स्वप्नों की पूर्ति कैसे की जाए

क्यों कुछ व्यक्ति औरों की तुलना में अधिक तथा और शीघ्र सफल हो जाते हैं? जानने के लिए यह कथा पढ़ें।
एक समय की बात है एक यात्री बहुत उदास और परेशान सा अपनी दुनिया में खोया हुआ एक घने वन से जा रहा था। उसे लग रहा था कि उसका समग्र जीवन संघर्षमय रहा था। उसके सभी मित्र, सहकर्मचारी एवं भाई-बहन प्रगति कर चुके थे, किंतु वह जहाँ था वहीं का वहीं रह गया था। उस को मन ही मन लगने लगा था कि अन्य सब ही लोग बड़े ही भाग्यशाली थे परंतु उस के भाग्य में केवल कड़ा श्रम ही लिखा था।

वास्तव में वह एक जादुई वन से जा रहा था, किंतु स्वयं इस बात से अवगत नहीं था। एक विशाल वृक्ष जो की अति भव्य, अति सुन्दर, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता हो, वन के एकदम बीचोबीच खड़ा था - बहुत ही लुभावना एवं आकर्षक। वह था एक कल्पतरु - मन की इच्छाओं की पूर्ति करने वाला वृक्ष। यात्री वृक्ष की छाँव में बैठ गया। शीघ्र ही उसे प्यास लगी। उसने कामना की, “कहीं से थोड़ा शीतल जल पीने को मिल जाता तो कितना अच्छा होता”। और यह क्या, हवा में से एक शीतल जल का प्याला उभर के उसके सामने आ गया!

वह एक ही घूँट में सारा पानी पी गया, पर अब उसे भूख भी लगी थी। उसके मन में भोजन का विचार उठा ही था कि उसके सामने एक वैभवशाली भोजन की थाली उपस्थित हो गयी! कहीं कोई सपना तो नहीं देख रहा है, उसने स्वयं को विश्वास दिलाने के लिए अपने आप को एक चिकोटी काटी! उसने एक आरामदेह बिस्तर का विचार किया, और उसकी वह इच्छा भी पूर्ण हो गयी। यात्री को स्पष्ट हो गया कि उसके हाथों कोई बहुत बहुमूल्य वस्तु लग गयी है। उसकी हर एक सोच वास्तविकता में परिवर्तित हो रही थी। उसने स्वयं के लिए घर, नौकर-चाकर, बागीचा, भूमी, धन की इच्छा की और वे सब कुछ ही उस के सामने उपस्थित होने लगे।

वह सोचने लगा कि वह स्वयं ही अपने आप का भाग्यविधाता बन गया था। और वह वृक्ष वास्तव में ही उसकी हर इच्छा पूर्ण कर रहा था। उसके अपने हर विचार सच सिद्ध हो रहे थे। अब उसे यह सब कुछ खो देने का भय लगने लगा, और यह नकारात्मक मानसिकता के साथ उसने सोचा, “नहीं, यह सच नहीं हो सकता। मैं इन सब के योग्य ही नहीं हूँ। मैं इतना भाग्यशाली हो ही नहीं सकता। अवश्य ही यह कोई स्वप्न होगा।”

और यह क्या! पल भर में सब कुछ अदृश्य हो गया। उसने चारों दिशाओं में देखा तो केवल घनघोर वन के अतिरिक्त कुछ नहीं था। अब संध्या होने लगी थी। अंधेरा हो रहा था; उस को एक भय लगने लगा। “आशा करता हूँ कि यहाँ आसपास कोई शेर ना हो, नहीं तो मुझे जीवित ही खा जायेगा”, उसने सोचा।

और तुरंत ही वहाँ एक शेर आया और उसे खा गया।

यह बोधकथा हर एक की कहानी है। हम सब एक वन में यात्रा कर रहे हैं और यही सोचते रहते हैं कि अपना जीवन क्या हो सकता था और क्या होना चाहिए था। परंतु ऐसा सोचते-सोचते हम इस बात को भूल जाते हैं कि हमारा संसार वास्तव में पहले से ही कितना भव्य और अद्भुत है।

आप एक रहस्यमय वृक्ष के नीचे आराम कर रहे हैं, कईं बार आप को इस बात का पता भी नहीं चलता कि वह आप की इच्छाओं की पूर्ति कर रहा होता है, कि आप के सपने सच हो रहे होते हैं, कि यह ब्रह्माण्ड आप को सदा सुन रहा होता है। और इस श्रोता की सुंदरता यह है कि वह पूर्ण रूप से आलोचना-मुक्त हो कर सुनता है। वह आप की अच्छी और बुरी इच्छाओं में कोई भेद नहीं करता। आप किसी एक विषय पर लम्बे समय तक विचार करते रहते हैं, तो ब्रह्माण्ड में उस बात की स्वीकृति हो जाती है और फिर प्राकृतिक शक्ति आप के जीवन में उस के साक्षात्कार की व्यवस्था करने लगती है।

यदि आप के प्रयत्न नेक एवं हार्दिक हों, तो आप की इच्छा की प्रबलता तथा आप के विचारों की शुद्धता - यह दो मुख्य पहलू हैं जो यह निश्चित करते हैं कि आप की इच्छा कितनी जल्दी पूर्ण होगी। विचारों की शुद्धता द्वारा मैं कोई नैतिकता के विषय में बात नहीं कर रहा हूँ, मैं तो केवल आप अपनी इच्छा के लिए कितने एकनिष्ठ हैं उसकी बात कर रहा हूँ। यदि आप के मन में एक ही समय पर बहुत सारी इच्छायें दौड़ रहीं हों, तो वह केवल एक शोर मात्र होगा। एक समय पर केवल एक ही विषय पर ध्यान दें।

सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि जब आप किसी बात पर विश्वास नहीं करते तब ब्रह्माण्ड भी उस बात में विश्वास नहीं करता। किंतु जो आप अपने ध्येय में, स्वप्नों में, इच्छाओं में और आशा में विश्वास रखते हैं तब ब्रह्माण्ड भी उसमें अपना विश्वास रखता है। वैदिक ग्रंथों में भी बहुत आग्रह के साथ यह बात कही गयी है और उसे पूर्ण तर्क के साथ सिद्ध भी किया गया है कि हम बिलकुल ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति के जैसे ही बने हुए हैं। हम एक लघु ब्रह्मांड हैं और जो बाहर है वह एक गुरु ब्रह्माण्ड है। जो कुछ भी आप बहार के विश्व में वास्तविक स्वरूप में देखना चाहते हैं तो सर्व प्रथम आप को उसे अपने आंतरिक विश्व में प्रगट करना सीखना पड़ेगा – और वह भी एक दृढ़ विश्वास तथा पूरी प्रामाणिकता के साथ।

यदि आप धैर्यवान, उद्यमी एवं सकारात्मक रहना पसंद करेंगे तो आप अधिकतर सब कुछ प्राप्त कर पाएंगे। हालांकि यहाँ मुझे आप को एक चेतावनी देनी पड़ेगी - यदि आप किसी विशेष व्यक्ति को अपने जीवन में किसी विशेष माध्यम से प्राप्त करना चाहते हैं तो वहाँ प्रकृति का यह नियम काम नहीं करता। जैसे कि जो आप को प्रेम चाहिए, तो वह आप को मिलेगा, पर यह आवश्यक नहीं कि वह प्रेम आप को जिस व्यक्ति से चाहिए उस ही से मिले। ऐसा क्यों? क्योंकि उन लोगों की भी इच्छाएं एवं विचार ब्रह्माण्ड में बह रहे होते हैं, और यदि उनकी इच्छाएं और विचार अधिक प्रबल एवं सतत हों तो ब्रह्माण्ड को सबसे पहले उनको सुनना पड़ता है।

आप का भय, विचार, इच्छाएं, अपेक्षाएं, सपने एवं आशाएं – वे सभी एक विचार में से उत्पन्न होते हैं। और आप इनमें से जिस किसी के साथ भी चिपके रहते हैं वही अंत में प्रगट होता है।

कभी भी यह ना सोचें कि आप अपने जीवन में अच्छी वस्तु पाने के योग्य नहीं हैं, कभी भी यह ना मान लें कि आप कुछ सिद्ध नहीं कर सकते, क्योंकि यदि जो आप ऐसा सोचने लगेंगे, तो फिर प्रकृति के लिए भी आप पर विश्वास करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं रह जाता। आप के सपनों को सच्चाई में बदलने दें; अपने भय के स्थान पर अपनी आशाओं को एक अवसर दें, आप की दृढ़ मान्यताओं को अपनी शंकाओं पर विजय प्राप्त करने दें।

आप को प्रसन्न रहने का, जीवन को पूरी तरह जीने का तथा इस आनंदमय जादुई पथ पर चलने का संपूर्ण अधिकार है। और यह कोई प्रेरणादायक वाक्य मात्र नहीं है, मेरी दृढ़ मान्यता है। वास्तव में, यह स्वामी की जीवन जीने की रीत है।

शांति।
स्वामी



चार रानियों की वास्तविकता

एक राजा की चार पत्नियाँ थीं। चार रानियों की वास्तविकता ज्ञात करने हेतु यह कथा पढ़ें।
एक समय की बात है, एक राजा था जो किसी राज्य में शासन करता था। उसकी चार पत्नियाँ थीं, जो एक से बढ़कर एक सुन्दर एवं स्त्रैण गुणों से युक्त थीं। राजा उन चारों से अनुराग रखता था परंतु उसे चौथी पत्नी सर्वाधिक प्रिय थी फिर तीसरी, दूसरी और पहली। पहली पत्नी उनमें सर्वाधिक वयस्क थी।

एक दिन राजा वन में आखेट के लिए गया। वहाँ उसे एक अज्ञात कीट ने काट लिया और वह एक दुर्लभ बीमारी से ग्रसित हो गया। वैद्य एवं तांत्रिकों ने अपनी सारी विद्या का प्रयोग किया परंतु उसकी अवस्था को सुधार नहीं पाए। अंतत: उन्होंने यह कहा कि राजा की मृत्यु निकट है और अब वह कुछ ही दिनों के अतिथि हैं।

राजा ने अपनी संपत्ति को रानियों में विभाजित करने का निर्णय किया, क्योंकि उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं था। परंतु  सामान्य रूप से विभाजन करने की जगह कौनसी रानी उसे कितना प्रेम करती है इस आधार पर संपत्ति को बांटने का निर्णय किया। उसने एक चतुर योजना बनाई और सभी रानियों को एक एक कर के बुलाया। उसने चौथी रानी से आरम्भ किया जो सब से छोटी थी और जिससे वह सबसे अधिक प्रेम करता था।

“मेरे जीवन के केवल तीन दिन शेष हैं”, उसने कहा। “मैं तुम्हें एक रहस्य बताता हूँ। बहुत पहले मुझे एक साधू ने एक शक्तिशाली यंत्र दिया था जिससे मुझे स्वर्ग की प्राप्ति होगी यदि मैं साथ में एक और व्यक्ति को ले जाऊँ। परंतु इससे पहले की स्वर्ग में प्रवेश करें हमे दारुण यंत्रणा सहन करनी होगी और नर्क में सात वर्ष व्यतीत करने होंगे। क्योंकि हम एक दूसरों से सर्वाधिक प्रेम करते हैं इसलिए मैंने यह निश्चय किया है कि मैं तुम्हें अपने साथ आने का यह अवसर प्रदान करूँगा।”

रानी को राजा की आसन्न मृत्यु पर पूर्ण विश्वास था, और उसने भावना रहित स्वर में कहा “इसमें संदेह नहीं कि मैं आप से प्रेम करती हूँ परंतु प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मृत्यु का स्वयं ही सामना करना होता है। मैं यहीं रानी के रूप में रहना पसंद करूँगी और वास्तव में मैं तो राजमहल से बाहर भी नहीं जाऊँगी जब आपकी देह को शमशान ले जाया जायेगा। नर्क में एक पल भी रहने की कल्पना ही मेरे लिए भयानक है। मुझे तो प्रेम एवं सत्कार की आदत है।”

राजा अत्यंत दुखी हो गया और गहन उदासी से उसने कहा, “मैंने सोचा कि जिस प्रकार मैं तुम से प्रेम करता हूँ उसी प्रकार तुम भी मुझसे प्रेम करती हो। फिर भी मैं तुम्हें त्याग नहीं सकता, मैंने निश्चय किया है कि मेरे जाने के पश्चात मेरी तीसरी पत्नी तुम्हारी देख-रेख करेगी।”

वह अब अपनी तीसरी पत्नी को बुलाता है और समस्त घटना सुनाता है।

“मुझे सदा से यह ज्ञात था कि आप मुझसे अधिक उसे प्रेम करते थे इसलिए आपने उसे पहले पूछा। परंतु मैं उसके समान निर्दयी नहीं हूँ। मैं आप के साथ शमशान भूमि तक जाऊँगी परंतु उसके पश्चात नहीं। आप की प्रथम पत्नी अब भी युवा हैं। आप के जाने के पश्चात मैं उनकी रक्षा करूँगी और इस प्रकार मुझे भी एक साथी मिल जायेगा।”

राजा इस बार उतना निराश नहीं हुआ। उसे धीरे धीरे पत्नियों की वास्तविकता समझ आने लग गई थी। उसने तीसरी पत्नी को विदा किया और अपनी दूसरी पत्नी को बुलवाया।

दूसरी रानी ने पूर्ण कथा सुनी और कहा, “मैं आप को यह सिद्ध करूँगी कि मैंने आप से सबसे अधिक प्रेम किया है। मैं आप के साथ चिता पर जाऊँगी। परंतु मुझे विश्वास है कि मेरे कर्म श्रेष्ठतर हैं और मुझे नर्क नहीं जाना चाहिए। इसलिए मैं अंतिम संस्कार के पश्चात आप की आगे की यात्रा में साथ नहीं जाउंगी।”

राजा उसे भी विदा कर देता है और अपनी पहली पत्नी को बुलाता है जो सबसे वयस्क थी और जिस को उसने सबसे कम ध्यान एवं स्नेह दिया था। जैसे ही वह सारी कथा सुनती है वह तत्परता से उत्तर देती है,“आप जहाँ भी जायेंगे मैं आप के साथ चलूंगी। मैं आप का विश्वास कभी खंडित नहीं करूँगी।”

राजा अब शांति अनुभव करता है कि कोई तो है जो उसे बिना किसी अपेक्षा के प्रेम करता है। यह कथा वास्तव में किसी राजा और उनकी रानियों की नहीं है, यह कथा है आप की, प्रत्येक मनुष्य की। हर व्यक्ति की चार निम्नलिखित पत्नियाँ होती हैं -

सबसे युवा पत्नी हैं संपत्ति। यदि किसी को उत्तराधिकार में भी संपत्ति प्राप्त होती है तो भी यह अल्पकालीन अधिकार ही होता है, जो की मात्र एक जीवन काल तक ही सीमित होता है। जब किसी की मृत्यु होती है तो यह उसके साथ बिलकुल नहीं जाती। वह जहाँ है वहीं रहती है, दूसरों की इच्छा और प्रवृत्ति के अनुसार उन के उपभोग के लिए उपलब्ध।

तृतीय पत्नी है सम्बन्धी, अर्थात परिवार। इसका कोई प्रयोजन नहीं कि किसी व्यक्ति ने अपने जीवन काल में परिवार के लिए कितना कुछ भी किया हो अथवा आप के सम्बन्धी आप से कितना भी प्रेम क्यों ना करते हों, वे शमशान भूमि के आगे आप के साथ नहीं जा सकते। संबंधों का आरम्भ तभी हो जाता है जब आप गर्भ में होते हैं, अतः वे पुरातन होते हैं तथा संपत्ति से एक पायदान आगे होते हैं|

द्वितीय पत्नी है शरीर। अपने जीवन काल में मनुष्य अपने शरीर का कितना भी क्यों ना ध्यान रखे परंतु यह तो निरंतर क्षय शील है। यह किसी के साथ चिता के आगे नहीं जाता।

प्रथम पत्नी है कर्म। आप के कर्म आप के साथ अनेक जन्मों तक चलते हैं, इससे कोई भी बच नहीं सकता। हम क्या करते हैं इसी से निश्चित होता है हम क्या प्राप्त करेंगे। आप को इसी पर सर्वाधिक ध्यान देना चाहिए।

अधिकांश मनुष्य इस कहानी के राजा की तरह ही जीवन जीते हैं। ऊपर लिखे क्रमानुसार ही अपनी पत्नियों से प्रेम करते हैं। हालाँकि यह आवश्यक है कि हम अपनी संपत्ति, सम्बन्धी और शरीर का भी ध्यान रखें, हम अपने कर्मों और उसके फलों के लिए सदा ही उत्तरदायी होते हैं। जब अच्छे कर्म आप की पहचान होते हैं और आपके जीवन का आधार होते हैं तो आप स्वयं ही शांति का अनुभव करते हैं। एक स्वस्थ शरीर भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जब आप शारीरिक रूप से सबल हों तभी आप अपना ध्यान रख सकते हैं और अपना उत्तरदायित्व निभा सकते हैं। जैसा कि आप को वायु-यान में सुरक्षा प्रदर्शन में दर्शाया जाता है, आपात काल में सबसे पहले ऑक्सीजन मास्क स्वयं पहनें फिर आप निकट बैठे बालक की सहायता करें।

एक विनोदप्रिय कथा -  मुल्ला नसरूद्दीन एक बार एक धनी पुरुष के अंतिम संस्कार में जाता है। लौटते समय उसकी भेंट अपने मित्र से होती है। उसका मित्र उत्तेजित स्वर में बोला, “वह अत्यन्त धनी था, अपने पीछे बहुत सारा धन छोड़ गया होगा।” 

मुल्ला नसरूद्दीन ने कहा - “निश्चित रूप से, अपनी एक एक पाई छोड़ कर ही गया है!”

अपने परिवार के लिए एक विरासत छोड़ जाना कोई बुरी बात नहीं। वास्तव में यह एक पुनीत कार्य है। यदि आप अपने परिवार का ध्यान नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा? आशा है कि ऐसा करने हेतु आप अपने कर्मों का त्याग नहीं कर रहे हैं। मैं अनेक लोगों से मिलता हूँ जो ऐसा करते हैं।

रुकें, ठहरें, चिंतन करें, लंबी साँस लें, प्राथमिकता तय करें और तदनुरूप कार्य करें। अंततः आप के कर्म आप की बही में लिखे जाते हैं। कर्म करने वाला ही उत्तरदायी होता है, लाभार्थी नहीं।
(Image credit: Kirsten Baldwin)
शांति।
स्वामी



सबसे स्वाभाविक मानव इच्छा

आप को जब यह अहसास होता है कि आप के प्रति किसी के मन में स्नेह है, वह अनुभव एक शांत समुद्र के निकट बैठने के समान है। आप स्वयं एक सागर बन जाते हैं और आप को एक प्रकार की संपूर्णता महसूस होने लगती है।
मानव की सबसे मूलभूत इच्छा क्या है? वह आकांक्षा जो मानवता का आधार है, मनुष्य की सबसे प्रमुख आवश्यकता, जिस से आप की मानसिक स्थिति पूर्ण रूप से बदल सकती है, वह एक भावना जिस के कारण आप या तो स्वयं को अनमोल महसूस कर सकते हैं अथवा मूल्यहीन?

पिछले कईं वर्षों में मैंने अनेक लोगों के साथ बातचीत की है। मेरे अनुभव के आधार पर मुझे यह ज्ञात हुआ है कि सभी प्रतिक्रियाओं एवं भावनाओं का मूल  तत्व एक प्रमुख इच्छा होती है। ऐसी इच्छा जो प्राथमिक तथा आधारभूत है। यह है दूसरों के स्नेह की इच्छा। यह इच्छा कि आप को कोई स्वीकार करे, आप की सराहना करे। वही लोग जिन को आप एक समय पर प्रेम किया करते थे उन्हीं से आप घृणा करने लग सकते हैं यदि आप को उनसे स्नेह की प्राप्ति नहीं हो रही हो। मनुष्य को सबसे अधिक पीड़ा उपेक्षा के कारण होती है। उपेक्षा का अर्थ केवल यह नहीं कि कोई व्यक्ति आप की उपेक्षा कर रहा है। यह तो केवल एक प्रकार की उपेक्षा है। जब आप को आप के व्यक्तित्व अथवा अवस्था के कारण आप का परिवार या समाज पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं करता, जब आप के योगदान की सराहना नहीं की जाती, जब आप को कोई प्रेम नहीं देता, वह भी उपेक्षा ही है। और उस से पीड़ा पहुँचती है। चलिए मैं आप को वास्तविक जीवन की कहानी सुनाता हूँ जो मेरे वकील ने मुझे तेरह साल पहले बतायी थी।

सन १९८५ की बात है। सर्बिया से एक सत्तर वर्ष के बूढ़े व्यक्ति ने ऑस्ट्रेलिया की ओर प्रवास किया। समझ लें उसका नाम पावले था। उसके तीन पुत्र दो दशकों से ऑस्ट्रेलिया में निवास कर रहे थे। परिवार-वीजा श्रेणी के तहत उसके पुत्र अपने पिता को ऑस्ट्रेलिया ले कर आये। पावले एक विधुर था। सर्बिया में हालात प्रतिकूल नहीं थे। वह एक कठिन जीवन व्यतीत कर रहा था, बहुत अकेला महसूस कर रहा था और अपने पुत्रों के साथ रहने के लिए अति उत्सुक था। उसके परिवार के सदस्य एक दूसरों को बहुत प्रेम करा करते थे और उस ने अपने स्थायी निवास प्राप्त करने के लिए छह साल से अधिक प्रतीक्षा की थी।

ऑस्ट्रेलिया में पहुँचते ही उसके तीन पुत्रों ने हवाई अड्डे पर उसका स्वागत किया। आरंभ में सब ठीक था, परंतु कुछ समय पश्चात उसके पुत्रों को यह प्रतीत हुआ कि वे अपने पिता को भोजन खिलाने अथवा उन्हें शरण देने का बोझ नहीं उठा सकते। पावले को केवल अपने पुत्रों के ह्रदय एवं घर में जगह की तथा एक समय के भोजन की आवश्यकता थी, परंतु उसके पुत्र उसे अब एक बोझ के रूप में देखने लगे। वे उस की उपेक्षा करने लगे। अगले दो वर्षों में उसे अपने पुत्रों से और अधिक अवांछितता, उदासीनता एवं घृणा मिलने लगी। वह अंग्रेज़ी नहीं बोल पाता था, इसलिए नगर के सड़कों अथवा बगीचों में भी वार्तालाप के लिए कोई ना मिला।

एक दिन पावले के व्यवहार में एक विचित्र परिवर्तन आया। पादचारी मोड़ के समीप खड़े होकर वह वाहनों की प्रतीक्षा करता और जैसे ही वाहन उसके निकट आते वह सड़क पार करने लगता, जिस के कारण सारा यातायात अचानक रुक जाता। आम तौर पर किसी भी वाहन को रुकने में कोई आपत्ति नहीं होती, क्योंकि वे पादचारी मोड़ के निकट होते। परंतु पावले प्रतिदिन सुबह-शाम यही करता रहता। सड़क की दूसरी ओर जाने के उपरांत वह उन वाहनों को जाने देता और फिर वही व्यवहार फिर दोहराता। इस से लोगों को बहुत असुविधा पहुँचने लगी। आखिरकार, पुलिस ने उसे दुराचार एवं यातायात में बाधा डालने के लिए जुरमाना लगाया। किंतु पावले ने उस को अनसुना कर दिया। एकाधिक टिकट मिलने के बाद, उसे आरोपों का सामना करने न्यायालय में उपस्थित होना पड़ा।

“यह एक असामान्य मुकदमा है,” न्यायाधीश ने कहा। “चिकित्सकों के अनुसार आप का स्वास्थ्य ठीक है परंतु फिर भी आप ने बार बार सड़क पर बुद्धिहीन एवं संकटपूर्ण व्यवहार दर्शाया। आप भी स्वयं को दोषी मान रहे हैं। मैं तो चकित हो गया हूँ। क्या आप कुछ कहना चाहते हैं?”
“मानव”, पावले ने उत्तर दिया, “मुझे मानव होने का अहसास हुआ।”
“मानव? न्यायालय के पास पहेली बुझाने का समय नहीं है। स्पष्ट रूप से उत्तर दें।”
एक अनुवादक के रूप में उसके पुत्र ने उसकी सहायता की, और पावले आगे यह बोला - “न्यायाधीश महोदय, मुझे ऐसा महसूस हुआ कि किसी को मेरे प्रति स्नेह है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि अंततः किसी ने मेरे साथ एक मानव जैसा व्यवहार किया। जब किसी ने मेरे लिए अपना वाहन रोका तो मुझे एक अद्भुत प्रकार की प्रसन्नता हुई। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं कोई अवांछित खरपतवार नहीं परंतु फसल का हिस्सा हूँ जो किसान को अत्यंत प्रिय है। पूरे जीवन मुझे जो गरिमा एवं सम्मान ना प्राप्त हो सका वह इन वाहनों के रुकने पर मुझे अनुभव हुआ। मुझे यह महसूस हुआ कि मैं किसी के लिए विशिष्ट हूँ। वह क्षण अनमोल था। मुझे इस बात का अपसोस है कि मेरे कारण लोगों को बहुत कष्ट हुआ। मैं वचन देता हूँ कि मैं इसे कभी नहीं दोहराउँगा।”

न्यायाधीश ने प्रेम भरे परंतु सशक्त स्वर में कहा “ऑस्ट्रेलिया एक स्वतंत्र राष्ट्र है जिस की मिट्टी पर  रहने वाले हर व्यक्ति को सम्मान का अधिकार है। आप को निर्देश दिया जाता है कि आप भविष्य में ऐसे कार्य ना करें ताकि इस देश में रहने वाले अन्य व्यक्ति भी इस अधिकार का आनंद ले सकें। यह न्यायालय आप को क्षमा प्रदान करता है।”

न्यायालय में पावले की बातें सुन कर उस का पुत्र फूट फूट कर रोने लगा। न्यायालय के बाहर उन दोनों ने एक दूसरों को गले लगाया और खुशी के आंसू बहाये। ऑस्ट्रेलियाई नागरिकता प्राप्त करने के पश्चात पावले को पेंशन मिलने लगा और वह अपनी अंतिम सांस तक वहीं रहा। इस प्रकार उस की कहानी का अंत सुखद रहा।

सभी पुत्रों को इस प्रकार अपनी भूल का अहसास नहीं होता, और कुछ को यह अहसास बहुत देर बाद ही होता है। पावले के समान हर व्यक्ति को इस प्रकार के दुख से मुक्ति नहीं मिलती। हर कहानी का अंत इस प्रकार आनन्ददायक नहीं होता। और वैसे भी कहानी का अंत उतना महत्वपूर्ण नहीं होता। इस का कोई महत्व नहीं कि मृत्यु के पश्चात आप को दफनाया जाता है या आप का दाह संस्कार किया जाता है अथवा आप को संसार भुला देता है या याद करता है। यदि कुछ महत्वपूर्ण है तो वह है केवल आप की यात्रा। क्योंकि आप की यात्रा की श्रेष्ठता ही आप को तथा आप के संगत में रहने वाले व्यक्तियों को स्पष्टतः प्रभावित करता है। यह लेख पुत्रों अथवा पिताओं के विषय में नहीं है, केवल मानव एवं मानवता के विषय में है।

आप के प्रति किसी के मन में प्रेम की भावना हो, यह कोई विशेषाधिकार नहीं केवल एक स्वाभाविक एवं मूलभूत मानव आवश्यकता है। दुर्भाग्य से वर्तमान में इस संसार में अधिकतर व्यक्ति प्रेम से वंचित हैं। स्नेह की खोज में भटकना अथवा किसी और से उसकी अपेक्षा करना निरर्थक है। इसलिए यदि किसी और से आप को स्नेह प्राप्त नहीं होता है तो स्वयं से प्रेम करना सीखें। अपने आप से नि:स्वार्थ प्रेम करने की अवस्था तक पहुँचने के लिए समय लगता है। तब तक दूसरों को अपना प्रेम दें - ऐसे लोगों को जो आप का स्नेह चाहते हैं। और फिर एक दिन आप पाएंगे कि आप आत्म परिवर्तन के मार्ग में बहुत आगे पहुँच गए हैं। आप स्वयं को आनंद के सागर में तैरता पाएंगे। आप के ह्रदय में करुणा एवं स्नेह उमड़ेगा जिस से जीवन के सारे दूख और दर्द बह कर दूर हो जाएंगे। जब आप जीवन में करुणा को अपनाते हैं तथा ईश्वर द्वारा रचित जीव की सेवा करते हैं, तो भगवान आप के जीवन में जिस का अभाव हो उस की पूर्ती की व्यवस्था करते हैं। हो सकता है यह वह अभाव नहीं जिस प्रकार आप उसे परिभाषित करते हैं, परंतु यह वह है जिस की आप को वास्तव में आवश्यकता है।

दूसरों के प्रति अपने स्नेह को दर्शायें। उन्हें यह अहसास दिलाएं कि वे आप के लिए विशिष्ट एवं अनमोल हैं। जब तक आप किसी और को यह अहसास ना दिलाएं आप स्वयं यह कभी नहीं समझ पाएंगे कि दूसरों के स्नेह के कारण विशिष्ट महसूस करने की भावना कैसी होती है।

शांति।
स्वामी



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