वार्तालाप - एक अनियंत्रित मन की प्रवृति

 जागरूक अवस्था में मन सदैव बातूनी और व्यस्त रहता है। वह एक बेचैन लंगूर की तरह इधर-उधर कूदता रहता है।

आत्म परिवर्तन की चर्चा को हम मानसिक परिवर्तन से आरंभ करते हैं। हमारा मन ऐसे विचारों से बना है जिनका कोई तत्व नहीं है। मन के ये विचार बातचीत का रूप लेते हैं। मौन रहने की साधना मानसिक परिवर्तन का आधार है। इस लेख में मैं वार्तालाप का वर्णन करूँगा। अगले आत्म परिवर्तन लेख में मैं मौन रहने की साधना पर लिखूँगा।

मानव अवेगों में बात करने की इच्छा बहुत बड़ी होती है। यह माना जाता है कि सभी जीवजन्तु अपनी अपनी भाषा में संवाद करते हैं। परंतु मनुष्य ने अपनी विकसित बुद्धि द्वारा विस्तृत संभाषण प्रणाली का निर्माण किया है। आप अपनी चारों ओर देखें तो लोगों को अधिकतर समय बात करते हुए ही पाएंगे। बोले गए हर शब्द सुने नहीं जाते हैं। बात करने की प्रवृति बेचैन मन से उत्पन्न होती है। क्या ऐसी संभाषण उपयोगी है या व्यर्थ, सकारात्मक है या नकारात्मक यह तो हर व्यक्ति की व्याख्या पर निर्भर है। इस विषय पर और चर्चा करने से पहले चलिए हम यह जानें की वार्तालाप कितने प्रकार के होते हैं, उसकी क्या उत्पत्ति और क्या प्रभाव होता है। मन की गतिविधियों के आधार पर बातचीत तीन प्रकार के होते हैं -

१. बाह्य
इस प्रकार के वार्तालाप बाहरी संसार पर केंद्रित मन का परिणाम होते हैं। दूसरों के साथ शब्दों या इशारों से की गई हर प्रकार की बातचीत बाह्य होती है। यह संभाषण ही अधिकतर लोगों के दिन का अधिकांश भाग होता है। यह फोन, ईमेल इत्यादि हो सकते हैं। इस प्रकार के संभाषण मन की अशांति को बढ़ाते हैं। मन के बाहर की ओर केंद्रित होने का यह एक प्रमुख कारण है। मन जब बहिर्मुखी बन जाता है वह बाहरी वस्तुओं से आनंद उठाने पर विवश हो जाता है। ऐसी यात्रा अनंत आनंद प्रदान करने में असमर्थ होती हैं - इस में कुछ छोटी खुशियां तो मिल सकती हैं किंतु परमानंद नहीं मिल सकता।

इन वार्तालापों की संख्या को जितना हो सके कम करें - यह मन को अपने अंदर की ओर केंद्रित करने की एक निपुण विधि है। संभवतः आप के व्यक्तिगत, व्यावसायिक एवं सामाजिक गतिविधियों के कारण इन्हें तत्काल रोकना संभव नहीं, परंतु यदि मेहनत करें तो आप धीरे-धीरे इस पथ पर अवश्य प्रगति करेंगे। यदि आप को लंबी अवधियों के लिये शांत रहने की आदत हो जाए तो मन में शांति की अनुभूति करेंगे। यह स्वतः बात करने की प्रवृति को कम करेगा। अगली बार मौसम, राजनीति आदि के विषय पर बात करना चाहते हों तो उस प्रवृति को रोकें क्योंकि आप को उससे कुछ भी नहीं मिलेगा और संभवतः वह अन्य व्यक्ति वास्तव में आपके दृष्टिकोण को सुन भी नहीं रहा हो। संभाषण के समय अधिकतर लोग वास्तव में आप की बातों को ध्यान से सुनते नहीं हैं। वे केवल वक्ता की बात पूरी होने की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं ताकी वे स्वयं अपनी बात प्रारंभ कर सकें।

अधिकतर सामाजिक संभाषण व्यर्थ एवं अनावश्यक होते हैं जिसके कारण मन उतावला रहता है। सामाजिक नेटवर्किंग वेब साइटों के आगमन से इस प्रकार के वार्तालाप हमारे जीवन का एक बड़ा अंश बनते जा रहे हैं। यह केवल अधीर मन की बेचैनी बढ़ा रहा है।

२. मानसिक
इस प्रकार के संभाषण एक अस्थिर मन का परिणाम होते हैं। जब आप किसी से बात नहीं कर रहे हैं संभवतः आप अपने आप से बातचीत कर रहे हैं। विचारों का अनुकरण करना और मन को उस में व्यस्त रखना मानसिक बातचीत होती है। यह आप के मन को शांत नहीं रहने देती हैं। शांतिपूर्वक ध्यान करने में मानसिक बातचीत सबसे बड़ी बाधा होती है। कईं वर्षों से समाज और बाहरी दुनिया से प्रभावित होने के कारण आपके मन को बाह्य अथवा मानसिक बातचीत करने की आदत हो गयी है। एक बेचैन मन का स्पष्ट लक्षण मौन रहने की असमर्थता है। विचारमग्न मन, रोता हुआ नकारात्मक मन, कामुक भावुक मन और एक बातूनी बेचैन मन यह सब मानसिक संभाषण के उदाहरण तथा स्रोत और प्रोत्साहन हैं। जहाँ तक मुझे ज्ञात है इन वार्तालापों को रोकने की केवल दो विधियां हैं। एक अस्थायी विधि है अपने मन को कहीं और अलंकृत करना या एक स्थायी समाधान है अपने मन को शांत करना। एक बौद्धिक इच्छा (बौद्धिक इच्छा के विषय में आप इच्छा वृक्ष नामक लेख में जानेंगे) की ओर अपने मन को केंद्रित करने से आप मन को कहीं और अलंकृत कर सकते हैं। भक्ति भाव में अपने आप को स्थापित करके या ध्यान के अभ्यास के द्वारा मन को शांत किया जा सकता है।

यद्यपि ध्यान का मार्ग कठिन है, एकाग्रता एवं संकल्प से महत्वपूर्ण परिणाम मिल सकते हैं। जब तक आप को ध्यान के अभ्यास में प्रवीणता प्राप्त नहीं होती तब तक मानसिक संभाषण के बारे में सचेत रहें। यदि आप अपने आप को मानसिक वार्तालाप करते हुए पाएं तो उस को तुरंत बंद करें। उसे नियंत्रित या प्रतिबंधित करके नहीं रोकना चाहिए अपितु उपेक्षित करके या अपने लक्ष्य की ओर ध्यान केंद्रित करके रोकना चाहिए। याद रखें कि आपका मन तभी बात करता है जब आप उस की सुनते हैं।

३. सूक्ष्म
यदि आप किसी और से बात नहीं कर रहे हैं और ना ही अपने आप से बात कर रहे हैं तो संभवत: आप सूक्ष्म संभाषण कर रहे हैं। मन अशांत एवं बेचैन है तो आप उसे व्यस्त रखना चाहते हैं, कईं बार अनिच्छा से - जिस प्रकार एक अधीर और शरारती बालक के माता पिता उसे व्यस्त रखना चाहते हैं। ये सूक्ष्म वार्तालाप क्या है? यदि आप किसी से बात नहीं कर रहे हों, ना ही अपने आप से बात कर रहे हैं किंतु आप दूसरों को बात करते हुए सुन रहे हों तो आप सूक्ष्म बातचीत कर रहे हैं। सूक्ष्म बातचीत को पता लगाना कठिन है। वास्तव में आपका मन देखी या सुनी गई बातों का परीक्षण कर रहा है जिससे आप या तो सुख या दुख का अनुभव करते हैं अथवा केवल मन व्यस्त रहता है। इन वार्तालापों द्वारा आप कुछ उपयोगी नहीं कर सकते। टेलीविज़न देखना या रेडियो सुनना सूक्ष्म बातचीत के उदाहरण हैं। बिना किसी पूर्वाग्रह से देखा जाए तो सामान्य रूप से पुरुष पहले दो प्रकार के वार्तालाप महिलाओं जितना नहीं करते हैं इसलिए वे प्राय: इस प्रकार के बातचीत में और अधिक व्यस्त रहते हैं। महिलाओं की तुलना में आप पुरुषों को टेलीविज़न और अधिक देखते हुए पाएंगे। जितना अधिक मन उतावला है व्यक्ति उतना ही अधिक चैनलों को बदलता है। पुस्तक पढ़ना एक उपयोगी प्रकार का सूक्ष्म संभाषण है। पुस्तक पढ़ते समय आप का मन परीक्षण करने से अधिक सुन रहा है और सीखने में मगन है।

संक्षेप में एक अनियंत्रित मन को अधीरता से बाहर आने का एक द्वार चाहिए और बातचीत ठीक वही प्रदान करती है। यदि मन सदैव बात करता रहे तो कैसे मौन अवस्था प्राप्त कर सकता है! इसी कारण लोगों को नींद आरामदायक लगती है। नींद से शारीरिक लाभ मिलता है और व्यक्ति को सपनों के अतिरिक्त बातूनी मन का कोई आभास ही नहीं होता। इसी कारण नींद के समय ही मस्तिष्क की कोशिकाओं की मरम्मत होती है। सूक्ष्म बातचीत पर अपनी निर्भरता को जांचने के लिए पूर्व निर्धारित कुछ दिनों के लिए समाचारपत्र नहीं पढ़ने, टेलीविज़न नहीं देखने या रेडियो नहीं सुनने का संकल्प एक अच्छी विधि है। यदि आप किसी वस्तु से वंचित हों तभी यह पता लगाया जा सकता है कि आप उस पर कितना निर्भर हैं।

वार्तालाप की प्रकृति (उदाहरणार्थ भौतिक या आध्यात्मिक वार्तालाप) से आप के मन की स्थिति पर एक अस्थायी असर पड़ सकता है। कोई भी संभाषण सुखदायी, अप्रिय या तटस्थ हो सकता है। आप को सुखद बातचीत दिलचस्प लगती है। अप्रिय बातचीत से आप दूर रहना चाहते हैं और तटस्थ बातचीत आप के रुचि के अनुसार आप को कैसी भी लग सकती है। किसी भी वार्तालाप में रुचि होना या ना होना यह आप के सोच-विचार से प्रभावित मन पर निर्भर है। उदाहरण के लिए जिसने अपने मन को राजनीति या वाहनों की जानकारियों से अभ्यस्त किया हो उसे उन विषयों में और अधिक रुचि होगी उनकी तुलना में जो ललित कला या साहित्य में रुचि रखते हों।

मन बहुत शांत होता है यदि वह अपने वश में हो और वह कोई भी प्रकार के संभाषण नहीं करे। ऐसी शांति में ही आप मन के वास्तविक स्वरूप का अनुभव कर सकते हैं। यदि मन चाहे लंबी अवधि के लिए इस शांति के अनुभव को धारण करने में सक्षम रहें तो समाधी आप के लिए सहज है। एक बार समाधी को बनाए रखने में आप सक्षम हो जायें तभी वास्तविक कार्य आरंभ होता है। इसके बारे में बाद में लिखूँगा।

इन वार्तालापों को त्यागने के लिए जिन प्रथाओं को अपनाया जा सकता है उनका मैं आगे अन्य किसी लेख में वरण करूँगा। अभी के लिए केवल इस विषय पर जागरूकता ही आप को उकसाने के लिए पर्याप्त है। और निस्संदेह आप सचेत प्रयास से सभी प्रकार की बातचीत को कम कर सकते हैं और एक शांत मन का लाभ उठा सकते हैं।
(Image credit: Anup Shah/Fiona Rogers/Solent)
शांति।
स्वामी



 

विचारों से प्रभावित नैतिकता

क्या नैतिकता अप्रभावित एवं सामान्य है? क्या पाँच व्यक्तियों के जीवन को बचाने के लिए आप एक व्यक्ति को मार देंगे? ट्राली के नैतिक प्रयोग को पढ़ें।
नैतिकता के विषय पर मुझसे प्रायः प्रश्न किए जाते हैं। लोग जानना चाहते हैं कि क्या यह उचित है या अनुचित, कि कोई कार्य या व्यवहार नैतिक है या अनैतिक। उचित और अनुचित की क्या परिभाषा है? मैं आपसे पूछता हूँ - हम नैतिकता और अनैतिकता का विभेदन कैसे करें? वे जो मुझसे इस प्रकार का प्रश्न करते हैं प्रायः नैतिकता पर ससक्त विचार रखते हैं। इस में कोई बुराई नहीं - उन की सोच स्पष्ट है। परंतु अधिकतर उनके यह विचार उनके स्वयं के नहीं होते। यह विचारधारा तो मात्र समाज या उनके बड़ों की एक धरोहर है। हर पीढ़ी यह समझती है कि वह विचारधारा ही उचित है।

यदि आप एक पल विचार करें, आप पाएंगे कि न केवल आपकी नैतिकता आपके सोच-विचार से प्रभावित है, अपितु वह आपके हालात और परिस्थिति पर भी निर्भर है। संभव है जीवन में आपके अपने मूल सिद्धान्त हों परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि आपका हर निर्णय पूर्ण रूप से स्वतंत्र, उचित एवं सुनिश्चित है। यह इस पर भी निर्भर करता है कि आप कहाँ रहते हैं, और किस धर्म का पालन करते हैं। कुछ कार्य जो आपके समाज में नैतिक हों, दूसरों के लिए अनैतिक हो सकते हैं। चलिए मैं आपको एक दिलचस्प नैतिक प्रयोग के बारे में बताता हूँ जिसे फिल्लिपा फूटे ने सन १९६७  में रचा था।

कल्पना कीजिए कि दो रेल पटरियां हैं। पाँच व्यक्ति एक रेल पटरी पर बंधे हैं और केवल एक व्यक्ति दूसरी रेल पटरी पर बंधा है। उन्हे पटरियों से बंधनमुक्त करने का समय नहीं है। और एक रेलगाड़ी तीव्र गति से आगे बढ़ रही है। यदि रेलगाड़ी को रोका ना जाए तो वह उन पाँच व्यक्तियों को कुचल देगी। आप उत्तोलन दंड के समीप खड़े हैं। यदि आप उत्तोलन दंड को खींचते हैं, तो रेलगाड़ी दूसरे मार्ग पर चली जाएगी और उन पाँच व्यक्तियों की जान बच जाएगी। परन्तु इस कार्य के फलस्वरूप उस एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाएगी जो दूसरी पटरी पर बंधा है।

आप क्या करेंगे? क्या आपको पाँच व्यक्तियों को मरने देना चाहिए या उस एक व्यक्ति को मार कर पाँच व्यक्तियों का जीवन बचाना चाहिए? यदि वह एक व्यक्ति आपका कोई रिश्तेदार हो तो? साथ ही साथ इन दो प्रयोगों पर भी विचार करें।

प्रथम प्रयोग
कल्पना कीजिए एक ट्राली बड़ी तेज़ी से पाँच व्यक्तियों  की ओर बढ़ रही है। आप एक पुल पर हैं, जिसके नीचे से यह ट्राली जाएगी, और आप किसी वजनदार वस्तु को उसके सामने गिराकर उसे रोक सकते हैं। जैसे ही यह सब हो रहा है एक बहुत भारी व्यक्ति आपके निकट खड़ा है। आपका एक मात्र विकल्प इस ट्राली को रोकने का यह है कि आप उस मोटे व्यक्ति को पुल के ऊपर से उस ट्राली के मार्ग पर गिरा दें। इससे उस व्यक्ति  की मृत्यु हो जाएगी, परन्तु उन पाँच व्यक्तियों का जीवन बच जाएगा। क्या आपको यह विकल्प अपनाना चाहिए?

द्वितीय प्रयोग
एक उत्कृष्ट रोपाना सर्जन (ट्रांसप्लांट सर्जन) के पास पाँच रोगी  हैं। हर एक को एक अलग अंग की आवश्यकता है। उस अंग के आभाव में उनकी मृत्यु निश्चित है। दुर्भाग्यवश, इन पाँचों अंगों के रोपण के लिए किसी भी अंग की उपलब्धता नहीं है। इस चिकित्सक के स्थल पर उसी समय एक स्वस्थ युवा सामान्य निरीक्षण के लिए आता है। निरीक्षण के दौरान, चिकित्सक को यह ज्ञात होता है कि उस युवा के अंग उन अन्य रोगियों के अंगों के रोपण के योग्य हैं। क्या चिकित्सक को उस स्वस्थ युवा की बली देकर उन पाँचों रोगियों की जान बचानी चाहिए?

इन सभी प्रयोगों में, एक व्यक्ति के जीवन का त्याग पाँच व्यक्तियों को जीवित रखने के लिए किया गया है। परंतु नैतिकता के प्रश्न इतने सरल नहीं होते। जीवन निर्विवाद नहीं होता। आपको वास्तव में किसी धर्म या किसी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं, यह बताने के लिए कि क्या उचित है और क्या अनुचित। क्योंकि वे तो सामान्य रूप से ही व्याख्यान करेंगे, जबकि आपका जीवन सामान्य नहीं - उसे तो केवल आप ही व्यक्तिपरक ढंग से समझते हैं। यदि आप सामान्य रूप से उचित और अनुचित का विभेदन करने लगें, तो केवल आप स्वयं को और अधिक दोषी पाएंगे। अपनी सोच को स्वतंत्र करें। मैं यह नहीं कह रहा कि आप नियमों का पालन ना करें परन्तु मैं आपके समक्ष यह सुझाव रख रहा हूँ कि, किसी भी नियम का अनुसरण करने से पहले आप उसका निरीक्षण करें। करुणा के मार्ग पर चलने का प्रयास करें - यह सदैव लाभदायक होता है।

यदि आप जीवन में निराशाजनक परिस्थितियों का सामना कर रहे हों तो अपने अंतर मन की आवाज़ सुनें। फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की के शब्दों में : "इस बुद्धी से अधिक महत्वपूर्ण वे हैं जो बुद्धी का मार्गदर्शन करते हैं - चरित्र, ह्रदय, उदारता तथा प्रगतिशील विचार।"  बुद्धी तो गणना करने वाला यन्त्र है। इसमें किसी भी कार्य को सही सिद्ध करने की क्षमता होती है। अन्ततः  आपका चरित्र ही आपको आपके सिद्धान्तों पर अडिग अटल रहने की क्षमता प्रदान करेगा। सोच-विचार से प्रभावित नैतिकता तो गणनात्मक होती है - यदि आप यह करें तो परिणाम स्वरूप यह होगा, यह इस कारण से अच्छा है और यह इस कारण से बुरा। अपितु अप्रभावित नैतिकता में कोई गणना नहीं की जाती - वह तो केवल अपने बनाये गए मानदंड का पालन करना है, चाहे वह नैतिक मानदंड हो या नहीं। हालात और परिस्थिति से परे नैतिकता? यह केवल मिथ्या है।

अपने व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करने में संकोच ना करें। अपना मानदंड स्वयं स्थापित करें।
(Image credit: Kip DeVore)
शांति।
स्वामी

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