दो प्रकार का क्रोध

जो अग्नि कमरे को उष्मा देती है, वही अग्नि घर को जला भी देती है। दिग्भ्रमित भावनाओं का प्रतिफल क्रोध होता है।
पिछले पोस्ट को आगे बढाने के क्रम में आज मैं क्रोध के दो प्रकार पर विस्तृत प्रकाश डालूँगा। क्रोध एक प्राकृतिक भाव है। कोई भी मनुष्य जिसके मन में प्रेम, करूणा और दया की भावना है वह आक्रोश घृणा और इस तरह की अन्य भावनाओं से भी घिरा हो सकता है। जो भी हो किन्तु अपने विचारों पर डिगे रहना निश्चित रूप से क्रोधित होना नहीं है। अतः आप यह कैसे जानेंगे कि अनुशासित करने की कोई भी भंगिमा क्रोध की उपज नहीं किन्तु आवश्यकता है। क्रोध नकारात्मक ऊर्जा को बढाती है जो आपको तत्क्षण ही कमजोर बना देती है। यहाँ पर सर्वोपरि बात यह है कि क्रोध और अनुशासन में प्राथमिक अंतर यह है कि क्रोध अप्रत्याशित, अकस्मात् और अनियंत्रित होता है।

एक समय की बात है कि एक युवक था। वह अपने क्रोध की ज्वार से थक गया था। यहाँ तक कि उसके इर्द-गिर्द रहनेवाले भी इससे उससे थक गए थे। वह छोटी सी बात पर भी पागलपन की हद तक क्रोध करता और फिर बाद में क्षमा याचना करता। उसकी क्षमा याचना का कोई प्रभाव नहीं होता था क्योंकि उसके क्रिया कलाप उसके शब्दों को पूरा करने में चूक जाते थे। उसने अपने आप को समझा लिया था कि जन्मजात क्रोध उसमें बसा हुआ है जो नियंत्रण से परे है। उसे हैरानी होती थी कि उसके अपने प्रिय लोग यह कैसे नहीं देख पा रहे हैं और वो जैसा है वैसा ही उसे क्यों नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं? वह अपने गुरु के पास गया और उनसे याचना की कि उसपर कुछ प्रकाश डालें।

स्वामीजी ने कहा, "लकड़ी का एक तख्ता लाओ। हर बार तुम्हें जब क्रोध आये, इस तख्ते पर एक कील ठोंक दो। जब यह भर जाए तो वापस आकर मुझे बताओ।"

वह आदमी वापस चला गया और परामर्श का गंभीरता से पालन करने लगा। शीघ्र ही, कुछ सप्ताहों में ही उस तख्ते पर कोई जगह नहीं बचा बची और वह पूरी तरह कीलों से भर गया। तख़्त की इस स्थिति को देखकर वह बहुत लज्जित हुआ। वह गुरूजी के पास वापस गया और बताया कि तख़्त पूरी तरह कीलों से भर गया है।

"अब अपने क्रोध की ज्वाला को नियंत्रित करने का जाग्रत प्रयास करो। जब कभी तुम अपने क्रोध के ज्वार को नियंत्रित करने में सफल हो, तख्ते में से एक कील निकाल लो। जब तख़्त पर एक भी कील नहीं बचे तो उसे यहाँ ले आना।"

वह विजयी हुआ। तख़्त पर से सारे कीलों को निकालने में कई महीने लग गए। उसे क्रोध को नियंत्रित करने की अनुभूति का अच्छा अनुभव हुआ। दुबारा उसे उस तख़्त को कील रहित देखकर उसने चैन की साँस ली और अपने गुरु के पास गया।

गुरूजी ने तख़्त को अपने हाथ में लिया और कहा, "वाह! मैं देख रहा हूँ कि तुमने तख़्त को बिल्कुल साफ़ कर दिया है। किन्तु मैं बहुत प्रेम पूर्वक ऐसी इच्छा करता हूँ कि काश तुम इस तख्ते पर बने हुए छिद्रों को मिटाकर इसे पहले की तरह बना देते।"

"क्रोध में किये गए क्षति को दूर किया जा सकता है तख्ते में लगाए गए और फिर बाहर निकाले गए कील की मानिंद, फिर भी इसे मिटाया नहीं जा सकता। चिन्ह हमेशा के लिए रह जाएगा।"

यह एक बहुत सामान्य सी भ्रांति है कि क्रोध को बाहर निकालकर हम हल्का अनुभव करते हैं। जबकि यह जितना सत्य है उतना ही असत्य, इससे हुयी क्षति अपूरणीय है। अपने क्रोध को रखना एक बड़ी भूल की तरह है। यहाँ आवश्यकता है क्रोध को, भावुकता की स्थिति को प्रेम, करूणा, समानुभूति और अन्य सशक्त एवं श्रेष्ठ भावनाओं में परिवर्तित करने की।

आप अपने क्रोध को कैसे अनुभव करते हैं और व्यक्त करते हैं, यह प्रायः आपकी भावात्मक स्थिति, मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति, आपका पालन-पोषण और अन्य दूसरे कारक जैसे आपके घर और बाहर का वातावरण, तथा धर्म और संस्कृति का अनुबंधन है। मैं आपको क्रोध के दो तुल्यता प्रस्तुत करता हूँ:

1. ज्वालामुखी

कुछ लोग ताप में आने पर ज्वालामुखी की तरह फट पड़ते हैं, जब विपरीत परिस्थितियों का दबाव पड़ता है तो वो गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं। वे अपने क्रोध की अभिव्यक्ति भावनात्मक आवेग, आवेश में करते हुए उन्मत्त हो जाते है। क्षण भर में क्रोधित हो जाते हैं और फिर एक दम से ठंढे हो जाते हैं, शीघ्र ही सामान्य हो जाते हैं। फिर वे अपने किये पर पश्चाताप करते हैं, क्षमा भी मांगते हैं, और दुबारा क्रोध न करने की शपथ भी लेते हैं। किन्तु यह सब अनुपयोगी और निरर्थक सिद्ध होता है। अगली बार जब भी इनका सामना प्रतिरोध या ताना-तानी से होता है, ये बिल्कुल वैसे ही व्यवहार करते हैं जैसा कि पिछली बार किया था।
क्यों? क्योंकि क्रोध का आवेग उनके लिए पलायन का रास्ता है। और! चूँकि यह उनका क्रोध से निपटने का साधन बन गया है, कठिन परिस्थितियों का सामना करने के लिए भी ये अपने क्रोध के आवेग का ही सहारा लेते हैं, जब तक यह सब इनके निज का शरीर सह पाता है। जैसा कि ये वांछनीय परिस्थिति में प्रसन्न हो जाते हैं, अवांछनीय परिस्थिति में क्रोधित होना जारी रखते हैं।

यदि आप किसी भी नकारात्मक प्रतिक्रिया को अपने निपटने के साधन की रूप में स्वीकार करते हैं तो आप तत्क्षण ही अपनी नकारात्मक भावना को सकारात्मक भावना में बदलने की क्षमता खो देते हैं। अधिकतर आवेग उपयुक्त रास्ता नहीं है, यह बिल्कुल लकड़ी के तख्ते पर ठोंके गए उस कील की तरह है जो एक साश्वत चिन्ह छोड़ जाएगा।

क्रोध को जारी रखना आपके क्रोध को कम नहीं करेगा, यह आपको शान्तिपूर्वक रहने नहीं देगा। अब प्रश्न यह है कि क्यों कुछ लोग क्रोध में उत्तेजित हो जाते हैं जबकि वे यह जानते हैं कि यह क्षति ही कर रहा है, जबकि वे ऐसा होने देना कम-से-कम चाहते हैं, उन्हें क्या बाध्य करता है? पढ़ते रहिये।

2.  कुम्भक या काफी को ब्रू करने का यंत्र

एक निश्चित अवधि के बाद भी जब आप काफी को उबालते हैं या ब्रू करते हैं तो क्या होता है? यह वह कड़वा हो जाता है, इतना अधिक कड़वा हो जाता है कि पीने योग्य नहीं रहता। किसी भी तरह से, किसी भी शहद से मीठा नहीं किया जा सकता। इसी तरह जब कोई व्यक्ति नकारात्मक भावनाओं को अपने अन्दर पकड़ कर रखता है वह नकारात्मक भावनाओं की ब्रेविंग होने भावनाएँ अन्दर ही अन्दर उबलने लगती हैं जो उस व्यक्ति को भी कटु बना देती है। जबतक कड़वाहट को पकड़ कर रखते हैं, कटुता भी बढ़ती जाती है।
क्रोध को ब्रू करना या अन्दर दबाये रखना क्रोध के आवेग को तीव्र करता है क्योंकि क्रोध का आवेग लक्षण, कारण या कोई प्रतिफल नहीं है अपितु नकारात्मक भावनाओं को अपने अन्दर लम्बे समय तक संचित रखना है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि भाप से पकाए हुए डम्पलिंग को माइक्रोवेभ में गर्म किया जाए। एक निश्चित तापमान तक तो डम्पलिंग ठीक रहेगा लेकिन उससे अधिक होने पर वह फट जाएगा, चारों ओर बिखर जाएगा, खाने लायक भी नहीं रहेगा, और परोसने लायक भी नहीं रहेगा।

ब्रुवर वास्तव में जानलेवा है, यह धीमा जहर है। ज्वालामुखी से भिन्न इसे ह्रदय में रखा जाता है। बहुत से लोग क्रोध और नकारात्मक भावनाओं को अपने ह्रदय में बसाए रखते हैं, ये इसे जाने नहीं देते। एक अंगीठी के बारे में सोचिये, इसमे जो लकड़ी जलाई जाती है उससे पूरा कमरा गरम हो जाता है, लेकिन यदि लकड़ी को सही तरीके से नहीं जलाया जाए तो यह आसानी से पूरा घर जला सकती है। ठीक इसी तरह से जो लोग अपनी भावात्मक स्थिति को नियंत्रित करना नहीं जानते हैं तब ये भीषण रूप ले सकता है। क्रोध अपर्याप्त तरीके से सम्हाले गए भावनाओं का फल होता है, स्वयं के भावात्मक पीड़ा का सही उपचार नहीं करने का प्रतिफल है, लगभग भ्रमित प्रेम जो कि नकारात्मक भावना का रूप धारण कर लेती है, उसमें निहित उष्मा, वो उष्मा जो नकारात्मकता को पिघला सकती थी अब वास्तव में ब्रू कर रही है।

यदि आप सचमुच गंभीर हैं क्रोध को अपने तंत्र से पूरी तरह निकालने के लिए, आपको स्वयं अपने उपचार पर काम करना होगा, जब तक आप अपने स्वयं का अभयारण्य, अपनी आतंरिक शान्ति और मौन का, नहीं ढूंढ लेते तब तक क्रोध आ सकता है और अनभिग्यता की स्थिति में आपको जकड़ ले सकता है, शीघ्र ही आपको असंतुलित कर देगा; किसी भी समय, जब आपको उकसाया जाएगा या प्रतिरोध होगा।

अगले एक-दो पोस्ट में, मैं तीन तरह के क्रोधी व्यक्तियों के बारे में लिखूंगा, उसके बाद क्रोध पर विजय पाने की विधि।
(Image credit: Chris Rogers)
शांति।
स्वामी

लोग क्रोध में चिल्लाते क्यों हैं?


क्रोध आपका क्वथनांक है। क्रोध के उबाल की शीघ्रता परिस्थिति या विषय के प्रति आपकी संवेदनशीलता और उसे आहत करनेवाले तत्वों के ताप पर निर्भर करती है।
क्या क्रोध प्रेम का दूसरा पक्ष है? सच में नहीं। यह तो स्वीकृति के विपरीत और शांति का दूसरा पक्ष है। आप तभी क्रोधित हैं जब अपने अंतर्मन में शांत नहीं हैं। मसीह ने क्रोध नहीं किया जब उन्हें सूली पर लटकाया गया, बुद्ध ने क्रोध नहीं किया जबकी उनके ऊपर थूका गया, सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेगबहादुर, को गर्म तवे पर बैठाया गया और उनके शरीर पर दहकता हुआ रेत डाला गया। उन्होंने क्रोध नहीं किया। क्या इसका ये अर्थ है की इनलोगों को जो प्रताड़ना सहनी पडी वो ठीक था? बिलकुल नहीं। कोई तो अवश्य कारण होगा कि इन महान संतों ने क्रोध त्याग दिया और सब कुछ के ऊपर शांति को चुना।

आप किसी व्यक्ति या उसके कार्यों को स्वीकार करते हैं इसका ये अर्थ नहीं कि आप उनसे सहमत हैं, बल्कि आप कोई धारणा नहीं बना रहे। अपने स्वयं के शांति के लिए, अपने अन्तःमन को शांत और मौन रखने के लिए, जब आपको लगता है कि आपके साथ गलत हुआ है, तब आपके पास दो विकल्प है अपने आप को क्रोध के वश में आने से रोकने के लिए, स्वीकार या उपेक्षा। उपेक्षा करना व्यवहारिक हो सकता है पर स्वीकृति दिव्य। जबकि स्वीकृति को झुठलाया नहीं जा सकता, ये केवल स्वीकार करने की बात नहीं है, आप अपने आप को शांत नहीं रख सकते यह कहकर कि आप दूसरे के कर्म को स्वीकार कर रहे हैं विशेषकर जब आप आश्वस्त हैं कि दूसरे की गलती है।

इससे पहले कि मैं अपना सन्देश आपको दूं, मैं आपको एक बहुत ही सुन्दर कहानी बताता हूँ जिसे मैंने पढ़ा था .....

एक ऋषि, अपने शिष्यों के साथ, गंगाजी के किनारे प्रातःकाल की सैर कर रहे थे इश्वर के नाम का जप करते हुए। थोड़ी दूर पर एक दम्पति था, वे व्यथित थे और एक दूसरे के ऊपर चिल्ला रहे थे। पता चला कि पत्नी ने अपना सोने का हार खो दिया गंगाजी में दुबकी लगाते समय। उसके पति ने बहुत सी गालियाँ निकालीं और पत्नी भी समान रूप से चिल्ला रही थी।

ऋषि रूक गए, अपने शिष्यों की तरफ मुड़े और पूछे - जब लोग क्रोधित होते हैं तो एक दूसरे पर चिल्लाते क्यों हैं? एक शिष्य ने कहा - जब हम अपने मन की शान्ति खो देते हैं तभी चिल्लाते हैं।

"बिलकुल ठीक" ऋषि ने कहा, "लेकिन किसी को चिल्लाने की आवश्यकता क्या है जब दूसरा आपके पास में है? ऐसा नहीं कि वो सुन नहीं रहा। आप अपनी बात बिना स्वर के उंचा किये भी कह सकते हैं।"

शिष्यों ने ढेरों उत्तर दिए पर कोइ भी रहस्योद्घाटन के जैसा नहीं।

अंत में ऋषि बोले, "क्रोध तत्क्षण ही दूरी बना देता है। जब दो व्यक्ति एक-दूसरे पर क्रोधित होते हैं तब उनके ह्रदय पास नहीं होते, उनकी भावनाएं विभाजित होती हैं और वो मीलों दूर हो जाते हैं। उस दूरी को तय करने के लिए वो चिल्लाते हैं। जितने वो क्रोधित होंगे उतने ही ऊँचे स्वर से वो चिल्लाते हैं। वो अब प्रेम, स्वीकृति, निकटता की स्थिति में नहीं हैं। वो एक दूसरे को सुन नहीं पा रहे, चिल्लाकर ही उन्हें लगता है वो एक-दूसरे को सुन सकते हैं।

और क्या होता है जब दो व्यक्ति प्रेम में बंधे होते हैं? वो एक दूसरे पर चिल्लाते नहीं हैं बल्कि मंद स्वर में बोलते हैं, वो लगभग फुसफुसाकर बात करते हैं क्योंकि उनके ह्रदय बिलकुल निकट हैं। उनके बीच में नहीं के बराबर की दूरी होती है।

"जब उन दोनों में और भी अधिक प्रेम होता है, वो और भी कम शब्दों का आदान-प्रदान करते हैं, अधिक कोमल, फुसफुसाकर, परन्तु एक दूसरे को और अच्छी तरह से सुनते हैं, उनके बंधन और सशक्त होते हैं, उनका प्रेम और भी बढ़ता है। अंत में, वो फुसफुसाकर भी बात नहीं करते, केवल एक दूसरे को देखते हैं, मौन शब्दों से अधिक सशक्त हो जाता है, इस तरह एक दूसरे के निकट दो व्यक्ति हो जाते हैं जब उनमें प्रेम होता है।
"इस तरह जब आप विवाद करें तो ऐसे शब्द न कहें जो आपके प्रेम के बंधन को तोड़ दे और एक दूसरे के बीच में दूरी बना दे।"

क्रोध अक्सर निराशा या कुंठा से उपजता है, और कुंठा आशा या अपेक्षा के नहीं पूरा होने से। मैं ये नहीं कह रहा कि आपकी कुंठा सही है या गलत, आप स्वयं ही निर्णय कीजिये। जब आपको दूसरे व्यक्ति से आशाएं हैं और वो पूरी नहीं होतीं तो आपको दुख या संताप होता है। पर कारण कोई भी हो, यदि आप क्रोधित होते हैं, उसी क्षण आप निर्णय की क्षमता खो देते हैं, आप स्वयं के वश में नहीं होते। शब्दों के द्वारा की हुयी क्षति समय के साथ भर सकती है परन्तु वह अपूरणीय एवं अटल होती है।

जब दो व्यक्ति एक दूसरे के समीप आने का प्रयास करते हैं, एक दूसरे पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, जब वो समान सतह पर होते हैं, दूरी अपने आप घट जाती है। जब वो दूर ही नहीं हैं, चिल्लाने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। फिर भी कोई विवाद हो सकता है, असहमति हो सकती है, पर उसका प्रभाव बहुत कम हो जाता है।

क्रोध वास्तव में आपका क्वथनांक यानी उबलने का तापमान है। यदि जल चूल्हे पर हो तो उबलना स्वाभाविक प्रतिफल है, उसे सामान्य अवस्था में रखने के लिए चूल्हे को बुझाना होगा। जब आप उबल लगें तो नियंत्रक को अपने हाथ में रखें। हो सकता है दूसरा व्यक्ति इंधन डाल रहा है, पर ये वो आप हैं जिनके हाथ में नियंत्रक है तापमान को नियंत्रित करने का। आप चुन सकते हैं कि कितना तापमान रखना है - गुनगुना, उष्ण या उबलता हुआ।

अंत में गर्मी आपको वाष्पित कर देगी, पदार्थ ही नहीं रहेगा। यह पसंद की बात है। स्वीकार करना कठिन है और कभे तो अव्यवहारिक भी। फिर अपने आप को प्रकृतिस्थ रखने के लिए आप क्या कर सकते हैं? क्या कुछ ऐसा है जिसे आप अपना सकते हैं जब तक आप उस उत्कृष्ट स्थिति तक न पहुँच जाएँ जहां पर अपने को अडिग रख पायें बजाये आपके ऊपर क्या फेंका जा रहा है? उत्तर है - हाँ।

लेकिन इससे पहले कि हम वहाँ पहुंचें, शायद यह उचित होगा दो प्रकार के क्रोध का वर्णन करना। इसे काबू में करना आसान होगा यदि समझ लें। मैं इसे अगले पोस्ट में लिखूंगा।

शांति।
स्वामी



लोग विश्वासघात क्यों करते हैं?

जंगली या निरंकुश आखेट करता है क्योंकि 1. वह कर सकता है, 2. वह भूखा है, 3. यह उसके स्वभाव में है।

क्यों लोग, विशेषकर पुरुष, एक रिश्ते में विश्वासघात करते हैं? विश्वासघात विश्वास की प्रताड़ना होती है अर्थात आपके महत्व को नहीं समझा जा रहा है और कभी भी, कैसे भी आपकी सवारी की जा सकती है। मानवीय व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं में से विश्वासघात की आदत भी एक है। यह एक जागरूक कृत्य है। जब आतंरिक संतुष्टि की कमी होती है लोग विश्वासघात करते हैं। यद्यपि वो न्यायसंगत नहीं है, फिर भी यह प्राथमिक कारण है; औचित्य से बाहर जाकर ये लोग आनंद की संतुष्टि ढूँढते हैं। किसी की भी संतुष्टि कदाचित ही किसी बाह्य तत्व पर निर्भर करती है; इस तरह के तत्व शायद प्रभावित तो करते हैं किन्तु आंतरिक शान्ति फिर भी व्यक्तिगत ही रहती है।

आप संसार के सबसे उत्तम पति या पत्नी हो सकते हैं, आप अत्यंत स्नेहमय, करुणामय, दयालु और विश्वासपात्र हो सकते हैं, परंतु इससे अपने साथी की निष्ठा प्राप्त हो इसकी निश्चितता नहीं है। यदि आपका साथी बेचैन प्रवृत्ति का हो, जैसे कि कोई बंदर जो एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर कूदता हो या जैसे कि कोई लंगूर जो कभी किसी एक पेड़ पर टिक ही ना पाए, तो आपके साथी की अन्य कार्य-कलापों में लिप्त होने की संभावना अधिक है। क्योंकि मुख्यतः वह उसके संरचना  का हिस्सा है। विश्वासघात का कोई कारण नहीं होता, केवल एक बहाना है। अतः तीन मुख्य कारण हैं:

1. सुनहरा अवसर पाते ही मनुष्य अपना उत्तरदायित्व भूल जाता है

यह सबसे पहला कारण है। विश्वासघात करते हैं क्योंकि कर सकते हैं। समय और अवसर मिलने पर कुछ लोग सत्य को तोड़-मरोड़ सकते हैं और खतरे की हद तक नीचे गिर सकते हैं। रिश्ते में बंधने के लिए, विशेष रूप से विवाह में, व्यक्ति को पारस्परिक और व्यक्तिगत दायित्वों को निभाना पड़ता है। जब व्यक्ति अवसर पाते ही दायित्वों को भूल जाता है, तब उसकी परिणति विश्वासघात में होती है। बात सदैव अधर्म की नहीं है, ये व्यक्ति के सामाजिक, नैतिक, भावनात्मक और आर्थिक दायित्वों के अपूर्णता की है। वास्तव में, अक्सर इन स्थितियों में ग़ैर ज़िम्मेदारी ही रिश्तों के टूटने का कारण बनती है। यदि आपका साथी अवसर का उपयोग करके अपने दायित्व को पूरा नहीं करता है, यह छल, निष्ठाहीनता और गैर प्रतिबद्धता का एक संकेत है। विवाह प्रतिबद्धता का ही दूसरा नाम है।

2. वासना मनुष्य को अंधा कर देती है

यह एक मुख्य कारण है। सभी जीव जंतु परमाणुओं, अणुओं और कोशिकाओं से बने हैं। इसी प्रकार मानव मन विचारों के परमाणु टुकडों से बना है। प्रत्येक टुकड़ा अपने आप में पूरा और स्वतंत्र है। प्रेम एक फिल्म या चल-चित्र के समान है - यह रुकता नहीं है और समय के साथ और गहरा हो जाता है, जबकि वासना मात्र एक चित्र के समान है, जो अल्पकालिक होती है। सबसे पहले वासना केवल मन की एक सोच होती है, उसके बाद ही शरीर उसकी पूर्ति करता है। इस सोच को मन से हटाना इतना सरल नहीं है। अधिकतर लोग आसान मार्ग अपना लेते हैं, जो है अपनी वासना की प्यास शांत करना, जिस से अस्थायी रूप से आप उस सोच से छुटकारा पा सकते हैं। परंतु, क्योंकि विचारों का कोई अंत नहीं, कुछ समय बाद वे व्यक्ति फिर से वासना का अनुभव करते हैं। यह एक अनंत चक्र है। जो कुछ भी आपके मन और व्यक्तित्व को सीमित कर देता है, चाहे वो आदत हो या धर्म, या जो कुछ भी आपके मन में अपराध की भावना जगाता है, वे सभी आप को निर्बल कर देते हैं। और जब आप निर्बल बन जाते हैं, आप अपनी अंतरात्मा की आवाज़ की जगह अपने मन की आवाज़ को सुनते हैं। वासना से अंधा व्यक्ति जब अनैतिकता का मार्ग चुनता है, इसका अर्थ है कि वह दुर्बल हो गया है। यदि आपके अंदर वासना हो भी, तो वह प्रेम से उत्पन्न वासना होनी चाहिए।

3. आदतें आसानी से छूटती नहीं हैं

कुछ व्यक्ति धोखा देते हैं क्योंकि यह उनकी आदत होती है। इन आदतों को त्यागने के लिए अनुशासन और आत्मविश्लेषण की आवश्यकता है। आदतें अक्सर एक झुंड में पाई जाती हैं। अर्थात यदि आप कुछ अच्छी आदतें अपनाने लगें तब आप देखेंगे कि और अच्छी आदतें सीखनी आसान हो जाती हैं। अगर आप ध्यान से देखें, तो आप पाएंगे कि एक सज्जन में कईं अच्छी आदतें होती हैं और एक दुर्जन में कईं बुरी आदतें। जो व्यक्ति आसानी से झूठ कह सकता है, वह आसानी से धोखा भी दे सकता है। आप अपने अतिरिक्त किसी की आदतें नहीं बदल सकते। जब आप का साथी अपनी आदतों को बदलने का निर्णय कर लेता है और उनके प्रति कार्य करता है केवल तब ही वह बदलता है। परिवर्तन की शुरुआत बाहरी कारणों से हो सकती है, परंतु संपूर्ण परिवर्तन सदैव एक आंतरिक निश्चय से ही सफल होता है। इसी कारण ध्यान और साधना से आपको बदलने की शक्ति मिल सकती है। ध्यान करके आप अपनी भीतरी मानसिक शक्ति को जगा सकते हैं।

विश्वासघात की परिभाषा संस्कृति और परिस्थितियों के अनुसार बदल सकती है। कुछ संप्रदायों, जातियों, संस्कृतियों और धर्मों में पुरुष को एक से अधिक विवाह करने की अनुमति दी जाती है। नैतिकता सदैव एक पूर्ण और स्वतंत्र अवधारणा नहीं होती है। जो आप के लिए नैतिक हो, वो किसी और के लिए अनैतिक हो सकती है। तो ऐसे में आप ये कैसे पता करें कि आपने जो किया वह कार्य नैतिक है या अनैतिक, क्या आपने धोखा दिया है या वह केवल एक छोटी सी भूल है? वास्तव में इस प्रश्न का उत्तर सरल है। सबसे पहली बात - आपकी अंतरात्मा सदैव आपको सत्य का मार्ग दिखाती है। यदि आप अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को सुनेंगे, तो आपको उचित और अनुचित में अंतर पता चल जाएगा। दूसरी बात, यदि आपको सच में लगता है कि आपने कुछ भी अनुचित नहीं किया है या यह एक छोटी सी भूल थी, तो आपको अपने पति या पत्नी से जाकर स्पष्ट रूप से कह देना चाहिए या अपनी भूल स्वीकार करनी चाहिए।

जैसे व्यायाम, आहार और एक स्वस्थ जीवन शैली से रोगों की संभावना कम हो जाती है, वैसे ही तालमेल, सद्भाव और सच्चाई से रिश्तों में विश्वासघात की संभावना कम हो जाती है। एक दूसरों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता दें ताकि आप अपने व्यक्तित्व को और बेहतर जान सकें तथा अपनी पहचान बना सकें। व्यक्तित्व जितना प्रबल हो, रिश्ते में विश्वास भी उतना ही प्रबल हो जाता है। किसी भी विवाह में संपूर्ण संतुष्टि तब मिलती है जब आपको अपने साथी पर हर विषय में भरोसा हो - भावनात्मक, शारीरिक, बौद्धिक और आर्थिक।

कोई भी बुरा नहीं बनना चाहता, कोई भी दुखी नहीं  होना चाहता और किसी का लक्ष्य तनाव नहीं होता। किन्तु इच्छाओं या वासनाओं से बंधकर और अपनी आदतों से मजबूर होकर व्यक्ति ऐसे बुरे काम करता है जिस पर वह बाद में पछताता है।

मैं इस विषय पर आगे जाकर शायद और विचार प्रकट करूंगा, खासकर उस स्थिति पर जब रिश्तों को तोड़ने में ही समझदारी होती है।

तब तक, एक दूसरों का सम्मान करें और एक दूसरों की शक्ति बनें और पति-पत्नी के रिश्ते को संपूर्णता प्रदान करें। रिश्ते की शक्ति और गहराई इस पर निर्भर है कि आप अपने पति या पत्नी को कितनी संतुष्टि देते हैं और आप उन्हें कितना महत्व प्रदान करते हैं।

(Image credit: Anne Freccero)
शांति।
स्वामी
 

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