एकांत: अकेले रहने की साधना

यदि आप एकांत में सुख पा सकते हैं तो कभी अकेलेपन का अहसास नहीं होगा। एकांत आप की भीतरी शक्ति को विकसित करता है।
अकेले रहने को संस्कृत में एकांत कहते हैं। जो व्यक्ति मन को अपने अंदर की ओर केंद्रित करने में सक्षम हो उस की प्रमाणिक पहचान यह होती है कि उसे एकांत अत्यंत सुखदायी लगता है। एकांत रहने की असमर्थता बेचैन मन का अचूक लक्षण है। एक शांत मन के लिए एकांत जैसा अथाह कुछ नहीं तथा एक बेचैन मन के लिए एकांत से अधिक भयानक कुछ नहीं। केवल दो प्रकार के व्यक्ति ही एकांत में सुखद रह सकते हैं - आलसी और योगी। एकांत से मेरा अर्थ यह नहीं कि आप कहीं दूरस्थ स्थान में रहें किन्तु टेलिविज़न, पुस्तकें, इंटरनेट इत्यादि का उपयोग कर रहें हों। एकांत से मेरा यह तात्पर्य है कि आप केवल स्वयं की संगत में रहें। आप एक ही व्यक्ति से बात कर सकते हैं जो आप स्वयं हैं, केवल एक ही व्यक्ति की सुन सकते हैं जो आप स्वयं हैं, चारों ओर केवल आप ही आप हैं। केवल आप का मन ही आप को व्यस्त रखने वाली वस्तु है। आप ऊब गए तो वापस अपने आपके पास जाते हैं और आप सुखी हैं तो अपने आप के साथ ही प्रसन्नता बांटते हैं। एकांत वास की अभ्यास के समय दूसरों से मिलना या उनसे बात करना तो दूर उनको आप देख भी नहीं सकते हैं। आप केवल एक ही व्यक्ति को देख सकते हैं जो आप स्वयं हैं।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते (भगवद गीता २.५५)
जो स्वयं के भीतर बसता है और भीतर संतुष्ट रहता है वह वास्तव में एक योगी है।
जो साधक भीतर की ओर केंद्रित है वह एकांत में अत्यन्त आनंद पाता है। ऐसी स्थिति में वह भीतरी परमानंद का लगातार अनुभव कर सकता है।

यदि आप एकांत में रहें और पढ़ने या लिखने या इसी तरह की अन्य गतिविधियों में अपने मन को लगाते हैं तो वह भी एकांत ही है। परंतु यह बेहतरीन प्रकार का एकांत नहीं है। यह एक अधूरे एकांत के समान है। सर्वश्रेष्ठ एकांत वह है जिसमें आप को हर बीतते हुए क्षण का अहसास हो रहा है। आप सुस्त नहीं हैं या आप को नींद नहीं आ रही है। आप जागृत एवं सतर्क हैं। आप को बेचैनी का अहसास नहीं हो रहा है। आप को सदैव "कुछ" करने की उत्तेजना नहीं है। आप भीतर से शांति का अनुभव कर रहें हैं। यदि आप अपने मन का सामना करें और सीधे उसे ध्यानपूर्वक देखें तो आप एकांत में हैं। जिसने एकांत में रहने की कला में निपुणता प्राप्त कर ली ऐसा योगी सदैव भीड़ में भी एकांत रहेगा। उसकी शांति बाहर के शोर से अप्रभावित रहती है। उसकी भीतरी दुनिया बाहरी दुनिया से संरक्षित है।

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।। (भगवद गीता ६.१०)

एक व्यक्ति जो स्वयं के परमात्मा से मिलन का इच्छुक है उसे इच्छाओं तथा बंधनों और स्वामित्व से स्वयं को मुक्त करके भीतर की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और एकांत में रहकर ध्यान करना चाहिए।

एकांत में बेचैनी और व्यामोह की प्रारंभिक अवधि के बाद हमारे भीतर परमानंद की भावना बहने लगती है। सब कुछ स्थिर हो जाता है। आप का मन, इंद्रियाँ, शरीर, पास-पड़ोस, बहती नदी, झरने - सब कुछ स्थिर हो जाते हैं। अनाहत नाद और अन्य दिलकश ध्वनियाँ स्वयं ही प्रकट होने लगती हैं। परंतु वे एक विचलन उत्पन्न कर सकती हैं। एक निपुण ध्यानी अनुशासित रूप से अपना ध्यान केंद्रित रखता है। एकांत में रहने के लिए अत्यधिक अनुशासन की आवश्यकता है। और स्वयं के अनुशासन के द्वारा आप जो भी कल्पना करें वह सब प्राप्त कर सकते हैं। एकांत में अनुशासित रहना अपने आप में ही एक तपस्या है। सबसे तीव्र गती से आत्म शुद्धीकरण करने का यही रास्ता है।

कायेन्द्रियसिध्दि: अशुध्दिक्ष्यात तपस: ( पतंजलि योग सूत्र , २.४३ )
स्वयं का अनुशासन सभी वेदनाओं और दोषों को जला देता है। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी रहा है। एकांत बिना किसी उपदेश के आप को तेजी से सिखा सकता है।


जेटसन मिलरेपा, मार्पा के शिष्य
योग एवं तंत्र के ग्रंथों ने एकांत में रहने की क्षमता और स्थिरता प्राप्त करने को अत्यन्त महत्व दिया है। महान तिब्बती योगी जेटसन मिलरेपा ने अपने गुरु के निर्देशानुसार भयंकर चोटियों पर कड़े एकांत में ध्यान करते हुए अपना पूरा जीवन व्यतीत कर दिया। एक बार उनकी महिला शिष्यों ने उन्हें प्रचार के लिए अपने गाँव आमंत्रित किया। शिष्यों का तर्क था कि मिलरेपा की उपस्थिति, आशीर्वाद एवं तपस की शक्ति से मानवता का कल्याण होगा। विशेषकर यदि मिलरेपा शहरों और गाँवों में उनके बीच रहें।

किंतु मिलरेपा ध्यान के अभ्यास में घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध थे। उन्होंने उत्तर दिया - "एकांत में ध्यान अभ्यास करना ही स्वयं में मानवता का कल्याण, उनकी सेवा है। हालांकि मेरा मन अब विचलित नहीं होता है तब भी एक महान योगी का एकांत में रहना अच्छी प्रथा है।" (दी हंडरेड थौसेंड सांग्स आफ मिलरेपा, गर्मा चैंग)

मानसिक परिवर्तन में एकांत रहने का अभ्यास अत्यन्त महत्वपूर्ण है। एकांत अभ्यास में स्वाभाविक रूप से निस्तब्धता की साधना भी शामिल है। आप संक्षिप्त अवधियों में एकांत अभ्यास शुरू कर सकते हैं। पहले कम से कम चौबीस घंटे की अवधि से प्रारंभ कर सकते हैं। नगरवासियों के लिए अकेले रहने की जगह ढूंढना कठिन है। शुरू करने के लिए एक शांत कमरा खोजें और उसमें स्वयं को एक या दो दिनों के लिए बंद करलें। आप के साथ कम से कम सामग्री ले जाएं। आपके कमरे में एक संलग्न शौचालय हो तो उत्तम होगा। ध्यान रहे कि यह केवल शुरुआत है। धीरे-धीरे वीरान स्थानों में अभ्यास करने से एकांत की प्रबलता विकसित होगी। मेरा अनुभव यह कहता है कि आप जब प्रगति करोगे तब ध्यान के लिए अनुकूल जगह सहित प्रकृति सब कुछ की व्यवस्था स्वयं ही कर देगी।

निपुण एकांत की परिभाषा को समझने के लिए नीचे दी गई तालिका को देखें :

(बड़ा किया गया चित्र देखने के लिए चार्ट पर क्लिक करें।)
एकांत के अभ्यास के समय, यदि आप किसी भी व्यक्ति से मिलें या उसे देखें तो उसका प्रभाव लाल अर्थात विशाल है और उस ही क्षण आप विफल हो जाते हैं (और अधिक जानकारी के लिए मौन - निस्तब्धता की साधना पढ़ें)। ऐसे में आप को एकांत का अभ्यास फिर से शुरू करना होगा। इसी प्रकार यदि आप पारस्परिक कार्य टेलीवीज़न अंतर्जाल इत्यादि का उपयोग करें तो उस ही क्षण आप विफल हो जाते हैं। एकांत का अभ्यास मौन से भी दृढ़ अभ्यास है। आपके पास केवल कुछ पढ़ने की छूट है। हालांकि वो भी आप के एकांत को प्रभावित करता है , परंतु यह स्वीकार्य है। आप का लक्ष्य है मन को सभी कार्यों, बंधनों एवं व्याकुलताओं से मुक्त करना।   हिमालय पर्वत पर एकांत का जो मैं ने समय बिताया उस अनुभव पर जब भी मैं लिखना प्रारंभ करता हूं मेरे लेख बहुत लंबे हो जाते हैं। उम्मीद करता हूं किसी दिन मैं विस्तार रूप से इस विषय पर अलग से लिखूंगा।

जागो! स्वयं को संसार की भीड़ से मुक्त करने का प्रयास करो , ताकि भीड़ में भी आप स्वयं को मुक्त पा सकें।
(Image credit: Dennis Wells)
शांति।
स्वामी
यह आत्म परिवर्तन के योग की श्रृंखला में छठा लेख है।



मौन - निस्तब्धता की साधना

यह आत्म परिवर्तन योग शृंखला में पाँचवा अनुच्छेद है।

निस्तब्धता की साधना
मानसिक परिवर्तन

इस पोस्ट में आत्म परिवर्तन का एक मुख्य अभ्यास
प्रस्तुत है।

Image source: Steve Evans
आत्म परिवर्तन की राह पर पहला अभ्यास मौन रहने की कला है। यह आवश्यक नहीं कि इसी अभ्यास से आप आत्म परिवर्तन प्रारंभ करें, इस विषय का केवल मैं सब से पहले विस्तृत वर्णन कर रहा हूँ। निस्तब्धता मन की शांति की प्राप्ति में आप की सहायता कर सकता है। निस्तब्धता को संस्कृत में मौन कहते हैं। दिलचस्प बात यह है कि भगवद गीता में मौन को तपस्या के रूप में परिभाषित किया गया है:

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ (भगवद गीता १७- १६)

सुखद स्वभाव, सम मनोदशा, आत्म विचार और निदिध्यासन, एक शांत मन एवं भाव की शुद्धता मन की तपस्या होती है।

मनुष्य का मन सदैव बात करता रहता है। यदि आप बात कर रहे हों तो आपके मन की बात को सुनना संभव नहीं है। यदि आप अपने मन की बातों की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो उस को शांत करना असंभव है। और, अपने मन की सुनने के लिए आप का मौन होना आवश्यक है। मन की पूर्ण शांति प्राप्त करने के लिए निस्तब्धता सर्वोपरि है।

पहले आप को छोटी सी अवधि से मौन का अभ्यास प्रारंभ करना चाहिए। कम से कम एक साथ चौबीस घंटों के लिए मौन रहना चाहिए। आप केवल बोलती बन्द करके मौन रहें तो इस अभ्यास की केवल पचास प्रतिशत पूर्ती होगी। मौन अभ्यास का अर्थ है पूरी तरह से निस्तब्धता। अर्थात किसी भी प्रकार का वार्तालाप नहीं करना चाहिए। नीचे दिखाये गए चार्ट को ध्यान से जांचें -
(बड़ा किया गया चित्र देखने के लिए चार्ट पर क्लिक करें।)
उदाहरण के रूप में अपने वाहन चालक परीक्षा के बारे में सोचें। जब आप वाहन चलाने के लिए परीक्षण के अधिकारी के साथ गाडी में बैठते हैं तो आप को यह स्पष्ट है कि कईं गलतियाँ "तात्कालिक विफलता" होती हैं जबकि कुछ गलतियों को क्षमा किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि आप मुढ़ते समय इशारा नहीं करते हैं या लेन बदलने से पहले अंध क्षेट्र को देखने में विफल रहें तो आप का परीक्षण तुरन्त समाप्त किया जाता है और आप को वापस जाने को कहा जाता है। किंतु आप यदि पृष्ठ या पीछे देखने वाले दर्पण को लगातार देखने में अधिक सतर्क नहीं रहें और केवल कभी-कभार ही देखते हैं तो आप तब भी सफल हो सकते हैं।

इस प्रकार आगे की सभी प्रथाओं को "तात्कालिक विफलता", "चेतावनी" और "सुधारने की आवश्यकता" के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा। उपर्युक्त चार्ट के प्रभाव पंक्ति में “तात्कालिक विफलता” को लाल तथा “चेतावनी” को पीला और “सुधारने कि आवश्यकता” को हरे से सम्बोधित किया गया है।

समझ लें आप अड़तालीस घंटे के लिए मौन रहने का अभ्यास करते हैं। यदि उस अवधि में आप कोई भी मौखिक वार्तालाप करते हैं तो उसका प्रभाव लाल अर्थात विशाल है और उस ही क्षण आप विफल हो जाते हैं। यदि आप उन अड़तालीस घंटों में समाचारपत्र आदि पढ़ें, तो आप के अभ्यास की उत्कृष्टता पाँच प्रतिशत घट जाती है (चार्ट के महत्व पंक्ति को देखें), यह एक "हरी" गलती है क्योंकि आप अपना अभ्यास अभी भी जारी रख सकते हैं।

मौन के समय, शुरू में आप अपने साथ एक पुस्तक ले जा सकते हैं। परंतु आदर्शतः आप को मौन की पूर्ण अवधि एक कमरे में केवल स्वयं की संगत में ही बितानी चाहिए। परंतु यदि आप चौबीस घंटों में अठारह घंटे सोने में बिता दें क्योंकि आप के पास करने के लिए और कुछ नहीं है तब आप मौन के अभ्यास में अपना समय नष्ट ना करें। यह अभ्यास मौन का है, निद्रा का नहीं। आप जितना अधिक सचेत और सतर्क रहें आप का अभ्यास उतना ही बेहतर होगा। जब आप पूर्ण रूप से मौन का पालन करें, आप को अपने मन के बेचैन एवं अशांत स्वभाव का अहसास होना शुरू होगा। आप को पता चलेगा कि मन उस बेचैन लंगूर की तरह है जो अधिक समय तक किसी भी शाखा पर नहीं टिक पाता।

शुरू में, मौन के समय आप के ध्यान करने की क्षमता कम हो जाएगी। साथ ही संभवत: आप एक बेचैनी का अनुभव भी करेंगे। परंतु आप चिंतित ना हों - यह स्वाभाविक है। संयम के साथ निरन्तर प्रयत्न करते रहें फिर धीरे धीरे शांति का अनुभव करेंगे। इस प्रकार आप उत्कृष्टता से ध्यान करने के लिए तैयार हो जाएंगे। मौन अभ्यास एक उपजाऊ भूमी तैयार करने के समान है जिस पर आप ध्यान के बीज बो सकते हैं।

यह जान लें कि जो साधक समाधि की अवस्था का अनुभव करना चाहता हो उस के लिए मौन का अभ्यास अत्यंत महत्वपूर्ण है। जब आप अपने आइपॉड पर अपने मनपसंद गीत सुन रहे हों, तब ऐसा प्रतीत होता है कि बाहरी दुनिया का शोर अपने आप ही थम गया है। वह संगीत अन्य किसी भी ध्वनि को आप के लिए लगभग महत्वहीन एवं अनावश्यक बना देता है। इसी प्रकार जब आप आंतरिक शोर का नियंत्रण एवं संचालन करने में समर्थ हो जाएं, तब वह संगीत में परिवर्तित हो जाता है। और जब आप आंतरिक संगीत को सुनना आरंभ कर दें, तब आप के लिए सांसारिक दुनिया की किसी भी वस्तु का महत्व ही नहीं रह जाता।

मौन के अभ्यास में किसी भी प्रकार का लिखित, मौखिक अथवा इशारों द्वारा संवाद नहीं किया जाता। मौन केवल भाषण का ही नियंत्रण नहीं, इस में अपने कार्यों, भाषण और विचारों को भी शांत किया जाता है। एक सगुन उपासक जो ईश्वर को किसी देवी या देवता के रूप में पूजता है, वह मौन के समय अपने इष्ट की स्तुति कर सकता है। उसके लिए मौन का उद्देश्य मात्र मन की शांति नहीं। मौन द्वारा वह अपने इष्ट देवता के प्रति अपनी भक्ति को सुदृढ़ बनाता है।

समय आने पर मैं अनाहत नाडा पर अपने व्यक्तिगत अनुभव का वर्णन करूँगा। यह एक ऐसी ध्वनि है जो दो वस्तुओं के टकराने से उतपन्न नहीं होती। अभ्यास से इस ध्वनि तक कोई भी कभी भी पहुँच सकता है। यह निस्तब्धता और एकांत का एक स्वाभाविक परिणाम है।

इस शृंखला के अगले पोस्ट में, मैं मानसिक परिवर्तन के एक मुख्य अभ्यास एकांत पर लिखूँगा।
मौन के महत्व को समझने के लिए आप बातचीत पर लेख (वार्तालाप - एक अनियंत्रित मन की प्रवृति) फिर से पढ़ सकते हैं।

शांति।
स्वामी



 

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