भोजन

यहाँ हिन्दी में एक प्रवचन वीडियो है। विषय है भोजन। प्रस्तुत है वीडियो का एक अंश: 

प्रत्येक प्राणी खाता है। भोजन आपके प्राणों का और आपके शरीर का आधार है। परन्तु अक्सर मनुष्य भोजन का महत्त्व नहीं समझता। वास्तव में भोजन आपके समस्त सुखों का आधार है। मैं आज भोजन के विषय पर ही बोलने वाला हूँ। भोजन का क्या अर्थ है? श्री हरि को विष्णु सहस्त्रनाम में भोजन की संज्ञा क्यों दी गयी है? भोजन केवल वो नहीं है जो मुख के द्वारा खाया जाये। वो तो केवल खाने वाला भोजन है जो मात्र चार प्रकार का होता है। हम कानो से, नाक से, आँखों से तथा स्पर्श से भी भोजन को ग्रहण करते हैं। जिस जिस इंद्रिय से हम स्वाद लेते हैं वही हमारा भोजन है। ईश्वर ही उत्पन्न करता है, वही भोगता है, वही पचाता है - वास्तव में वही भोजन है। भोजन करना मात्र एक क्रिया नहीं जो आप प्रतिदिन करते हैं, यह वास्तव में एक दैवी कार्य है, एक यज्ञ है।

और जानकारी प्राप्त करने के लिए बत्तीस मिनट के इस प्रवचन को देखें।

शुद्ध भोजन ग्रहण करें। हम किस प्रकार के व्यक्ति हैं यह हमारे भोजन पर ही निर्भर है!



शांति।
स्वामी

उन्मत विश्व

वन के वृक्षों का अवलोकन करने के लिए, आपको उससे थोड़ी दूरी बनानी होगी या ऊंचाई से निरखना होगा
आपको इस संसार में रहना कैसा लगता है? कठिन, ठीक-ठाक, उत्तम या उपयुक्त? ऐसा भी हो सकता है कि आपको इस विषय पर सोचने का कभी अवसर ही ना मिला हो। यह एक विक्षिप्त संसार है, एक पागल संसार। यह कभी तो पागलपन की हद तक सुंदर लगता है तो कभी कभी खूबसूरती की हद तक पागल, लेकिन रहता पागल का पागल ही है। संभवतः इसका यह पागलपन ही है जो हमारी दृष्टि में इसे अद्भुत, विकासशील और सुन्दर बनाये हुए है। यह संसार हमें अनिवार्य तथा आवश्यक प्रतीत होता है। लेकिन हास्यास्पद यह है कि इसके पागलपन की हद छिपी है हर उस से जो इसके अंश की ही तरह इसमें संलिप्त है।

एक बार एक राजा था। परम्परानुसार उसने राज ज्योतिषी से प्रारंभ होने वाले नव वर्ष के बारे में जानना चाहा। ज्योतिषी ने सारणी का निरीक्षण करके अपनी चिंता व्यक्त की कि नव वर्ष संकटों से भरा होगा। उसने राजा को बताया कि जो कोई भी उसके राज्य में अन्न, फल आदि खायेगा वह विक्षिप्त हो जायेगा।

राजा परेशान हो गया। उसने चिंतातुर हो पूछा ‘‘उन पागल लोगों का क्या होगा? यह पागलपन कब तक रहेगा?" ज्योतिषी ने कहा ‘‘महाराज! जब लोग इस महामारी से ग्रस्त होंगे तब एक दूसरे की नकल उतारने लगेंगे फिर यह चक्र हमेशा चलता रहेगा। यह बीमारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित हो जायेगी। इसका कोई उपचार नहीं।"

राजा ने अपने मुख्यमंत्री को बुलवाया जो कि अपने ज्ञान और बुद्धिमत्ता के लिये विख्यात था। ज्योतिषी द्वारा की गयी भविष्यवाणी से मुख्यमंत्री को अवगत कराकर उस व्याधि से बचने का उपाय पूछा। मंत्री ने विचार किया और फिर विषाद और उत्साह के साथ कहा ‘‘हमारे भण्डार ग्रह में हम दोनों के लिये पर्याप्त अनाज है जो तीन वर्षों तक हम दोनों के काम आ सकता है। अब आप तो पागल होना नहीं चाहेंगे क्योंकि आपको शासन करना है और मुझे पागल होना नहीं चाहिये क्योंकि मैं आपका सलाहकार हूँ। अतः यदि हम दोनों आगामी वर्ष का अन्न न खा कर अपने मानसिक संतुलन को यथावत बनाये रखें तो शीघ्र ही इस समस्या का हल भी ढ़ूँढ़ सकते हैं।’’

“परन्तु यह न्यायोचित न होगा”, राजा ने कहा “भला यह कैसे सम्भव है कि मैं अपनी तो रक्षा करूं और अन्य सभी को विक्षिप्त हो जाने दूँ। इतने पागल लोगों को संभालना कितना कठिन होगा इसकी कल्पना भी की है तुमने? इससे तो अच्छा है कि हम दोनों ही वही अन्न खायें जो हमारी प्रजा खायेगी। इस तरह हम दोनों भी पागल हो जायेंगे। तब हम पर इस बात का कोई असर नहीं पड़ेगा। यदि हम भी अन्य सभी के समान हो जायेंगे तब ना तो हम उनके पागलपन को देख सकेंगे और ना ही इसकी चिन्ता करेंगे। परंतु इससे पहले हम दोनों को अपनी बाहों पर यह गुदवा लेना चाहिये कि ‘हम पागल हैं’। यह हमें इस बात का स्मरण कराता रहेगा कि एक दिन हमें अपने मानसिक सन्तुलन को पुनः प्राप्त करना है।”

मै आशा करता हूँ कि आप समझ गये होंगे कि मैं क्या कहना चाहता हूँ। संसार के क्रिया कलाप सामान्य प्रतीत होते हैं। ऐसा इस लिये क्योंकि सभी एक ही प्रकार का अनाज खा रहें हैं। यह आपकी विशिष्ट प्रतिभा का संकेत तब तक नहीं देगा जब तक कि आप अपनी बाह पर गुदे हुए स्मरण वाक्य को पढ़कर अपनी वास्तविकता न जान लें। यह जीवन जब तब आपको स्मरण कराता है, जगाने के लिए आवाज़ भी देता है। पर कुछ ही इसे सुन पाते हैं तथा अपने जीवन में कर्त्तव्यों और आकांक्षाओं में सन्तुलन स्थापित कर पाते हैं जबकि अधिकतर लोग जीवन की इस पुकार को अनसुना ही कर देते हैं। यह जीवन किसी को बहते हुए पानी की तरह लग सकता है तो किसी को एक घटती हुई घटना, बीता हुआ समय या स्वचालित विचार सा प्रतीत होता है। परन्तु अधिकतर लोग यह नहीं समझ पाते कि वह जो कुछ भी कर रहें हैं क्यों कर रहे हैं। किसने उन्हे उचित-अनुचित का अंतर बताया और किस आधार पर? उनके ज्ञान का स्रोत क्या है? इस स्वचालित व्यवस्था को, जिसका कि वह अनुकरण कर रहें हैं, किसने बनाया ? प्रायः इसके लिये थोडा ठहरना पड़ता है, जंगल के पेडों को देखने के लिये कुछ चिन्तन करना पड़ता है।

एक बार जी आई गुरजिएफ, जो कि एक महान रूसी विचारक थे, ने अपने एक शिष्य पी डी  ओस्पेन्सकी को तीन माह तक मौन रह कर एकान्त वास करने के लिये प्रेरित किया। ओस्पेन्सकी के ऐसा करने के पश्चात वे उसे बाजार ले गये। ओस्पेन्सकी आल्हादित था और स्वयं में ही डूबा था। उसने आस-पास देखकर गुरजिएफ से कहा कि मुझे सम्पूर्ण संसार पागल लगता है, पागल लोग बेच रहे हैं और पागल ही खरीदारी कर रहे हैं। पागल ही बस चला रहे हैं और पागल ही उसमें सवार हैं। यहाँ एक पागल दूसरे पागल से बातें कर रहा है। यह एक बड़ा पागलखाना है, कृपया मुझे यहाँ से वापस ले चलिये, मैं इस भीड़ में खड़ा भी नहीं रह सकता।

मैं आपको निजी अनुभव से बता सकता हूँ कि मौन और एकान्तवास ये दो सर्वोत्तम उपहार हैं जो आप स्वयं को दे सकते हैं। मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि तब आपको संसार पहले जैसा नहीं दिखेगा। हिमालय की शान्त नीरवता में महीनों बिताने के पश्चात मुझे भी इस सामान्य संसार में स्वयं को समायोजित करने में कईं महीने लग गये थे। वहाँ एक प्रभावशाली परिवर्तन आपको परिष्कृत कर देता है, आपके चारों ओर व्याप्त हो जाता है और आपकी बुराइयों को अच्छाइयों में परिवर्तित करने लगता है। क्योंकि एकान्त आपको वह ठहराव प्रदान करता है जहाँ से आप स्वयं को देख सकते हैं और चिन्तन कर सकते हैं, तथा और भी बहुत कुछ कर सकते हैं जिससे आप स्वयं को बेहतर ढंग से समझ पायेंगे।

यदि लोग आप को पागल कहेंगे तो संभवतः वे स्वयं ही पागल होंगे। आप वही रहें जो हैं, अपना सत्य स्वयं ही खोजें।

शांति।
स्वामी

(नोंट: पूज्य स्वामीजी की उपरोक्त पोस्टका हिंदी अनुवाद करने का श्रेय श्रीमान बी. के. शुक्लाजी को जाता हैं।)

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