कर सकते हैं, उसे अनावृत कर सकते हैं। तैराक भले नौसिखिया हो या कुशल, वह या तो एक ऊँची लहर की प्रतीक्षा कर सकते हैं, अथवा लहरों पर बहना आरंभ कर सकते हैं। आवश्यकता यह है कि आप कम से कम एक ईमानदारीपूर्ण, सतत, दृढ़, गंभीर प्रयास तो करें। अपने चारों ओर देखें। कितना कुछ अनचाहा है। क्या आप को इस सब की अपने जीवन में आवश्यकता है? अपने अंत:करण को खाली करना आरंभ करो तो बाहर अपने आप साफ हो जाएगा। अपने आसपास के अवांछनीय तत्व हटाने शुरू करो तो आप का अंत:करण स्वत: निर्मल होने लगेगा। अपना स्वयं का जीवन सबके साथ जियो, किंतु सबके प्रभाव में नहीं। आप का स्वयं का प्रारूप। आप अपने सच की स्वयं की की गई खोज से अचंभित हो जाएँगे। आप आश्चर्यचकित, मंत्र-मुग्ध व दंग रह जाएँगे, व अपने को पूर्ण रूप से तृप्त पाएँगे। आप मुक्त हो जाएँगे।

यह जीवन एक कार की लंबी यात्रा के समान है। यहाँ रास्ते में चलते कुछ मोड़ होंगे, कुछ रुकने के बोर्ड, कभी एक या दो चालान होंगे, आसपास कुछ सुन्दर दृश्य, कुछ एक गड्ढे, कभी कार में खराबी भी आ जाएगी... पर आप आगे बढ़ते ही जाते हैं जब तक गंतव्य स्थान पर नहीं पहुँच जाते; और फिर, आप वापस अपने घर आना चाहते हैं। आप इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि गंतव्य तक पहुँचना उतना आवश्यक नहीं था जितना अपनी यात्रा का आनंद लेना, क्योंकि गंतव्य तो एक और पड़ाव मात्र होता है। जाओ और आनंद लो! परंतु अंतर्मुख हो कर। बाहर की यात्रा एक भ्रम है, अंदर की यात्रा के समान दूसरा कोई सत्य नहीं। बाह्य यात्रा तो मानो आप के चारों ओर ट्रैफिक चल रहा है, जबकि अंत:करण की यात्रा में आप अपनी कार स्वयं चला रहे होते हैं। आप मार्ग बदल सकते हैं और कम भीड़ के समय बाहर निकल सकते हैं या एक अलग रास्ता पकड़ सकते हैं, जहाँ ट्रैफिक बहुत कम हो। आप जो निर्णय अंतर्मन में लेंगे वे आप के बाह्य जीवन को बदल देंगे। इस समय के लिए मैं इस विषय को विराम देना चाहूँगा, ताकि यह ईमेल एक पुस्तक न बन जाए। अपने कुछ बचे हुए कार्य संपन्न करने के पश्चात, मैं आप सबको मिलूँगा। ऐसा इसी वर्ष में हो जाना चाहिए। जो दो तिथियाँ इस समय मेरे मन में हैं वे हैं - ९-१०-११ (नौ अक्तूबर) या ११-११-११ (११ नवंबर)। यह मेरी पहले भेजी जानकारी से लगभग पूरा एक वर्ष पहले है। मैं आप सबसे मिलने को उत्सुक हूँ व मैं आप सबको धन्यवाद देता हूँ। मुझे वह प्राप्त हो गया है जो मुझे चाहिए था। यह मिलने के उपरांत मुझे आभास हुआ कि मैं वह हो गया हूँ जो मैं बनना चाहता था। इस उपलब्धि से मुझे यह स्पष्ट हुआ कि मैं स्वयं ही बोध हूँ। वहाँ तो "मैं" भी नहीं था। आने वाले कुछ सप्ताहों में आप को पुन:  लिखूंगा। और मैं अवश्यमेव ही अगस्त तक एक तिथि भी निर्धारित कर लूँगा और आप को बता दूँगा।

मैं आप सबके लिए शांति की कामना करता हूँ। कृपया मेरी ओर से शीघ्र ही दुबारा वार्तालाप की अपेक्षा रखें।

कृपया यह संदेश उन सबको भेज दें जिनकी इच्छा यह सब जानने की थी और उन अन्यान्य लोगों को भी जिन्हें आपके विचार में इससे कोई लाभ हो सकता है।

स्वामी

[वस्तुत: एक ईमेल के रूप में लिखा गया]

जीवन की पहेली

कभी कभी आप को केवल जीवन के अन्य किसी पहलू पर ध्यान केंद्रित करना होता है। फिर जीवन की पहेली एक सुंदर चित्र के समान प्रतीत होती है।
एक दिन ध्यान-साधना शिविर में एक महिला मेरे पास आईं। उन्होंने कहा - जीवन जीने के लिए जो कुछ भी उन्हें चाहिए था, वह सब उन्हें मिला। फिर भी वह प्रसन्न नहीं हैं। वह वर्षों से अकेलेपन की भावना से जूझ रही हैं। उन्होंने ध्यान आदि भी किया परंतु अनुकूल परिणाम नहीं पाया।

“मेरे भीतर निरंतर एक रिक्तता है और मैं जीवन का आनंद लेने में पूर्णतः असमर्थ हूँ। मेरे परिवार में सभी बहुत अच्छे हैं और मुझे कोई आर्थिक कष्ट भी नहीं। किंतु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह संसार मेरे लिए नहीं है। मुझे नहीं पता कि इस उदासी से मैं स्वयं को बाहर कैसे निकालूँ। मै समझ नहीं पा रही कि मै आप को कैसे समझाऊँ। मैं प्रसन्न होते हुए भी प्रसन्न नहीं हूँ। जीवन का जैसे कोई अर्थ ही नहीं है। अधिकतर समय मैं उदास रहती हूँ।”

मैं ने कहा - “हमारा पेट भरा हो फिर भी मीठा खाने की इच्छा तो रहती ही है। मानव बुद्धी की विशेषता है कि वह नकारात्मक विचारों को ही सोचती है। क्योंकि आप को जीवन में सब कुछ मिल गया इसलिए आप विजय के उस सुख से वंचित हैं जो जीवन की उलझनों को पराजित करने के उपरांत ही मिलता है।”

“आप कहना चाहते हैं कि मैं दुखी हूँ क्योंकि मेरे पास चिंता करने को कुछ नहीं?”

“चिंता नहीं। परवाह। आप के पास ऐसा कुछ नहीं है जिस की आप मन से परवाह करें। कोई उद्देश्य खोजें। कोई कारण, जो आप के जीवन से भी बड़ा हो। कोई कारण, जो आप के जीवन जीने का, उस में आगे बढ़ने का कारण बन जाए।”

मैं ने उन्हें एक छोटी सी कहानी सुनाई -

एक पिता प्रतिदिन शाम को काम से घर लौटने के उपरांत अपने छोटे पुत्र के साथ खेलता था। एक समय उसे अपना एक आवश्यक कार्य पूरा करना था। वह जानता था कि उसे अपने पुत्र को किसी अन्य कार्य में उलझाये रखना होगा ताकि वह अपने कार्य को पूरे ध्यान से कर सके। वह सोच ही रहा था कि इतने में उसका ध्यान एक समाचार पृष्ठ की ओर गया। उसमें एक मानचित्र बनाने वाली कंपनी का इश्तहार था, जिस में संसार का एक नक्शा बना था।

उसने बड़ी सावधानी से उस नक्शे के छोट-बड़े दसियों टुकड़े किए और उन सभी टुकड़ों को अपने पुत्र को दिया।

“इन टुकड़ों में संसार के नक्शे की पहेली है। पहले तुम इस पहेली को सुलझाओ फिर हम साथ खेलेंगे।”

उसने सोचा कि यह उस छोटे बालक को घंटों व्यस्त रखने के लिए पर्याप्त होगा। परंतु केवल आधा घंटा ही बीता होगा कि उस बालक ने आकर कहा कि उसने उस पहेली को सुलझा लिया है।

“ऐसा कैसे हुआ।” पिता ने कहा, “यह तो अविश्वसनीय है।”

बालक ने कहा - “पिता जी, यह बहुत ही सरल था। जब मैं संसार के उस मानचित्र को सुलझा रहा था, मुझे वह कार्य बहुत ही उबाऊ लगा। परंतु, फिर मैंने देखा कि उसके पीछे एक चित्र बना था। मैंने उन टुकड़ों से उस चित्र को बनाना शुरू किया और कुछ ही समय में “संसार” अपने आप ही बनता गया।”

कभी-कभी कुछ जानने हेतु केवल एक ही वस्तु पर्याप्त होती है वह है - चित्र का दूसरा पहलू।

हम जीवन के मानचित्र को जोड़ कर रखना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि सब स्पष्ट दिखे। परंतु यह किसी बगीचे में टहलने जितना सरल नहीं। विशेषकर जीवन की उन कठिन और उलझी परिस्थितियों में, जब जीवन का अर्थ जानना अत्यंत कठिन होता है। संसार के मानचित्र को जोड़-जोड़ कर बनाने में सामान्यतः आनंद की संभावना कम ही है। हाँ यदि आप कोई भूगोल-विज्ञानी या पहेली-विशेषज्ञ हैं तो बात कुछ और है! ऐसे में अपने उत्साह को बनाए रखने हेतु आवश्यक है कि हम वह करें, जो हम करना चाहते हैं।

जिस क्षण हमें स्वयं को प्रेरित करने वाला कुछ मिल जाता है, जीवन एक उबाऊ मानचित्र से बदलकर एक सार्थक खोज बन जाता है। मार्टिन लूथर किंग ने इसे बड़ी सुंदरता से समझाया - “जीवन के अंत का आरंभ उसी दिन हो जाता है, जब हम उन पहलुओं पर मौन हो जाते हैं जो हमारे लिए वास्तव में मायने रखते हैं।”

चाहे आप इस जीवन यात्रा में कहीं भी हों, कुछ नया खोजने के लिए सदैव होता ही है। जीवन के मानचित्र को सुलझाने का प्रयास न करें। आप अपने सुंदर जीवन के चित्र को संवारें। अन्य सभी स्वयं ही ठीक हो जाएगा। कुछ ऐसा खोजें जो आप वास्तव में चाहते हैं। और यदि आप के पास ऐसा कोई उद्देश्य नहीं जो आप को प्रेरित करे, ऐसा कोई चित्र नहीं जो आप को आकर्षित करे, तो इसका एक ही अर्थ है, आप पूरी लगन से खोज ही नहीं रहे। कोई भी व्यक्ति अपना उद्देश्य लेकर पैदा नहीं होता। सभी अपना उद्देश्य खोजते हैं। एक उद्देश्यहीन जीवन एक ऐसी उबाऊ यात्रा के समान है जिस में देखने के लिए आगे कुछ भी नहीं।

पेट-दर्द की शिकायत लेकर एक महिला एक डॉक्टर के पास जाती है। कुछ जांच आदि के उपरांत वह उसे बताता है कि उसे एक गंभीर रोग है और उसके पास जीने के लिए केवल तीन महीने शेष हैं।

वह बहुत चिंतित हो जाती है और पूछती है - “क्या ऐसा कुछ भी नहीं जो किया जा सके, डॉक्टर। मैं अवश्य तीन महीने से अधिक जीना चाहती हूँ।”
“क्या आप विवाहित हैं?”
“नहीं!”
“तो फिर एक चिंतक को खोजें और उससे विवाह कर लें।”
“वास्तव में?!” वह आशाजनक शब्दों से कहती है। “क्या इस से मैं और अधिक दिन जी पाउंगी”।
डॉक्टर ने कहा - “संभवतः नहीं। पर इस से आप को यह जीवन और अधिक लंबा लगने लगेगा।”

जीवन की घड़ी सभी के लिए एक ही गति से चल रही है। फिर भी आश्चर्यजनक रूप से भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न गति पकड़ लेती है। हम में से कुछ उत्तेजना से भरा चलचित्र देख रहे हैं। पूरी तरह डूबकर, हर क्षण का आनंद लेते हुए। जबकि वहीं कुछ लोग जैसे मौसम का पूर्वानुमान सुनने में ही व्यस्त हैं-नीरस, निःस्वाद, इसमें अधिक उत्तेजना नहीं। आप किस तरंग को पकड़ते हैं वह पूर्णतया आप के हाथ में है। यहाँ सभी कुछ है बस आप को सही बटन दबाने हैं।

यदि आपने धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की है फिर भी जीवन ने आप को अब तक कोई अवसर नहीं दिया, तो फिर जाइये, अवसर को खोजिए और उस पर झपट लीजिए। अवसर द्वार पर आकर दस्तक नहीं देते, अवसर बनाए जाते हैं। जैसा कि बुद्ध ने कहा - “आप के जीवन का उद्देश्य है जीवन का उद्देश्य ढूंढ़ना।” तत्पश्चात् उसमें स्वयं को सच्चे मन से डुबो देना। फिर पहेली के सारे टुकड़े स्वयं ही व्यवस्थित हो जाएंगे। फिर आप जीवन के सभी क्षणों को उनकी पूरी सुंदरता के साथ खिलता हुआ देख सकेंगे। फिर घड़ी की हर टिक के साथ आप स्वयं को उठता हुआ पाएंगे।

जब आप स्वयं को वचन देते हैं कि आप का जीवन उद्देश्यपूर्ण एवं प्रसन्न होगा तो सारा भय नष्ट हो जाता है, क्योंकि तब प्रकृति आप को खेलने के लिए एक बड़ा मैदान देती है। जो आप पाते हैं वह उन सभी से करोड़ों गुना अधिक है जो आप खो सकते हैं। वह हर वस्तु जो आप के जीवन में खो सकती है, उसका मूल्य उतना ही होता है जितना कि किसी करोड़पति की जेब में पड़े हुए कुछ सिक्कों का। उद्देश्य यही करता है। पहेलियाँ चित्र बन जाती हैं।

अपने जीवन के इस चित्र में रंग भर दीजिए। कैनवास को खाली मत छोड़िए। जैसा कि मैंने कहा- सब कुछ यहीं है। देखिए और आनंद लीजिए।

शांति।
स्वामी

जब सब ठीक न हो (When All is Not Well)

क्योंकि सब कुछ ठीक लग रहा है का यह अर्थ नहीं कि सब ठीक ही है। यह है मानसिक अवसाद (डिप्रेशन) का सत्य।

जीवन एक संघर्ष है जिस में दृढ़ परिश्रम की आवश्यकता है। मैं आप के बिल चुकाने, ऋण-मुक्त रहने, कठिन समय के लिए बचत करने, स्वस्थ बने रहने, आप की सेवानिवृत्ति की योजनाओं अथवा संबंधों के ठीक-ठाक बने रहने की बात नहीं कर रहा। यह सब तो कुछ भी नहीं (परिहास कर रहा हूँ!)। नि:संदेह, यह सब हमारे जीवन को चुनौतीपूर्ण बनाते हैं, और संभवत: जीने लायक भी। मैं वास्तव में, एक अत्यंत सरल विषय की बात कर रहा हूँ - प्रसन्न रहना। हमारे द्वारा हर काम बहुत कठिनाई व ईमानदारी के साथ करने पर भी प्रसन्नता एक क्षण-भंगुर अनुभव ही बनी रहती है, एक मायावी भावना; एक धूप भरे दिन में उस अकेले बादल की भाँति - जो केवल छोटे से अंतराल के लिए दिखाई देता है व जब तक वहाँ होता है अपना रूप बदलता रहता है।

जीवन एक बहुत कठिन कार्य हो सकता है उस व्यक्ति के लिए जिसने अपने जीवन को जीने का उद्देश्य नहीं ढूंढा हो अथवा उस व्यक्ति के लिए जो अपने कार्य के प्रति उत्साहित नहीं हो। प्रसन्नता जैसी वस्तु तो हमारे लिए स्वाभाविक होनी चाहिए चूँकि हम आनंद-प्रद प्राणी हैं, हम प्रेम से ही उपजे हैं। और तो और, वह नाभि की नाल जो हमें ९ महीने तक पोषित करती है, वह महत्त्वपूर्ण वस्तु जो हमारे व हमारी माता के बीच की कड़ी होती है, उसे भी जन्म के समय ही काट दिया जाता है - हमारी स्वतंत्रता हेतु। संभवत: यह बताने के लिए कि कहीं कोई बंधन नहीं है। हम प्रसन्नता ही हैं। हम स्वतंत्र हैं। परंतु क्या वास्तव में हम इस का अहसास कर पाते हैं? प्रसन्नता हमारे लिए उतनी ही स्वाभाविक होनी चाहिए जैसे पर्वतों में शीतल पवन - मंद मंद और निरंतर - परंतु लगभग ऐसा प्रतीत होता है कि हमें निरंतर इसके लिए प्रयत्नशील रहना पड़ता है। 

आप को पता है उदासी एक छुपी सी भावना है। जैसे यह मायने नहीं रखता कि आप अपने को कितना भी बढ़िया खिला पिला लो, कुछ ही घंटों में भूख फिर से आप के पेट में जागना आरंभ कर देती है; वैसे ही चाहे आप कितने भी प्रसन्न क्यों ना हों उदासी, अपने बंधु-बान्धवों (दु:ख, क्रोध, दोष-वृत्ति, अकेलापन, विद्वेष, भय, पश्चाताप) सहित या उनके बिना, चुपचाप आप को घेर लेती है। आप उल्लासित अनुभव करते हैं जब आप को पदोन्नति मिलती है; और अगले ही क्षण कार्य का दबाव प्रारंभ हो जाता है। आप परमसुख महसूस करते हैं जब आप एक बड़ा घर खरीदते हैं, और तब ऋण चुकाने की चिंता बीच में आ जाती है। क्या होगा यदि कल मेरे पास नौकरी न हुई, मैं अपने परिवार का भरण-पोषण कैसे करूँगा, मैं अपने बिल कैसे चुकता करूँगा? जैसे कि प्रसन्नता तो एक संदेशवाहक मात्र थी जो आई, अच्छा संदेश दिया, और चली गई। मैं ने सोचा था कि प्रसन्नता मेरी जीवन साथी है परंतु वह तो एक गणिका निकली।

यह मेरी नई पुस्तक 'जब सब ठीक न हो' (When All is Not Well) का एक अंश है (अध्याय ५ में से)। किंतु यह पुस्तक 'प्रसन्न कैसे रहा जाए' के विषय में नहीं है। अपितु यह उदासी के विषय में है, वह भी गहन उदासी। उन लोगों के वास्तविक जीवन की घटनाओं को उजागर करते हुए, जिन के साथ मैं ने काम किया है, यह पुस्तक सभी रोगों में से सर्वाधिक रहस्यमय रोग के विषय में है। नहीं, मैं ध्यान, साक्षात्कार, अथवा विवाह का सन्दर्भ नहीं ले रहा (इन सब के लिए कोई स्थाई उपचार नहीं है - परिहास मात्र लें !)। मैं एक ऐसी व्याधि के विषय में बात कर रहा हूँ जो आप के मानसिक, भावनात्मक व शारीरिक स्वास्थ्य पर एक साथ आक्रमण करती है। तीव्र व उग्र रूप से।

'जब सब ठीक न हो' (When All is Not Well) मानसिक अवसाद (डिप्रेशन) व उदासी के योगिक दृष्टिकोण पर है। और यह दर्शाती है कि कैसे डिप्रेशन गहन उदासी नहीं है। गहन उदासी मन की एक स्थिति हो सकती है जबकि मानसिक अवसाद एक रोग है। मैं रूमी की लिखी एक सुंदर कविता उद्धत कर रहा हूँ (पुस्तक में उल्लेखित है) -

तुम दिनों दिन तक यहाँ बैठे कहते हो,
यह अजीबोगरीब कारोबार है।
तुम खुद अजीबोगरीब कारोबार हो।

तुम्हारे अंदर सूरज का तेज है,
पर तुम उसे रीढ़ के आख़िरी छोर पर
फँसाए रखते हो।

तुम कुछ अजीब से स्वर्ण हो
जो पिघल कर भी भट्टी में ही रहना चाहता है,
कि कहीं तुम्हे सिक्का न बनना पड़ जाए।

डिप्रेशन का रोगी ऐसा ही अनुभव करता है - पिघला हुआ सोना जो भट्टी में ही पड़ा रहना चाहता है। 

मेरे विचार में मानसिक अवसाद हमारे समय की सबसे कम समझ आने वाली व सबसे अधिक अशक्त कर देने वाली अवस्थाओं में से एक है। यह किसी को भी, कभी भी, उनके जीवन की किसी भी अवस्था में, प्रभावित कर सकता है। आप की जीवन-शैली, आप की मानसिक बनावट या भावनात्मक रचना की परवाह किए बिना, कोई भी इस विकार से स्थाई रूप से प्रतिरक्षित नहीं है। जो बात डिप्रेशन के सन्दर्भ में विशेष रूप से परेशान करने वाली है वह है कि यह आप को हर उस विषय व व्यक्ति से दूर कर देता है जिस को आप जानते हों। आप अपने ही शरीर में, अपनी ही दुनिया में एक अजनबी सा महसूस करते हो। उससे भी बदतर यह कि डिप्रेशन के लिए कोई निश्चित उपचार नहीं है। मानसिक अवसाद दूर करने की दवाइयाँ बहुत सारे रोगियों पर तो काम करती हैं, वहीं बहुत से दूसरों की अवस्था में उनसे रत्ती मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। कुछ व्यक्तियों को ध्यान व योग से सहायता मिलती है, वहीं बहुत से अन्य इससे कोई लाभ प्राप्त नहीं कर पाते। संज्ञानात्मक व्यवहारिक चिकित्सा कुछ रोगियों पर तो काम करती है, वहीं बहुत से इसे समय की बर्बादी पाते हैं। क्यों? 

सत्य यह है कि मानसिक अवसाद का उपचार पूर्ण रूप से आप के डिप्रेशन के स्वरूप पर निर्भर करता है। और, यदि आप मानसिक अवसाद से पीड़ित हैं तो अकेले आप ही अपने डिप्रेशन की गंभीरता का पता लगाने में सबसे सही स्थिति में हैं। नि:संदेह, एक विशेशग्य सही निदान बताने में आप का सहायक हो सकता है, किंतु, अंत में अपने मनोभावों के आप ही सही निर्णायक हैं। 'मनोभाव' शब्द का प्रयोग करके मैं यह संकेत नहीं दे रहा कि डिप्रेशन मात्र एक मानसिक विकार व मनोदशा है। अपितु यह एक बहुत वास्तविक स्थिति है और अन्य रोगों के समान ही, इसे भी डाक्टरी विचार-विमर्श व उपचार की आवश्यकता हो सकती है।

लगभग चार वर्ष पूर्व, मैं ने डिप्रेशन पर संक्षेप में लिखा था और तभी से मुझे इस विषय पर अपने विचार विस्तार से लिखने के लिए अनेकों बार कहा जाता रहा है। इस कारण मैं ने “जब सब ठीक न हो” पुस्तक लिखी और मुझे घोषित करते हुए हर्ष हो रहा है कि हार्पर कौलिंस इंडिया ने पुस्तक के प्रकाशन की सहमति दे दी है। भारत में यह पेपरबैक के रूप में फ़रवरी २०१६ में आएगी। किंतु यह केवल भारत उपमहाद्वीप के पाठकों के लिए है।

विश्व के अन्य पाठकों के लिए मेरे पास इससे भी सुखद समाचार है। अमेज़ॉन.कॉम पर मुद्रितई-बुक दोनों संस्करण अभी से उपलब्ध हैं। आप पुस्तक को यहाँ से मंगवा सकते हैं। 

यदि आप इस समय अपने जीवन में गहरा विषाद अनुभव कर रहे हैं, या डिप्रेशन से जूझ रहे हैं, अथवा कभी अतीत में इसे भुगत चुके हों या आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हों जो पीड़ित है, तो मैं यह अपेक्षा रखूँगा की आप इसे पढ़ें। ऐसा ना समझें कि आप ने जीवन में सब कुछ खो दिया है। अभी आशा है। और मैं यहाँ कहना चाहूँगा कि आशा ही मात्र एक संभालने लायक वस्तु है, जब बात डिप्रेशन की हो। क्योंकि, किसी भी दूसरी बात से पहले, डिप्रेशन रूपी राक्षस अपने शिकार में से आशा को निचोड़ बाहर करता है। ऐसा प्रतीत होने लगता है कि यह आप को कभी भी नहीं छोड़ेगा। किंतु, अभी आशा है। वास्तव में है। और इसी आशा के साथ ही मैं ने यह पुस्तक लिखी है।

शांति।
स्वामी

अनुलेख: मेरी पहली पुस्तकों “इफ़ ट्रूथ बी टोल्ड” (यहाँ) और “द वेलनेस सेन्स” (यहाँ) के पेपर-बैक संस्करण भी अब संपूर्ण विश्व में उपलब्ध हैं।


मानसिक अवसाद (डिप्रेशन) - योगिक दृष्टिकोण

अवसाद के विषय में योगिक दृष्टिकोण वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कहीं अधिक गहन है। जहाँ विज्ञान मस्तिष्क का उपचार करता है, योग शास्त्र  का ध्यान मन की ओर है। 
आज मुझे किसी व्यक्ति के विषय में ज्ञात हुआ जो मानसिक अवसाद (डिप्रेशन) से पीड़ित हैं। मेरी हार्दिक इच्छा थी कि मैं उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलता, और इस दशा से निकल पाने में उनका सहायक होता। क्योंकि मेरी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए यह नहीं हो पाएगा, मैं इस लेख के माध्यम से अपना संदेश भेज रहा हूँ। मैं ऐसे बहुत से लोगों से परिचित हूँ जो अवसाद से पीड़ित रह चुके हैं; उनमें से कुछ इतने गंभीर रूप से प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी नौकरी भी छोड़ दी व वास्तव में अपने को घर के अंदर बंद कर लिया, बिल्कुल निर्जन काल कोठरी के समान। अन्य कुछ के साथ मैंने कई कई घंटे बिताए, कई महीनों की अवधि में, उन्हें इस स्थिति से बाहर लाने की सहायता करने में।

जब कोई अवसाद से प्रभावित होता है तो उसके परिचित व संबंधी भी इस का अनुभव करते हैं। तथापि परिवार के अन्य जनों को इसे ढाकना पड़ता है। क्योंकि यदि वे भी अपनी निराशाजनक स्थिति को अभिव्यक्त करना आरंभ कर देंगे तो रोगी को और अधिक कष्ट होगा। यह लेख अवसाद की परिभाषा, इस के कारण एवं उपचार पर केंद्रित हैं। इस विषय को लेख रूप में पूर्ण करना चुनौतीपूर्ण है, फिर भी मुझे प्रयास तो करना ही चाहिए। एक विस्तृत लेख पढ़ने के लिए तैयार रहें।

अपना दृष्टिकोण आप के सम्मुख प्रस्तुत करने से पूर्व मैं आप का ध्यान कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर ले जाना चाहता हूँ, जो निम्नलिखित हैं -

कृपया स्मरण रखें कि मैं चिकित्सा-शास्त्र नहीं बल्कि ध्यान का विशेषज्ञ हूँ। मेरा दृष्टिकोण मेरी वर्षों की योगिक क्रियाओं, ध्यान एवं कई महीनों की अत्यंत गहन साधना पर आधारित है। इस ध्यान-साधना का केवल एक ही प्रयोजन था - मन के वास्तविक स्वरूप का अनुभव करना; वह स्वाभाविक स्थिति पाना जो मन रूपी गुत्थी (ग्रंथि) को सुलझा देती है; मस्तिष्क नहीं, शरीर नहीं, केवल मन।

इस लेख में दी गई जानकारी प्रमुखतः व प्रत्यक्षतः उस ज्ञान पर आधारित है जो मेरे गहन ध्यान की साम्यावस्था के क्षणों में प्रस्फुटित होता है। अपनी बात को और स्पष्ट करने हेतु मैंने वेदों द्वारा प्रतिपादित ज्ञान का सहारा लिया है; इसलिए संस्कृत शब्दावली का प्रयोग किया है। इस के साथ साथ मेरे वह अनुभव भी आधार बने हैं जो उन सब व्यक्तियों की, जो अपने व्यक्तिगत जीवन के समय अवसाद से गुज़रे हैं, सहायता के समय मैंने अर्जित किए। यदि आप संसार को मेरी दृष्टि से देख पायें, तो दृश्य उसी क्षण रूपांतरित हो जाएगा। और मेरा दृष्टिकोण पाने के लिए आप को भी वही करना होगा जो मैं करता हूँ; अन्य सब तो घुटनों के बल पीछे पीछे चला आएगा। कृपया इस लेख के संदेश को समझने हेतु इसे कई बार पढ़ें।


अवसाद क्या है?

अवसाद मन की एक अवस्था है। यह एक शारीरिक व्याधि नहीं है; यह एक स्नायु विज्ञान (न्यूरोलॉजिकल) की अव्यवस्था नहीं है और यह बहुत विरले ही मस्तिष्क का ठीक कार्य न करना होता है। यह निश्चित रूप से मन की एक स्थिति ही है। और मन, संपूर्ण शरीर व उससे परे तक व्याप्त है। यही कारण है कि मन की संतुष्टि संपूर्ण शरीर को उसी प्रकार शांत कर देती है जैसे इस की बेचैनी पूरे तंत्र को अस्त व्यस्त कर देती है। रोगी के लक्षणों द्वारा अवसाद की गंभीरता का पता लगाया जा सकता है। हालाँकि मैं रोगी शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ, वास्तव में यह एक विरोधाभास है। अवसाद का कोई रोगी हो नहीं सकता क्योंकि यह एक रोग नहीं है जिससे कोई प्रभावित हो सकता हो। यह परस्पर टकराती वासनाओं का बेमेल होना मात्र है जिसे मन की प्रवृत्तियाँ कह कर भी जाना जाता है। मन ग़लत विधि से कार्य नहीं कर सकता चूँकि मन की वास्तविक अवस्था निर्मल आनंद है जो सभी प्रकार के व्यक्तिनिष्ठ चित्रांकन व द्वन्दों से परे है। अच्छा-बुरा, सही-ग़लत, सच-झूठ इत्यादि ऐसे मनोनयन व द्वन्दों के उदाहरण हैं।

अवसाद की गंभीरता को सही रूप से जाँचने के लिए कृपया निम्नलिखित भाग ध्यान से व धैर्यपूर्वक पढ़ें। मैं सरल बनाने का प्रयास करूँगा, किंतु हम एक जटिल विषय से जूझ रहे हैं। अतः इस के आशय को पूर्णतः आत्मसात करने हेतु जितना आवश्यक लगे उतनी बार इसे पढ़ें।

आप के पास तीन शरीर हैं - स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर। आप का स्थूल शरीर आप का वह दिखने वाला शरीर है जो हांड-माँस, अस्थि आदि का बना है। आप का सूक्ष्म शरीर आप की चेतन अवस्था है व भावनाओं का सम्मिश्रण है। आप का कारण शरीर आप की जीवात्मा (स्व) का रूप है। कारण शरीर पर स्थूल व सूक्ष्म दोनों शरीर निर्भर करते हैं। यह तीनों शरीर पाँच कोषों के साथ मिल कर कार्य करते हैं - अन्नमय कोष, मनोमय कोष, प्राणमय कोष, विज्ञानमय कोष एवं आनंदमय कोष। ये सब समग्र रूप से शरीर में उपस्थित पाँच मूलभूत उर्जातत्वों (वायु) को प्रभावित करते हैं - प्राणवायु, अपानवायु, उद्दानवायु, समानवायु, व व्यानवायु।

ऊर्जाओं (वायु) का परिचालन, कोषों की स्थिति व तीनों शरीरों को प्रभावित कर सकता है तथा तीनों शरीर विभिन्न वायु व कोषों को। आप के शरीर में जो भी होता है वह पूर्णतः उपरोक्त बातों से सीधा संबंधित है। इस लेख में मैं विभिन्न ऊर्जाओं व कोषों की व्याख्या नहीं करूँगा, अन्यथा ऐसा न हो कि यह एक पुस्तक बन जाए। तथापि मैं तीन शरीर व उनका सभी शारीरिक व मानसिक अवस्थाओं से क्या सम्बन्ध है जिसके उपचार के लिए ओषधि की आवश्यकता होती है, इस का संक्षिप्त में वर्णन करूँगा।


स्थूल शरीर (भौतिक शरीर)

आयुर्वेद व अन्य कई योगिक ग्रंथों के अनुसार आप का भौतिक शरीर सात मूल तत्वों से निर्मित हुआ है, ये हैं - रस, रक्त, माँस, मेदा, अस्थि, मज्जा व शुक्र। वात, पित्त और कफ - इन तीनों द्रव्यों की संरचना यह सुनिश्चित करती है कि आप का शरीर ग्रहण किए गये भोजन का क्या करता है, वह भोजन जिसमें साँस द्वारा ली गयी हवा से लेकर वे सब वसा युक्त मीठे व्यंजन शामिल हैं जिस का आप आनंद लेते हुए भोजन करते हैं। पाँच ऊर्जा (वायु) पाचन व चयापचय जैसी प्रक्रियाओं को प्रभावित करती हैं। यह विशुद्ध रूप से स्थूल शरीर के दृष्टिकोण से है। एक बार जब स्थूल शरीर भोजन को संसाधित कर लेता है तब सूक्ष्म शरीर (चेतना) अपनी अवस्था अनुसार निर्धारित करता है कि कितना भोजन आप के भौतिक शरीर को प्रभावित करे। यही कारण है कि कुछ व्यक्ति बहुत कम मात्रा में भोजन करते हैं परंतु अधिक मोटापा (वसा) एकत्रित कर लेते हैं व कुछ अन्य भोजन तो अधिक करते हैं परंतु उनका वजन नहीं बढ़ता।


सूक्ष्म शरीर (चेतना)

सरल शब्दों में कहें तो आप की चेतन अवस्था का ही दूसरा नाम सूक्ष्म शरीर है। किसी भी एक समय में आप की चेतना इन पाँचों में से किसी भी एक अवस्था में हो सकती है - चैतन्य, उपचैतन्य, अनाचैतन्य, अचैतन्य और पराचैतन्य। इस के साथ साथ आप स्वप्न, जागृत, सुषुप्त अथवा तुरीय - किसी भी अवस्था में हो सकते हैं। एक बार फिर, लेख को संक्षिप्त रखने कि दृष्टि से, मैं इस शब्दावली की व्याख्या फिर कभी करूँगा। अभी के लिया मैं चाहता हूँ कि आप इन शब्दों से परिचित हों ताकि आप एक व्यापक दृष्टिकोण रख पाएँ। यही वह स्थान है जहाँ आप की सभी भावनाएँ रहती हैं, वह है सूक्ष्म शरीर। शरीर की सभी स्वाभाविक क्रियाएं जैसे ह्रदय की धड़कन, नाड़ी-चालन, रक्तचाप आदि पर सूक्ष्म शरीर का प्रभाव होता है। सूक्ष्म शरीर पर नियंत्रण आप को शरीर की सभी स्वाभाविक क्रियाओं पर नियंत्रण करवा सकता है। मैं यह तथ्य अपने स्वयं के अनुभव से कह रहा हूँ जिसे मैं प्रयोगशाला की व्यवस्था के अंतर्गत प्रमाणित कर सकता हूँ।


कारण शरीर (जीवात्मा)

आप की जीवात्मा पर ही आप के भौतिक अस्तित्व व चेतन अवस्था का सीधा उत्तरदायित्व है। बहुत से योगिक ग्रंथ प्रतिपादित करते हैं कि मृत्योपरांत जीवात्मा एक शरीर से दूसरे शरीर की ओर प्रस्थान करती है, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार हम मैले वस्त्र त्याग कर नये धारण करते हैं। परंतु बात यहीं समाप्त नहीं होती; जीवात्मा अकेले ही यात्रा नहीं करती है। चित्तवृत्तियाँ भी इस के साथ ही जाती हैं। वह चित्तवृत्तियाँ जो शब्द, स्पर्श, रस, रूप, व गंध का आस्वादन कान, त्वचा, जिह्वा, नेत्र व नासिका के माध्यम से करते हुए - बाह्य जगत का अनुभव करते समय बलशाली हो चुकी हैं। एक तरह से कारण शरीर आप का असली स्वभाव है। यह आप की निर्मल आत्मा है, आप के मन की सहज अवस्था है। परंतु जिस प्रकार जंग लगा लोहा विद्युत का प्रतिरोधक होता है, ठीक उसी प्रकार प्रतिबंधित-आत्मा आनंद की प्रतिरोधक है। मन की सभी वृत्तियाँ आप के कारण शरीर में विद्यमान रहती हैं।


रोग का जीवन चक्र

सामान्यत: सभी शारीरिक रोग लक्षण मात्र होते हैं, न कि कारण। वे उस प्रतिबंधित चेतना के लक्षण हैं जो अब प्रदूषित है। जब सूक्ष्म शरीर तनाव में होगा तब रोग के चिन्ह भौतिक शरीर पर प्रकट होंगे। पर उपचार व चिकित्सा द्वारा भौतिक शरीर के कुछ रोगों का नियंत्रण संभव है, किंतु संपूर्ण आरोग्यता तभी आती है जब सूक्ष्म शरीर से मूल कारण जड़ से समाप्त कर दिया जाता है। एक ऐसे कैंसर के रोगी के विषय में सोचें जिसके पेट के ट्यूमर का ऑपरेशन हुआ हो। उसका ट्यूमर चाहे किसी भी प्रकार का हो, यदि वह अपनी जीवनशैली में परिवर्तन नहीं लाता, जो उसके भौतिक शरीर पर सीधा प्रभाव डालती है, और जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को नहीं बदलता - जो उसके सूक्ष्म शरीर पर सीधा प्रभाव डालता है, तो उसके ट्यूमर के फिर से उत्पन्न होने की संभावना बन जाती है। यदि वह अपने कारण शरीर से संबंध स्थापित कर पाता है - ध्यान के द्वारा या फिर गहन समर्पण के महाभाव द्वारा - तो वह रोग को अपने तंत्र में से बाहर निकाल फेंक सकता है, वह भी सदैव के लिए।

कुछ रोग भौतिक शरीर में उत्पन्न होते हैं व सूक्ष्म शरीर (अंतःकरण) से गुज़रते हुए कारण शरीर (आत्मा) को प्रभावित करते हैं। ऐसे रोग व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। इनको ठीक करना कुछ सहज व शीघ्र होता है, उनके मुकाबले जिनका कारण होता है एक रुग्ण कारण शरीर। ऐसे रोग जो विकृत मानसिकता के कारण सीधे सूक्ष्म शरीर में होते हैं, वे भौतिक शरीर की स्थाई व्याधियाँ बन जाते हैं। एक भावनात्मक असंतुलन व उससे पनपा रुग्ण सूक्ष्म शरीर - यही सभी चिरकालिक रोगों का मूल कारण होता है। कारण शरीर से उत्पन्न रोगों का निवारण सबसे अधिक समय लेता है, और प्रायः ये भौतिक शरीर को उसकी अंतिम अवस्था तक पहुँचा देते हैं।

आप की प्रतिबंधित आत्मा की अवस्था का आप के अंतःकरण (चेतना) पर सीधा प्रभाव पड़ता है जो परिणामस्वरूप आप के भौतिक शरीर पर असर करता है। जो व्यक्ति एक तनावरहित जीवन जीते हैं वे अक्सर स्वस्थ शरीर के साथ लंबी अवधि तक जीने का आनंद लेते हैं। भौतिक शरीर की क्रियाएँ अंतःकरण एवं आत्मा की अवस्था से प्रभावित होती हैं। उदाहरणस्वरूप, जो रोगी दवाओं की बेहोशी के प्रभाव में होता है वह हिल भी नहीं सकता क्योंकि उसका अंतःकरण (सूक्ष्म शरीर) मूर्च्छा के प्रभाव में है। और अन्य कोई जिसे मृत घोषित कर दिया गया है, अर्थात वह आत्मरहित है, वह कभी भी अपनी चेतन अवस्था में लौट नहीं पाता, कभी भी शरीर को हिला नहीं पाता।


अवसाद के कारण

एक प्रासंगिक प्रश्न - अवसाद किस कारण से होता है? अवसाद मन की एक स्थिति है। यह कारण शरीर में उत्पन्न होता है। मन अपनी ही अव्यक्त मनोवृत्तियों का शिकार बन गया है। यह अपनी इच्छाओं को दबाने या एक अतृप्त जीवन के कारण हो सकता है, यह दोनों ही अंतःकरण में व्याप्त अज्ञानवश होते है। बहुत से लोग एक अतृप्त जीवन जीते हैं; कुछ अपनी आत्मा की आवाज़ को अनसुना करना बेहतर समझते हैं जबकि अन्य कई इसे सांसारिक क्रिया-कलापों में डुबो देते हैं। परंतु एक दिन यह बाहर आ ही जाती है।

रुग्ण कारण शरीर के लिए कोई बाह्य औषधि नहीं हो सकती। अवसाद का उपचार जानने से पूर्व यह महत्वपूर्ण है कि अवसाद के प्रकार जान लिए जाएँ।


गंभीर अवसाद

यदि अवसाद के कारण आप का शरीर अस्वस्थ है व आप को उच्च रक्तचाप, भूख न लगना अथवा अनियमित रूप से भूख लगना आदि इसी प्रकार की अन्य समस्याएं उत्पन्न हो चुकी हैं तो आप का अवसाद आप के भौतिक शरीर तक पहुँच चुका है। हो सकता है आप कब्ज से भी पीड़ित हों। आप के अवसाद को 'गंभीर' तभी कहा जाएगा यदि उपरोक्त शारीरिक लक्षणों के साथ आप में 'हल्का अवसाद' व 'अवास्तविक अवसाद' के भी सभी चिन्ह उपस्थित हों। आप इस स्थिति में तनावपूर्ण जीवनशैली व भावनात्मक उठापटक के कारण हैं, व आप की आत्मा एक लंबी भुखमरी से गुज़री है; बस जैसे तैसे अपने को इस आध्यात्मिक अकाल में जीवित रखे हुए। इस का यह अर्थ कदापि नहीं है कि आप का अवसाद ठीक नहीं हो सकता। यह केवल इस बात का संकेत है कि आप को सभी तीनों स्तरों पर कार्य करना होगा। नीचे 'उपचार' खंड के अंतर्गत मैं इसे कुछ विस्तार से वर्णित करूँगा।


हल्का अवसाद

यदि आप का शरीर ठीक है किंतु आप जिन वस्तुओं का पहले आनंद लेते थे, अब अधिकतर पसंद नहीं आतीं, और आप अपने को अनिश्चित व उदासीन सा पाते हैं तो संभव है कि आप का अवसाद सूक्ष्म शरीर तक बढ़ गया है, परंतु अभी आप के शरीर को नहीं छू पाया। यह अभी अंतःकरण के स्तर पर ही है। इस को अनुशासन व प्रयास द्वारा ठीक किया जा सकता है।


काल्पनिक अवसाद

यदि आप के अवसाद के संकेत अत्याधिक ऊब जाना, आलस्य, उदासीनता, भावशून्यता , अनिद्रा, दुर्भीति व बेचैनी तक सीमित हैं, तो आप का अवसाद अभी प्रारंभिक स्तर पर है। आप अब भी स्वस्थ (हरे) निशान में हैं व एक अल्पावधि में ही अपना मौलिक मानसिक स्वस्थता फिर से पा सकते हैं।


अवसाद का उपचार

उपचार को असरदार बनाने के लिए आप का मेरे उपरोक्त शोध से तारतम्य रखना आवश्यक है। उपर लिखे भाग को पढ़ने के उपरांत यदि आप उससे सहमत हों तो आगे पढ़ें।

असली उपचार पर पहुँचने से पूर्व कृपया समझ लें कि आप का अवसाद केवल एक दिन के कृत्यों का परिणाम नहीं है, अतः रातों रात ठीक भी नहीं किया जा सकता। आप इस बात से उदास न हों कि आप शीघ्र अपने अवसाद से छुटकारा नहीं पा रहे। कृपया धैर्य रखें। आप निश्चित रूप से इस से उतनी ही आसानी से बाहर आ सकते हैं जिस आसानी से आप अवसाद की स्थिति में पहुँचे थे। किंतु इसे लेकर धैर्य बनाए रखें व शांत रहें। यह जान लें कि यह आप का मन ही है जो खेल खेल रहा है और यदि आप इसे रंगे हाथों पकड़ पायें तो यह रुक जाएगा।

अब उपचार की ओर चलते हैं -
यदि आप इस समय अवसाद से निकलने की दवा का सेवन नहीं कर रहे तो आधा कार्य तो हो ही गया। कृपया ऐसी गोलियाँ लेना आरंभ न करें। ये निद्राजनक पदार्थ हैं जिनकी रचना आप के मस्तिष्क को नकली शांति प्रदान करने के लिए हुई है जिससे आभास हो कि आप का मन शांत है। धीरे धीरे इनकी मात्रा बढ़ानी पड़ती है क्योंकि आप का मस्तिष्क इनका आदी हो जाता है।

न केवल अवसाद से पूर्ण रूप से छुटकारा पाने हेतु वरन पहले से अधिक स्वस्थ महसूस करने के लिए आप को तीनों स्तरों पर कार्य करना होगा - शरीर, अंतःकरण एवं आत्मा।


स्थूल शरीर (भौतिक)

अपने शरीर का स्वास्थ्य पुनः पाने के लिए निम्नलिखित, अथवा इसमें से कुछ सूत्र अपनायें -

१. अपने शरीर को थोड़ा थकाएं। जाएँ व जिम में व्यायाम करें या कोई खेल खेलें।
२. वह शाकाहारी पदार्थ खायें जो क्षारीय प्रवृत्ति के होते हैं। अम्लीय प्रवृत्ति के भोजन से परहेज करें। संपूर्ण आहार की मात्रा बढ़ायें। मिर्च मसालेदार व शुष्क पदार्थ न लें।
३. प्रतिदिन केवल एक नियत समय पर ही खायें। दो भोजन काल के मध्य अधिक दूरी न रखें। इस से शरीर अपने अंदर एकत्रित ऊर्जा का उपयोग करने के लिए उत्तेजित होता है जिससे इंसुलिन की मात्रा बढ़ जाती है।
४. प्रतिदिन एक नियत समय पर ही सोने जायें। नींद न आ पाने को तनाव का कारण न बनायें। अनुशासन समझ कर ही इस का पालन करें।
५. प्रत्येक दिन सुबह नियत समय पर ही उठें।
६. टी. वी. से दूर रहें। यह शरीर व मन को सुस्त करता है।

सूक्ष्म शरीर (चेतना)

सूक्ष्म शरीर को शुद्ध करने व अपने भावनात्मक स्वास्थ्य हेतु, निम्नलिखित अपनायें -

१. कुछ निष्काम कर्म करें अथवा किसी भावनात्मक संतुष्टि देने वाले सामाजिक या आध्यात्मिक उद्देश्य से जुड़ें।
२. जिससे आप को प्रसन्नता मिले, वह करें। यदि आप को घूमने जाना पसंद है, चित्रकला, भोजन बनाना, पढ़ना अथवा ऐसा कोई भी कार्य करना अच्छा लगता है, वह करें। अवसाद पर लिखे विभिन्न लेख व अन्य लोगों की कहानियाँ न पढ़ें।
३. उन लोगों से बात न करें जो आप को भावनात्मक रूप से शुष्क बना देते हैं। टेलीफोन पर बातचीत व तथ्यहीन वार्तालाप कम कर दें।
४. किसी को भी न बतायें कि आप अवसाद में हैं। अधिकतर लोग यही कहेंगे कि चिंता की कोई बात नहीं है, आप केवल तनाव में हो; और अन्य सब आप के लिए कुछ नहीं कर सकते।
५. और तो और, चिकित्सक भी, जब आप उनके पास कुछ एक बार जा चुके हो फिर भी अवसाद की शिकायत करते रहो, तो आप को अवसाद का शिकार घोषित कर के आप को किसी बेतुके दवाओं के नुस्खे पर डाल देंगे। मैं तो यह कहूँगा कि हो न हो यह अवसाद दवा बनाने वाली कंपनियों द्वारा बनाया गया एक षड्यंत्र मात्र है, जो उनके लिए लाभदायक है।

अवसाद भय का एक रूप नहीं है जिसे समाप्त करने के लिए आप को उसका सामना करना ही होगा। यह मन की एक अवस्था मात्र है, यद्यपि इच्छित अवस्था नहीं। जिस तरह आप आइसक्रीम के विषय में सोचें तो सही परंतु वह लें न, ठीक उसी प्रकार आप अवसाद को भी भगा सकते हैं। यह असंभव है कि आप यह जानें या अनुभव करें कि आप को अवसाद है, यदि आप इस के होने के विचार को वास्तव में मन में जगह न दें।


कारण शरीर (आत्मा)

प्रतिदिन अपने समय में से कम से कम ३० मिनिट निम्नलिखित करने में दें व देखें कि कैसे देखते ही देखते अवसाद चमत्कारिक रूप से गायब हो जाता है -

१. सुबह १५ मिनिट ध्यान में बैठें व १५ मिनिट सोने से पूर्व। अधिक समय तक बैठना और अधिक अच्छा होगा। इस से पहले कि आप ध्यान कर पायें, आप को एकाग्रता बनानी होगी। ऐसा करने के लिए एक मोमबत्ती जलायें, इसे अपनी आँखों के स्तर पर अपने से लगभग दो फुट की दूरी पर रखें व बिना पलकें झपकाए इसे देखें। पलकों को झपकने से रोकने में कुछ मेहनत लगेगी किंतु जितनी देर आराम से हो सके यह करें। यह त्राटक द्वारा एकाग्रता सिद्ध करने की उस मानक विधि से थोड़ा भिन्न है जिसमें आँखों को बिल्कुल भी झपकाया नहीं जाता।
२. अपने मन को सांसारिक विचारों से हटाने के लिए कोई भजन अथवा सुखद प्रतीत होने वाला संगीत सुनें।
३. जितना संभव हो अपनी दाईं करवट सोया करें। यह इडा नाड़ी व बाईं नासिका का संचालन तीव्र करता है व शरीर के तापमान को नीचे लाता है। इस के पीछे एक कारण है कि क्यों ध्यान की विधियाँ सर्द स्थानों पर फलती फूलती हैं। सर्दी में, व बाईं नासिका से श्वास लेने से मन की विभेदकारी क्षमता उल्लेखनीय रूप से शांत हो जाती है।
४. सदैव प्रसन्न मुद्रा बनाए रखने का प्रयास करें। यह जान लें कि आप ईश्वर के हाथ की कठपुतली हैं और वह आप का सदैव ध्यान रख रहे हैं। जो कोई भी उनकी शरणागति की आस लगाता है, वह निश्चित ही ईश्वर का कृपापात्र बन जाता है। इस विषय में संशय को मन में बिल्कुल भी स्थान न दें।
५. और सदैव मुस्कुरायें! प्रयास करें। उस मुस्कान को चेहरे से हटने न दें।

ध्यान पाँचों ऊर्जाओं को व्यवस्थित करता है व पाँचों कोषों का भेदन करता है।

इसे और साधारण तरह से कहा जाए तो आप तीन शरीर, पाँच कोष व पाँच ऊर्जाओं के सिवा और कुछ नहीं हैं। यदि आप तीन पहलुओं पर काम करते हैं - शरीर, अंतःकरण व आत्मा - तो आप २८ दिन के भीतर ठोस परिणाम देखेंगे।

इसे लगातार ४० दिन करना ऊर्जाओं को संतुलित करता है। अधिकतर योगिक क्रियायें अपना संपूर्ण प्रभाव दिखाने में ६ मास का समय लेती हैं। अतः इसे ६ महीने लगातार करना आप का अवसाद पूरी तरह दूर कर देगा, इस के साथ साथ आप के अंतःकरण की अवस्था एवं आप के चक्रों के घुमाव को रूपांतरित कर देगा। आप पूरी तरह से ठीक हो जायेंगे। छः महीने। कोई दवा नहीं।

जैसा कि रॉबर्ट फ़्रॉस्ट ने कहा है 'कार्य अभी बहुत बाकी है...समय बीतता जा रहा है ...' मैं इस विषय पर और बहुत कुछ लिखना व बाँटना चाहता हूँ, परंतु यह लेख पहले ही भयंकर रूप से लंबा हो चुका है। मैं आशा करता हूँ कि आप प्रयत्न करेंगे व उपरोक्त बातों को अपना कर बेहतर महसूस करेंगे।

ईश्वर करे कि सभी सचेतन प्राणी आनंद का अनुभव करें एवं रोग, निर्धनता व भूख से मुक्त जीवन व्यतीत करें।


शांति।
स्वामी

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