आप निर्बल नहीं हैं

एक कड़ा नारियल भी एक झटके में टूट सकता है। इस का यह अर्थ नहीं कि वह भंगुर एवं शक्तिहीन है। केवल यह कि वह भेद्य है।
क्या आप को सदैव सशक्त बने रहना चाहिए? क्या यह संभव है? “दृढ़ एवं सशक्त बनो”- ऐसा हम बाल्यावस्था से सुनते आए हैं। जब नन्हा बालक नीचे गिर जाता है और लोग उस को रोते हुए नहीं देखना चाहते तब वे उसे बलवान बन ने को कहते हैं। जब आप वयस्क बन जाते हैं और जीवन में कुछ अप्रिय होता है तो लोग फिर आप को दृढ़ एवं सशक्त बन ने को कहते हैं। एक करुणामय व्यक्ति आप की दुर्दशा को समझेगा तथा अपनी सहानुभूति द्वारा आप में शक्ति उत्पन्न कर देगा। परंतु एक निर्बल व्यक्ति यह कहेगा कि आप शक्तिशाली ना होते हुए कायर हैं। एक निर्बल व्यक्ति आप से सहानुभूति नहीं कर सकता तथा आप को अपनी चुनौतियों को अनदेखा करके अपने भय एवं चिंताओं को छुपाने का सुझाव देता है। ऐसा क्यों? क्योंकि उसमें स्वयं कहीं न कहीं एक भय छुपा है - और आप को इस अवस्था में देख कर वह स्वयं भावनात्मक रूप से निर्बल बन जाता है।

मैं मानता हूँ कि जीवन की उथल पुथल का सामना करने के लिए मानसिक शक्ति का होना आवश्यक  है। परंतु ऐसी शक्ति अपनी भावनाओं को दबाये रखने से अथवा स्वयं से दूर भागने से नहीं प्राप्त होगी। वह तो केवल सशक्तता का भ्रम होगा। वास्तव में जब आप स्वयं को जानेंगे, समझेंगे तथा स्वीकार करेंगे तब शक्ति प्राप्त होगी।

चलिए आप को एक वास्तविक घटना सुनाता हूँ जो ब्रेने ब्रौन की पुस्तक “I Thought It Was Just Me” का अंश है -

लेखक की माँ का इकलौता भाई एक हिंसक दुर्घटना में मारा गया था। उनकी दादी अपने पुत्र की मृत्यु को सह ना सकीं। लेखक के शब्दों में - “अधिकतर जीवन एक शराबी होने के कारण, मेरी दादी में इतनी मानसिक शक्ति नहीं थी जिस के द्वारा वह इस दर्दनाक दुर्घटना को सह सकतीं। कईं सप्ताहों के लिए वह अपने पड़ोस में घूमती रहीं और अनेक व्यक्तियों से बार बार यही पूछती रहीं कि क्या उन लोगों ने उसके पुत्र की मृत्यु के विषय में सुना है।

मेरे चाचाजी के श्राद्ध के उपरांत, एक दिन मेरी माँ फूट फूट कर रोने लगीं। मैं ने उन्हें एक या दो बार पहले रोते हुए देखा था, परंतु निश्चित रूप से इस प्रकार रोते हुए कभी नहीं देखा था। मेरी बहनें और मैं भयभीत हो गए क्योंकि हम ने कभी उन्हें इस अवस्था में नहीं देखा था। मैं ने उनसे कहा कि हमे समझ नहीं आ रहा है कि हम क्या करें क्योंकि हमने कभी उन्हें ऐसी दुर्बल अवस्था में नहीं देखा था। उन्होंने हमारी ओर देखा और एक प्रेम भरे परंतु सशक्त स्वर में कहा, “मैं निर्बल नहीं हूँ - तुम जितना सोचते हो उस से कईं अधिक साहसी एवं सशक्त हूँ। अभी मैं केवल बहुत भेद्य हूँ। यदि निर्बल होती तो कभी की मर जाती।”

अगली बार जब कोई आप को सशक्त होने का सुझाव दे, अथवा यह कहे कि आप निर्बल हैं, अथवा आप को स्वयं भीतर से दुर्बलता महसूस हो, तब इस कहानी को याद करें। जब आप घायल या पीडित हों तब घाव का होना तो अनिवार्य है। यदि आप चाहते हैं कि घाव शीघ्र भर जाए तो आप को उस की देखभाल करनी होगी। जब घाव ताजा हो, वह अतिसंवेदनशील एवं भेद्य होता है। भेद्य होने की यह अवस्था एक अस्थायी स्थिति है। जब आप किसी जटिल समस्या में उलझे हों, तो आप अपने को असहाय एवं व्याकुल पाते हैं, और ऐसे में आप संभवतः सामान्य रूप से विचार नहीं कर पाते हैं तथा भेद्य हो जाते हैं। इस का यह अर्थ नहीं कि आप एक निर्बल व्यक्ति हैं, केवल यह अर्थ है कि आप धीरे धीरे पीड़ित अवस्था से बाहर आ रहे हैं तथा औरों के समान आप भी एक मनुष्य हैं, जो कभी कभी भेद्य हो जाता है।

वास्तव में निर्बलता की अवस्था वह होती है जब आप दूसरों की निंदा के कारण परेशान एवं व्याकुल हो जाते हैं। दूसरों की अपेक्षा और मानदंडों को पूरा नहीं करने पर यदि आप अपने आप को अयोग्य मान लेते हैं, तो आप की यह सोच गलत है। यदि आप किसी व्यक्ति को चाहते हैं और वह आप को उतना नहीं चाहते, तो इस का यह अर्थ नहीं कि केवल उन्हें पाने के लिए आप को अपने आप को परिवर्तित करना होगा, अथवा आप उनके योग्य नहीं हैं। इस का केवल यह अर्थ है कि आप दोनों का मेल उपयुक्त नहीं है। आकार सात का एक जूता किसी आकार छह के एक पैर के अयोग्य नहीं होता, केवल वह संबद्ध नहीं है। उपयुक्त ना होने का अर्थ अयोग्यता नहीं, जिस प्रकार भेद्य होने का अर्थ निर्बलता नहीं। याद रखें अन्य किसी व्यक्ति को आप की योग्यता निश्चित करने ना दें।

मैं यह नहीं कह रहा कि आप आत्म परिवर्तन एवं सुधार के प्रति उदासीन हो जाएं, अथवा अपनी कमियों की उपेक्षा करें। मेरा केवल यह सुझाव है कि आप किसी और के मानदंड पर अपने को ना तोलें। यदि आप को ऐसा लगता है कि आप को स्वयं के व्यक्तित्व के किसी विशेष पहलू को बदलना है तो अवश्य उस में परिवर्तन लाने का प्रयास करें, परंतु ऐसा तब ही करें यदि आप वास्तव में उसे आवश्यक मानते हैं। जीवन कोई युद्ध नहीं जिस में आप को निरंतर लड़ना है अथवा अपने प्रतिद्वंद्वी को मार गिराना है। जीवन में कभी कभी स्वयं को रोक लेना, ठहर जाना, रोना अथवा खुल कर अपनी भावनाओं को प्रकट करना अनुचित नहीं होता। अपनी भावनाओं को प्रदर्शित करने से आप निर्बल नहीं बन जाते हैं। वास्तव में यह प्रमाणित करता है कि आप निष्कपट हैं। यदि आप के व्यक्तित्व या जीवन के किसी एक अंश में कोई समस्या है इसका यह तात्पर्य नहीं कि आप निर्बल अथवा अयोग्य हैं या इस में आप का दोष है। ऐसा भी तो हो सकता है कि आप एक दिन बिना छतरी के बाहर चल दिए और दुर्भाग्य से मूसलाधार वर्षा हो गई।

यदि आप अपनी भलाई के लिए कुछ महत्वपूर्ण करना चाहते हैं तथा आत्म परिवर्तन के पथ पर एक  संकल्प लेना चाहते हैं तो वह यह हो सकता है - कभी किसी अन्य व्यक्ति के कहने पर आप स्वयं को निर्बल ना समझें। उन्हें आप की क्षमता निश्चित करने का अधिकार ना दें। भविष्य में यदि कोई आप की भावनाओं को अनदेखा कर दे और केवल आप को सशक्त बन ने का सुझाव दे, तब आप यह समझ लें कि उन से अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का कोई लाभ नहीं। बहतर यह होगा कि आप एक दर्पण को देख कर अपने आप से बात कर लें। अन्यथा अपनी टेलिफोन कंपनी के किसी प्रतिनिधि से सम्पर्क करें और उनसे कहें कि अगले कुछ मिनटों के लिए आप की बात सुनें - संभवत: आप को कुछ लाभ हो। कईं वर्षों से आप उन के निष्टावान ग्राहक रहे हैं, तो क्या वे कम से कम पाँच मिनट के लिए आप की शिकायत को सुन नहीं सकते। चलिए परिहास बहुत हुआ - यह लेख को समाप्त करने की अच्छी विधि है।

शांति।
स्वामी


कौपीन और सांसारिक जगत का सत्य

आकांक्षाओं के गुणसूत्र एक दूसरे से जुड़े होते हैं।
कुछेक लोगों ने मुझसे संपर्क करने के विकल्पों और आश्रम परियोजना में अंशदान के विषय में प्रश्न किया है। इससे पहले कि मैं उनके प्रश्न का उत्तर दूँ, मैं एक कहानी कहने जा रहा हूँ जो मैंने बीस साल पहले बच्चों की बोध कथा में पढ़ी थी।  

एक समय की बात है एक गुरु और शिष्य जो दीक्षित सन्यासी थे एक गांव के बाहर आनंद पूर्वक निवास करते थे। जब गुरु ने शिष्य को समस्त शिक्षाएं दे दीं तो उन्होंने कुछ वर्षों के लिए एकांत में तपस्या करने का निश्चय किया और शिष्य को अपने विचार से अवगत कराया। गुरु ने शिष्य को सन्यास ग्रहण करने के समय लिए गए प्रण, त्याग के विषय में दिशा निर्देश दिया। उसे अपने नित्य कर्म में स्थित रहने तथा आध्यात्मिक अनुशासन का पालन करने को कहा और शिष्य को शुभाशीर्वाद दे कर चल दिए।

शिष्य ने अत्यल्प सम्पत्ति के साथ सात्विक जीवन व्यतीत करना आरम्भ कर दिया। भोजन बनाने के दो बर्तन, भिक्षापात्र, दो जोड़ी गेरुए वस्त्र एवं कौपीन ही उसकी सांसारिक सम्पदा थीं। एक दिन उसने पाया कि उसकी कौपीन को चूहों ने कुतर कर नष्ट कर दिया। यह देख वह अत्यंत अशांत हो गया। उस दिन जब वह भिक्षाटन के लिए गया तो उसने किसी ग्रामीण से एक कपड़े की याचना की। दाता ने उसे दान दे कर उपकृत किया। अगले दिन फिर वही हआ, चूहों ने उस कपड़े को भी तार तार कर दिया। अब शिष्य को नया वस्त्र भिक्षा में मांगना असहज लगने लगा, तब भी उसने दूसरा मांग लिया। आवश्यकताएं ऐसे ही आत्मसम्मान पर हावी हो जाती हैं जिस प्रकार वासनाएं नैतिकता और बुद्धि को हर लेती हैं। दाता ने उसे एक बिल्ली पालने की सलाह दे दी जिससे कि चूहों का नाश हो सके। शिष्य को यह विचार उचित लगा तथा उसी दिन शिष्य ने बिल्ली का प्रबंध कर लिया। जैसा उसने सोचा चूहे ऐसे गायब हो गए जैसे कि वे कभी वहां थे ही नहीं, जैसे कि सांसारिक उपलब्धियां।

कुछ दिन व्यतीत होते हैं और अब शिष्य के सामने एक नयी समस्या खड़ी हो जाती है। सत्य है कि सांसारिक जगत का स्वरूप ऐसा ही है; यह इतना ही अस्थायी और अस्थिर है। उसे अब बिल्ली को भोजन देना था तथा उसके लिए उसे और अधिक भिक्षा की आवश्यकता थी। एक बुद्धिमान आत्मा ने उसे गाय पालने की सलाह दी। उसने तर्क दिया कि दूध से बिल्ली के आहार की पूर्ति भी हो जायेगी और सन्यासी के भोजन की पूर्ति भी हो जाया करेगी। गांव के एक सहृदय व्यक्ति ने गौ दान भी कर दिया। शिष्य अब ये सोचते हुए सुखपूर्वक कल्पना करने लगा कि अब उसे भांति भांति के दुग्ध पदार्थ सहज ही प्राप्त हो जायेंगे।

कुछ और दिन बीतते हैं, अब शिष्य के पास एक कुटिया, बिल्ली और गौशाला में गाय आ जाते हैं, और हाँ अब उसकी कौपीनें सुरक्षित हो जाती हैं। गाय को चारा खिलाने नहलाने और दूध निकालने में दिन का अधिकतर समय बीत जाता है। उसे साधना के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता। आखिरकार, वह दीक्षित सन्यासी का जीवन नहीं जी रहा होता तो कौपीन की आवश्यकता ही ना होती। वह अपनी कठिन परिस्थिति को एक बुद्धिमान गृहस्थ के सामने रखता है। बुद्धिमान व्यक्ति जिनके बाल अभी अभी पके होते हैं, प्रसंगवश एक विवाह योग्य पुत्री के पिता होते हैं। शिष्य के निष्छल व्यक्तित्व एवं गुणों को देख कर अपनी पुत्री से विवाह का प्रस्ताव देते हैं। शिष्य इसमें लाभ अधिक तथा हानि कम देखता है। वह तैयार हो जाता है; एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया, क्योंकि हताशा में व्यक्ति की सोच कुंठित हो जाती है और सभी उपाय उचित लगते हैं।

उसकी पत्नी एक भद्र औरत सिद्ध होती है। वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगते हैं और शिष्य के लिए सब कुछ सहज हो जाता है। उसकी दैनिक आवश्यकतायें चतुर एवं निष्ठावान गृहणी पूर्ण करती है। उसे और अधिक भूमि एवं पशु उसके कुटिया के आस पास लेने को उत्साहित करती रहती है, ताकि वे अधिक दूध बेच सकें और अधिक धन अर्जित कर सकें। कुछ समय पश्चात उनके तीन बच्चे भी हो जाते हैं। अब साधू ने अपनी आध्यात्मिक साधनाओं से समझौता कर लिया क्योंकि वह अब पाता है कि धनोपार्जन करना तथा भौतिक जीवन व्यतीत करना अधिक आकर्षक है। कभी कभी वह अपने गुरु का स्मरण कर लेता और उसे अपने प्रण के त्याग पर ग्लानि भी होती। परंतु जब आप युवा हों और धनार्जन करते हों तो सांसारिक जीवन आकर्षक प्रतीत होता है।

एक दिन गुरु अपने बारह वर्षों की तपस्या पूर्ण कर उस स्थान को वापस आते हैं, और उस जगह को कनखियों से देखते हैं। वह स्थान अब दसियों गायों और नौकरों से युक्त बीस गुना बड़ा दिखता है जो की वे छोड़कर गए थे। वे सोचते हैं किसी धूर्त ने उनके शिष्य को भगा कर उस जगह को हड़प तो नहीं लिया। वे निर्णय लेते हैं कि अंदर जाकर अपनी दीर्घ तपस्या के बल पर उस धूर्त को शापित करेंगे। इससे पहले कि वे और क्रोधित हों उनका आदर होता है एक दंडवत प्रणाम से (प्रणाम की सबसे सम्मान पूर्ण विधि)। वे जो देखते हैं उस पर विश्वास नहीं करना चाहते। उनका शिष्य- एक गृहस्थ के वस्त्रों में। इससे पहले कि वे अपनी भावनाओं पे नियंत्रण पाएं, शिष्य अपने तीनों बच्चों को भी अपने गुरु के चरणों में प्रणाम करने का संकेत करता हैं। अचंभित एवं विचलित गुरु स्वयं को चिकोटी काटकर ये सुनिश्चित करते हैं कि कहीं वे स्वप्न तो नहीं देख रहे।

अत्यधिक जिज्ञासा और गहन निराशा के साथ वे अपने शिष्य की परिस्थिति को समझने के लिए शिष्य को एक ओर ले जाते हैं “तुम इन सब में कैसे उलझ गए?” गुरु ने घृणा में सर हिलाते हुए कहा। शिष्य ने अपना मस्तक नीचे किया और फिर दृष्टि को झुकाते लज्जापूर्वक धीमे स्वर में कहा -  “मैंने ये सब अपनी कौपीन की रक्षा के लिए किया”।

मुझे आशा है कि आपने अपना उत्तर इस कहानी से प्राप्त कर लिया होगा।

मुझसे संपर्क करने के लिए – आप मुझसे संपर्क करने के लिए मुझे ईमेल कर सकते हैं, मेरे ब्लॉग पे आ सकते हैं अथवा व्यक्तिगत रूप से मिल सकते हैं। मैं फोनकाल्स को वरीयता नहीं देता।

वर्तमान में मुझे एक ही सहयोग चाहिए – ऐसा कोई जो हिंदी एवं अंग्रेज़ी में निपुण हो। अधिकांश लोग अंग्रेज़ी ब्लॉग और लेखनों को हिंदी में भी पढ़ना चाहते हैं। तो मुझे एक ऐसे अनुवादक की आवश्यकता है जो सभी के भले के लिए अपना योगदान कर सके - ये अवश्य ही एक बड़ा योगदान होगा यदि आप किसी ऐसे व्यक्ति को खोज सकें। 

हरे कृष्ण।
स्वामी

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