अपवित्र विचारों से कैसे मुक्ति पाएं

मन बंदर की भांति होता है, सदैव एक स्थान से दूसरे स्थान पर छलांग लगाता है। वह पवित्र-अपवित्र अथवा अच्छा-बुरा नहीं होता। मन तो केवल मन होता है।
“क्या अशुद्ध विचारों का आना कोई पाप है? मैं कैसे इन विचारों से मुक्त हो सकता हूँ ?”। किसी ने मुझसे यह प्रश्न किया था। इससे पहले कि मैं इस प्रश्न का उत्तर दूं मैं आप को सूचित करता हूँ कि मुझे पाप की धारणा में कोई विश्वास नहीं है। पाप अपने आप में कुछ नहीं है। मैं ऐसा नहीं कहता कि जो कुछ भी हम करें एवं सोचें वह सही होता है। परंतु सामान्यतय पाप का तात्पर्य यह होता है कि आप ने कुछ ऐसा किया है जिससे ईश्वर ने आप से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया है तथा ईश्वर अब आपसे उदास हो गये हैं। मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ। मुझे नहीं लगता कि ईश्वर को ईश्वर कहा जाना चाहिए यदि वह उदास हो जाए। ईश्वर का प्रेम अप्रतिबंधित होता है। पाप एक धार्मिक संकल्पना है, जबकि आपका मूल स्वभाव और ईश्वर किसी भी धर्म, पुस्तक अथवा मान्यता से परे है। 

यदि पाप कुछ नहीं होता, तो इसका अर्थ क्या यह है कि सब कुछ स्वीकार्य है? कदापि नहीं। प्रकृति स्वयं स्वनियोजित आगम पर चलती है। आप सेब का बीज रोपेंगे तो सेब का वृक्ष ही उगता है। प्रकृति आपके इस कर्म के फलस्वरूप कोई दंड अथवा पुरस्कार नहीं दे रही, अच्छा ओर बुरा, सही ओर ग़लत यह तय करना मानवीय मार्ग है। दिव्य मार्ग केवल जागृत रहना एवं साक्षी बने रहना है। अशुद्ध विचारों का आना कोई पाप नहीं है, किंतु उन विचारों पर अपने कर्मों को आधारित करने पर अवाँछनीय कर्म हो जाते हैं। और यही बात मुझे आज के विषय पर ले जा रही है - अशुद्ध विचारों से उपर कैसे उठा जाए?

यदि आप को कोई यह कह रहा है, कोई आप को ऐसी प्रक्रिया, या कोई ऐसा मार्ग दे रहा है जिससे कि आप के मन में अशुद्ध विचार ना आएं, तो वे असत्य बोल रहा है। विश्व की कोई भी शक्ति अथवा कोई भी व्यक्ति इस बात की प्रत्याभूति नहीं दे सकता। प्रत्येक मनुष्य को औसतन २४ घंटे में ६०००० विचार आते हैं, और यह स्वाभाविक है कि उनमें से कुछ विचार ऐसे रहेंगे जो अवाँछनीय होंगे। अपवित्र विचारों का आना आप को बुरा व्यक्ति नहीं बनाता। विचारों का महत्व नहीं है किंतु आप उन विचारों को लेकर क्या करते हैं उसका महत्व है।

प्रत्येक मनुष्य घृणा, ईर्ष्या, अनुचित व्यवहार के विचारों का अनुभव करता है। उसमें कोई हानिकारक बात नहीं है क्योंकि विचार किसी भी समय तथा किसी भी दिशा से आ सकते हैं। किसी एक को मंदिर में प्रार्थना करते समय व्यभिचार ओर छल कपट के विचार आ सकते हैं और उसी व्यक्ति को वैश्यालय मे दया एवं नैतिकता के विचार आएं यह भी संभव है। विचार स्वैछिक नहीं होते और बिना निमंत्रण ही चले आते हैं। अशुद्ध विचारों के आने में कुछ भी असामान्य नहीं होता। अंतत: विचार नहीं किंतु उसके पीछे जाना ही आप की भावनात्मक और मानसिक स्तर को प्रभावित करता है।

इसलिए, आप को कभी भी बुरा विचार आए ही नहीं ऐसी अपेक्षा रखना वास्तविकता नहीं है, किंतु बुरे विचारों के आवागमन में ना आना तथा उनपर अमल ना करना यह संभव है। जब आप को कोई ऐसा विचार आए जो आप को बुरा प्रतीत हो तो आप का ध्यान कहीं और ले जाएं। आप का मन कहीं और केंद्रित करें। विचार के पीछे मत जाएं। उदाहरणार्थ-  आप अपने जीवन में आपके सुंदर परिवार सहित जो कुछ भी मिला है ईश्वर को उसके लिए धन्यवाद दे रहे हैं। और अचानक एक स्त्री का विचार आये तो उस समय, आप अपने विचार के पीछे ना जाएं और नाही उस विचार से दुख अनुभव करें कि आप को ऐसा विचार क्यों आया। केवल धीरे से आप का ध्यान वर्तमान समय में ले आएं, और वह स्त्री अपने आप चली जाएगी।

यदि फिर भी आप अपने मन को उन्हीं विचारों पर लगाए रखें ओर उस स्त्री के विषय पर, उसके शरीर के विषय पर और उसके साथ रहने का चिंतन करते रहें तो शीघ्र ही वे विचार आप के सोचने की शक्ति पर नियंत्रण पा लेंगे। बर्फ का एक छोटा टुकड़ा, जब नीचे गिरना शुरू होता हे तो हानि रहित होता है परन्तु  गिरते गिरते एक विशाल बर्फ के गोले मे परिवर्तित हो जाता है। यह उस ही भांति है की जब आप अपने विचारों को कार्यरूप में परिवर्तित करें तत्पश्चात आपको पछतावा हो।

एक शिष्या को अपने गुरु से प्रेम हो गया। वह अपनी इन भावनाओं के कारण अपने आप को दोषित समझने लगी। वह अपने अपराध की भावना से उपर ना उठ सकी। जब उसका हृदय उसकी बुद्धि पर नियंत्रण पाने लगा तब उससे और रहा न गया ओर वह अपने गुरु के पास गई।
“मुझे क्षमा करें गुरुजी,” उसने कहा, “परंतु मुझे आपके प्रति असीम प्रेम की भावना का अनुभव हो रहा है।”
“क्षमा माँगने की कोई आवश्यकता नहीं” गुरुजी ने कहा। “यदि तुम्हे मेरे प्रति असीम प्रेम की भावना है, तो मेरे पास हम दोनों के लिए पर्याप्त संयम है।”

मान लीजिए कि आप एक गुरु हैं और आप के विचार आपकी शिष्या। जब आप को विचार आएं तो आप को लज्जित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। आपको केवल सचेत रहना है और उसके तदनुसार क्रिया चुननी है। आप के विचारों को आपके पास आने की स्वतंत्रता दें, तथा आप उन्हें दिशा देने की शक्ति रखें। यदि फिर भी बार बार आप को एक ही बुरा विचार आए तब उन विचारों के मूल में जाना आवश्यक हो जाता है। संभव है वे किसी अभाव के कारण आ रहे हों। ऐसे व्यक्ति जिन्होंने कभी भी सच्चे प्रेम का अनुभव नहीं किया हो उनकी तुलना में जो लोग अपने जीवन में संतुष्ट हैं वे नित्यरूप से कम ईर्ष्या और द्वेष का अनुभव करते हैं।

यदि कोई उपवास कर रहा है, तो स्वाभाविक रूप से अन्य की तुलना में उनको भोजन के विचार और अधिक आएँगे। यदि वे व्यस्त हों तो संभवत: उनको भूख का अनुभव नहीं होगा। जैसे ही उन्हें समय मिलेगा भोजन का विचार एकदम दृढ़ता से उठेगा। उसी प्रकार, जब आप अपने मन को कुछ क्षण के लिए निष्क्रिय छोड़ दें, तो संभव है कि आप को बुरे, नकारात्मक या तनावपूर्ण विचार आएँगे। यह स्वाभाविक है। कारण? क्योंकि सर्वाधिक लोग स्वयं के साथ युद्ध कर रहे होते हैं कि उन्हें नकारात्मक विचार नहीं आने चाहिए अथवा ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए आदि। ठीक उसी प्रकार जैसे आप उपवास कर रहे हों और आप अपने मन से भोजन का विचार निकालने का प्रयत्न कर रहे हों।

जागरूकता उसकी कुंजी है। स्वीकार करें, प्रतिक्रिया ना करें, विचारों का पीछा ना करें, ना ही अपने आप को दोषी मानें। जैसा हे वैसा ही रहने दें। आप ध्यान द्वारा, चिंतन द्वारा एवं दृढ़ संकल्प से जागरूक हो सकते हैं। आप को कदापि आपके विचारों एवं भावनाओं के लिए लज्जित होने की आवश्यकता नहीं है। वे शुद्ध-अशुद्ध नहीं होते, वे केवल विचार होते हैं। आप उसके साथ क्या करते हैं बस उसके लिए जागृत रहें।

आप जब अपने आप को सहजता से वर्तमान क्षण में ले आते हैं तब सब विचार, अच्छे और बुरे, लुप्त हो जाते हैं। उसके पश्चात कोई संघर्ष नहीं होता। वर्तमान क्षण में ऐसा कुछ नहीं है जिससे भागना पड़े। यही सरल सत्य है।

शांति।
स्वामी




मन, विचार और इच्छाएं

सागर की लहरों के समान, विचार मन में निरंतर आते रहते हैं; एक विचार जैसे ही चला जाए, कोई दूसरा तुरंत मन में आ जाता है।
कुछ पाठकों ने यह प्रश्न पोस्ट किए हैं -

प्रश्न - हरि ओम जी, इच्छा के वास्तविक अर्थ को स्पष्ट करने के लिए मैं आप का आभारी हूँ। यह एक भँवर के समान है, हम सब इस में फंसे हुए हैं बिना यह जाने कि यह कितनी गहराई से उत्पन्न होती है। स्वामी जी, क्या आप बौद्धिक इच्छाओं के विषय पर विवरण कर सकते हैं। आप ने कहा है “प्राय: बौद्धिक इच्छाओं की पूर्ती से समाज को कुछ मूल्यवान उपलब्धि होती है। एक धर्मार्थ संगठन स्थापित करना, किसी भौतिक या आध्यात्मिक वस्तु अथवा ज्ञान की खोज करना, सामाजिक या धार्मिक कल्याण का कार्य करना, ये सभी बौद्धिक इच्छाओं के उदाहरण हैं।” अपने व्यक्तिगत लाभ के विषय में ना सोचते हुए समाज का कुछ भला करना अथवा ज़रूरतमंद की मदद करना इसे हम कैसे बौद्धिक इच्छा कह सकते हैं? हाँ जो व्यक्ति नाम कमाने के लिए यह कार्य करते हैं वे निश्चित रूप से अहंकारी बन सकते हैं। परंतु जो केवल सच्चे दिल से सेवा कर रहे हैं, मन से नहीं, क्या उन लोगों के लिए यह कहना उचित होगा? उनका मन ही उन्हें यह करने के विचार दे रहा है, उन्हें उत्साहित कर रहा है, परंतु उनके कार्य तो सम्पूर्ण भाव से किए जाते हैं, तो फिर वे बौद्धिक इच्छाओं से कैसे जुड़े होंगे। कृपया मुझे यह समझाएं।  “इच्छाओं को पहले समझें, फिर उन्हें धीरे धीरे शांत करें, फिर उन पर विजय पाएं और अंत में उन्हें पूरी तरह त्याग दें”। आप ने कहा है कि ध्यान योग द्वारा हम मन को, और फिर इच्छाओं को शांत कर सकते हैं। परंतु यदि हमारा मन और हमारे विचार हमे हर समय पराजित करते रहें तो ऐसे में क्या किया जाए? उस समय व्यक्ति बहुत निराश हो जाता है क्योंकि उसे यह अहसास हो जाता है कि वह एक सोचने के यंत्र के समान है। बहुत प्रयास करने पर भी जब वह मन को शांत नहीं कर पाता तो वह अत्यंत हताश हो जाता है। हम कैसे मन पर विजय पाएं? धन्यवाद।

उत्तर - यहाँ संकल्प और इच्छा में अंतर समझना आवश्यक है। संकल्प एक ऐसा विचार है जो आप के कर्मों को दिशा प्रदान करता है। किंतु यदि आप उन कर्मों के परिणाम से, उनके फल से बंध जाते हैं, तब वह संकल्प नहीं रह जाता - वह एक इच्छा बन जाती है। बिना किसी अपवाद के मेरे सभी लेख आध्यात्मिक बोध की ओर केंद्रित हैं। ध्यान योग के दृष्टिकोण से, हर प्रकार की इच्छा साधक को बांधती है। क्या वह इच्छा अच्छी है या बुरी यह तो केवल एक वर्गीकरण है। दिल लगा कर कोई कार्य करना संभव ही नहीं जब तक पहले उस कार्य का विचार मन में उत्पन्न ना हो। यहाँ तक कि एक आवेग भी एक विचार ही है, यद्यपि एक अत्यंत तीव्र गति का विचार। यहाँ याद रखें मन का अर्थ बुद्धि नहीं।

आरंभ में विचार आप पर हावी होंगे, किंतु अभ्यास के साथ साथ, आप अपने मन और विचारों को पूरी तरह से नियंत्रित कर पाएंगे। मैं दोहराना चाहूँगा कि यह आसान नहीं है। धैर्य और दृढ़ता द्वारा आप अमूल्य फल प्राप्त कर सकते हैं। यदि आप दृढ़ता से अभ्यास करते रहें तो फल अवश्य मिलेगा। जब जब आप का मन भटकने लगे बहुत धीरे से आप उसे वापस उस वस्तु की ओर लेकर आएं जिस पर आप ध्यान कर रहे हों। कुछ समय बाद, संभवतः बहुत समय बाद, मन का भटकना बंद हो जाएगा। परंतु इस का कोई सरल उपाय नहीं है। मन की शांति प्राप्त करना कोई साधारण उपलब्धि नहीं, और निश्चित रूप से इसे हासिल करने के लिए एक असाधारण प्रयास की आवश्यकता है,  कम से कम शुरूआत में।

प्रश्न -  नमस्ते स्वामीजी, मुझे आप का ब्लॉग पढ़ने में बहुत खुशी मिलती है। विभिन्न विषयों पर जानकारी देने के लिए धन्यवाद। मेरे दो प्रश्न हैं। आत्म ज्ञान और अपने वास्तविक स्वरूप को जानने में क्या अंतर है? जब हम “अहं ब्रह्मास्मि” कहते हैं तो क्या इसका यह अर्थ है कि आत्म ज्ञान और ब्रह्मा ज्ञान एक ही है? हम आपका मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए उत्सुक हैं। प्रणाम।

उत्तर - आत्म ज्ञान और अपने वास्तविक स्वरूप को जानना वास्तव में एक ही है। जब आप को यह पता चल जाए (ज्ञान) कि आप कौन हैं (आत्म) वही है आत्म ज्ञान। ब्रह्म ज्ञान और आत्म ज्ञान में कोई अंतर नहीं। यह याद रखें कि यह केवल एक बौद्धिक ज्ञान नहीं। यह तो बुद्धि की समझ से बाहर है। इसे समझने के लिए आप को स्वयं को इस लायक बनाना होगा।

हरे कृष्ण।
स्वामी



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