मन, विचार और इच्छाएं

सागर की लहरों के समान, विचार मन में निरंतर आते रहते हैं; एक विचार जैसे ही चला जाए, कोई दूसरा तुरंत मन में आ जाता है।
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प्रश्न - हरि ओम जी, इच्छा के वास्तविक अर्थ को स्पष्ट करने के लिए मैं आप का आभारी हूँ। यह एक भँवर के समान है, हम सब इस में फंसे हुए हैं बिना यह जाने कि यह कितनी गहराई से उत्पन्न होती है। स्वामी जी, क्या आप बौद्धिक इच्छाओं के विषय पर विवरण कर सकते हैं। आप ने कहा है “प्राय: बौद्धिक इच्छाओं की पूर्ती से समाज को कुछ मूल्यवान उपलब्धि होती है। एक धर्मार्थ संगठन स्थापित करना, किसी भौतिक या आध्यात्मिक वस्तु अथवा ज्ञान की खोज करना, सामाजिक या धार्मिक कल्याण का कार्य करना, ये सभी बौद्धिक इच्छाओं के उदाहरण हैं।” अपने व्यक्तिगत लाभ के विषय में ना सोचते हुए समाज का कुछ भला करना अथवा ज़रूरतमंद की मदद करना इसे हम कैसे बौद्धिक इच्छा कह सकते हैं? हाँ जो व्यक्ति नाम कमाने के लिए यह कार्य करते हैं वे निश्चित रूप से अहंकारी बन सकते हैं। परंतु जो केवल सच्चे दिल से सेवा कर रहे हैं, मन से नहीं, क्या उन लोगों के लिए यह कहना उचित होगा? उनका मन ही उन्हें यह करने के विचार दे रहा है, उन्हें उत्साहित कर रहा है, परंतु उनके कार्य तो सम्पूर्ण भाव से किए जाते हैं, तो फिर वे बौद्धिक इच्छाओं से कैसे जुड़े होंगे। कृपया मुझे यह समझाएं।  “इच्छाओं को पहले समझें, फिर उन्हें धीरे धीरे शांत करें, फिर उन पर विजय पाएं और अंत में उन्हें पूरी तरह त्याग दें”। आप ने कहा है कि ध्यान योग द्वारा हम मन को, और फिर इच्छाओं को शांत कर सकते हैं। परंतु यदि हमारा मन और हमारे विचार हमे हर समय पराजित करते रहें तो ऐसे में क्या किया जाए? उस समय व्यक्ति बहुत निराश हो जाता है क्योंकि उसे यह अहसास हो जाता है कि वह एक सोचने के यंत्र के समान है। बहुत प्रयास करने पर भी जब वह मन को शांत नहीं कर पाता तो वह अत्यंत हताश हो जाता है। हम कैसे मन पर विजय पाएं? धन्यवाद।

उत्तर - यहाँ संकल्प और इच्छा में अंतर समझना आवश्यक है। संकल्प एक ऐसा विचार है जो आप के कर्मों को दिशा प्रदान करता है। किंतु यदि आप उन कर्मों के परिणाम से, उनके फल से बंध जाते हैं, तब वह संकल्प नहीं रह जाता - वह एक इच्छा बन जाती है। बिना किसी अपवाद के मेरे सभी लेख आध्यात्मिक बोध की ओर केंद्रित हैं। ध्यान योग के दृष्टिकोण से, हर प्रकार की इच्छा साधक को बांधती है। क्या वह इच्छा अच्छी है या बुरी यह तो केवल एक वर्गीकरण है। दिल लगा कर कोई कार्य करना संभव ही नहीं जब तक पहले उस कार्य का विचार मन में उत्पन्न ना हो। यहाँ तक कि एक आवेग भी एक विचार ही है, यद्यपि एक अत्यंत तीव्र गति का विचार। यहाँ याद रखें मन का अर्थ बुद्धि नहीं।

आरंभ में विचार आप पर हावी होंगे, किंतु अभ्यास के साथ साथ, आप अपने मन और विचारों को पूरी तरह से नियंत्रित कर पाएंगे। मैं दोहराना चाहूँगा कि यह आसान नहीं है। धैर्य और दृढ़ता द्वारा आप अमूल्य फल प्राप्त कर सकते हैं। यदि आप दृढ़ता से अभ्यास करते रहें तो फल अवश्य मिलेगा। जब जब आप का मन भटकने लगे बहुत धीरे से आप उसे वापस उस वस्तु की ओर लेकर आएं जिस पर आप ध्यान कर रहे हों। कुछ समय बाद, संभवतः बहुत समय बाद, मन का भटकना बंद हो जाएगा। परंतु इस का कोई सरल उपाय नहीं है। मन की शांति प्राप्त करना कोई साधारण उपलब्धि नहीं, और निश्चित रूप से इसे हासिल करने के लिए एक असाधारण प्रयास की आवश्यकता है,  कम से कम शुरूआत में।

प्रश्न -  नमस्ते स्वामीजी, मुझे आप का ब्लॉग पढ़ने में बहुत खुशी मिलती है। विभिन्न विषयों पर जानकारी देने के लिए धन्यवाद। मेरे दो प्रश्न हैं। आत्म ज्ञान और अपने वास्तविक स्वरूप को जानने में क्या अंतर है? जब हम “अहं ब्रह्मास्मि” कहते हैं तो क्या इसका यह अर्थ है कि आत्म ज्ञान और ब्रह्मा ज्ञान एक ही है? हम आपका मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए उत्सुक हैं। प्रणाम।

उत्तर - आत्म ज्ञान और अपने वास्तविक स्वरूप को जानना वास्तव में एक ही है। जब आप को यह पता चल जाए (ज्ञान) कि आप कौन हैं (आत्म) वही है आत्म ज्ञान। ब्रह्म ज्ञान और आत्म ज्ञान में कोई अंतर नहीं। यह याद रखें कि यह केवल एक बौद्धिक ज्ञान नहीं। यह तो बुद्धि की समझ से बाहर है। इसे समझने के लिए आप को स्वयं को इस लायक बनाना होगा।

हरे कृष्ण।
स्वामी



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