आत्म समर्पण क्या है?

आप आत्म समर्पण कर सकते हैं एक बिल्ली के बच्चे की तरह या एक बन्दर की तरह। इनमें से आप कौन हैं?
ईश्वरीय सत्ता और अस्तित्व में विश्वास करनेवाले अधिकतर धर्म अपने भक्तों को ईश्वरीय इच्छा के आगे सम्पूर्ण समर्पण की भावना को गहन महत्व देते हैं। कुछ मार्ग तो गुरु, आध्यात्मिक गुरु के आगे सम्पूर्ण समर्पण को आवश्यक मानते हैं। अतः वास्तव में समपर्ण का मायने क्या है और समर्पण करना कितना आवश्यक है?

एक समय की बात है, एक छोटे से गाँव में, एक वृद्ध किसान अपने एकलौते पुत्र के साथ रहता था। उनके स्वामित्व में एक छोटा सा खेत का टुकड़ा, एक गाय, और एक घोड़ा था। एक दिन उसका घोड़ा कहीं भाग गया। उन लोगों ने घोड़े को ढूँढने की बहुत कोशिश की पर घोड़ा नहीं मिला। किसान का पुत्र बहुत दुखी हो गया। वृद्ध किसान के पड़ोसी भी मिलने आये।
गांववालों ने किसान को सांत्वना देने के लिए कहा, "ईश्वर आपके प्रति बहुत कठोर है, यह आपके साथ बहुत बुरा हुआ।"

किसान ने शांत भाव से उत्तर दिया, "यह निश्चित रूप से ईश्वरीय कृपा है।"

दो दिनों बाद घोड़ा वापस आ गया, लेकिन अकेला नहीं। चार अच्छे शक्तिशाली जंगली घोड़े भी उसके पीछे-पीछे आये। इस तरह से उस वृद्ध किसान के पास पांच घोड़े हो गए।

लोगों ने कहा, "बहुत खूब। तुम तो बहुत भाग्यशाली हो।"
बहुत ही सम भाव से कृतज्ञ होते हुए वृद्ध किसान ने कहा, "निश्चित रूप से यह भी ईश्वरीय कृपा है।"
उसका पुत्र बहुत उत्साहित हुआ। दूसरे ही दिन उसने एक जंगली घोड़े को जाँचने के लिए उसकी सवारी की, किन्तु घोड़े से वो गिर गया और उसका पैर टूट गया।

पड़ोसियों ने अपनी बुद्धिमता दिखाते हुए कहा, "ये घोड़े अच्छे नहीं हैं। वो आपके लिए दुर्भाग्य लाये हैं, आखिरकार आपके पुत्र का पाँव टूट गया।"
किसान ने उत्तर दिया, "यह भी उनकी कृपा है।"

कुछ दिनों बाद, राजा के अधिकारीगण गाँव में आवश्यक सैन्य सेवा हेतु युवकों को भर्ती करने के लिए आये। वे गाँव के सारे नवयुवकों को ले गए लेकिन टूटे पैर के कारण किसान के पुत्र को छोड़ दिया।

कुढ़न और स्नेह से गांववालों ने किसान को बधाई दी कि उसका पुत्र जाने से बच गया।
किसान ने कहा, "निश्चित रूप से यह भी उनकी ही कृपा है।"

शरणागत के विषय में आपको जो भी जानने की आवश्यकता है वह सब उपरोक्त कहानी में रुचिपूर्ण ढंग से उपलब्ध है। समर्पण का अर्थ ये नहीं कि आप अपने ईश्वर को अलंकृत शब्द अर्पण करें और हर प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर कोसें। अंततः आपके कर्म ये दर्शाते हैं कि आप किस हद तक समर्पित हैं।

अच्छा-बुरा, ऊपर-नीचे चाहे जो भी हो आप सारी परिस्थितियों को सम भाव होकर "ईश्वर की कृपा" मानकर स्वीकार करते हैं तो वही "समर्पण" है। केवल मंदिर और चर्च जाकर यह कहना कि आप ईश्वर के प्रति समर्पित हैं कुछ भी मतलब नहीं रखता। समर्पण का ही दूसरा नाम है अडिग विश्वास, इसका अर्थ यह नहीं है कि आप जो “अच्छा” समझते हैं सदैव आपके जीवन में वही होगा। इसका अर्थ है कि चाहे जो भी हो आप बिना किसी शर्त के सदैव ईश्वरीय शक्ति के शरणागत रहेंगे।

समर्पण ईश्वर को धन्यवाद करने का, उनसे प्रेम करने का और स्वयं का उनके प्रति अभिव्यक्ति का
एक तरीका है। किन्तु इसका मायने यह नहीं कि आप अपनी स्थिति सुधारने की दिशा में कोई कार्य ही नहीं करें, इसका मतलब यह है कि जो भी फल मिले उसे ईश्वरीय आशीर्वाद मानकर स्वीकार कीजिये। इस स्वीकारोक्ति में कुछ अनोखा भी है -- यह आपको शक्ति और शांति देती है।

इस सन्दर्भ में मुझे एक सुन्दर सी समानता याद आती है। एक बन्दर का बच्चा अपनी माँ से चिपका रहता है। वह जानता है कि माँ के साथ वो सुरक्षित रहेगा। कहाँ, क्या, कब, कैसे इन सब का निर्णय वह माँ पर छोड़ देता है। यह शरणागति का उदाहरण है। एक बिल्ली का बच्चा भी यही करता है किन्तु बजाय अपनी माँ से चिपकने के, वह स्वयं को छोड़ देता है। माँ उसे उठाकर सुरक्षित जगह पर पहुँचाती है। वही नुकीले दांत जो शिकार करते हैं बच्चे को कोई हानि नहीं पहुँचाते। यह भी एक समर्पण है।

दोनों ही समर्पण के प्रकार हैं पर इनमें एक मूलभूत अंतर है; बन्दर की स्थिति में ज़िम्मेदारी उस बच्चे की है कि वह अपनी माँ से चिपका रहे अन्यथा संभव है कि वह सुरक्षित नहीं रहेगा। जबकि, बिल्ली के मामले में, यह सिर्फ़ माँ की ज़िम्मेदारी है। बिल्ली का बच्चा कुछ नहीं करता है।
अतः आपको बन्दर बनना है या बिल्ली का बच्चा? इसका उत्तर है बुद्धिमान बनिए और अपना तरीका स्वयं ढूँढिये। कुछ को बन्दर के तरीके में अधिक शांति मिलती है जबकि ज्यादातर बिल्ली की तरह समर्पण का भाव रखते हैं। एसा भी हो सकता है कि आपको कभी बन्दर की तरह समर्पण भाव रखना होगा और कभी बिल्ली के बच्चे की तरह।

एक बार एक गाँव में बाढ़ आ गयी और जल स्तर धीरे-धीरे बढ़ने लगा। सारे गाँववाले गाँव छोड़कर चले गए लेकिन एक व्यक्ति, ईश्वर में विश्वास और भक्ति रखनेवाला, अपने झोपड़े के छत पर चला गया और निरंतर ईश्वर की प्रार्थना करने लगा।

पड़ोसी गाँव से नाव लेकर आता हुआ एक व्यक्ति इस भक्त को झोपड़ी के छत पर बैठा देख, अपना मार्ग बदलकर इस व्यक्ति को बचाने हेतु आया।

"चिंता मत करो भाई," उसने उत्साहपूर्वक कहा, "मेरी नाव में आ जाओ।"
"धन्यवाद लेकिन मुझे तुम्हारे साथ जाने की कोई आवश्यकता नहीं है," बाढ़ में फँसे व्यक्ति ने उत्तर दिया, "मुझे बचाने मेरे ईश्वर आयेंगे।"

यह कहानी मूर्खता की पराकाष्ठा दर्शाती है लेकिन सच्चाई तो यह है कि, मानवीय बुद्धिमता और मूर्खता दोनों की कोई सीमा नहीं है। दूसरों के विश्वास और कार्य को असंगत का ठप्पा लगा देना बहुत आसान है, पर यदि हम स्वयं को देखें, हम सब वहीं हैं और वही करते हैं, शायद अलग तरीके से फिर भी एक जैसे।

आत्म समर्पण के लिए आवश्यक नहीं है कि आप अपनी आँखें बंद कर लीजिये, अपने कान बंद कर लीजिये और कोई प्रश्न मत पूछिये, बल्कि, इसका अर्थ है संसार को उसकी (ईश्वर) दृष्टि से देखिये, अपने अंतरात्मा की आवाज़ पर ध्यान दीजिये, और धैर्यपूर्वक उसके (ईश्वर के) उत्तर को समझने का प्रयास कीजिये। वस्तुतः, सच्चा समर्पण हर जाँच या परीक्षा को सहन करता है।

बहुत सारे लोग मुझे लिखते रहते हैं यह जानने के लिए कि आध्यात्मिक मार्ग में गुरु का होना क्या महत्व रखता है और गुरु के प्रति समर्पण कितना महत्वपूर्ण है। मैं इस विषय पर निकट भविष्य में लिखूंगा। पढ़ते रहिये।

(Image credit: Diganta Talukdar) 
शांति।
स्वामी
 
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