दो प्रकार का क्रोध

जो अग्नि कमरे को उष्मा देती है, वही अग्नि घर को जला भी देती है। दिग्भ्रमित भावनाओं का प्रतिफल क्रोध होता है।
पिछले पोस्ट को आगे बढाने के क्रम में आज मैं क्रोध के दो प्रकार पर विस्तृत प्रकाश डालूँगा। क्रोध एक प्राकृतिक भाव है। कोई भी मनुष्य जिसके मन में प्रेम, करूणा और दया की भावना है वह आक्रोश घृणा और इस तरह की अन्य भावनाओं से भी घिरा हो सकता है। जो भी हो किन्तु अपने विचारों पर डिगे रहना निश्चित रूप से क्रोधित होना नहीं है। अतः आप यह कैसे जानेंगे कि अनुशासित करने की कोई भी भंगिमा क्रोध की उपज नहीं किन्तु आवश्यकता है। क्रोध नकारात्मक ऊर्जा को बढाती है जो आपको तत्क्षण ही कमजोर बना देती है। यहाँ पर सर्वोपरि बात यह है कि क्रोध और अनुशासन में प्राथमिक अंतर यह है कि क्रोध अप्रत्याशित, अकस्मात् और अनियंत्रित होता है।

एक समय की बात है कि एक युवक था। वह अपने क्रोध की ज्वार से थक गया था। यहाँ तक कि उसके इर्द-गिर्द रहनेवाले भी इससे उससे थक गए थे। वह छोटी सी बात पर भी पागलपन की हद तक क्रोध करता और फिर बाद में क्षमा याचना करता। उसकी क्षमा याचना का कोई प्रभाव नहीं होता था क्योंकि उसके क्रिया कलाप उसके शब्दों को पूरा करने में चूक जाते थे। उसने अपने आप को समझा लिया था कि जन्मजात क्रोध उसमें बसा हुआ है जो नियंत्रण से परे है। उसे हैरानी होती थी कि उसके अपने प्रिय लोग यह कैसे नहीं देख पा रहे हैं और वो जैसा है वैसा ही उसे क्यों नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं? वह अपने गुरु के पास गया और उनसे याचना की कि उसपर कुछ प्रकाश डालें।

स्वामीजी ने कहा, "लकड़ी का एक तख्ता लाओ। हर बार तुम्हें जब क्रोध आये, इस तख्ते पर एक कील ठोंक दो। जब यह भर जाए तो वापस आकर मुझे बताओ।"

वह आदमी वापस चला गया और परामर्श का गंभीरता से पालन करने लगा। शीघ्र ही, कुछ सप्ताहों में ही उस तख्ते पर कोई जगह नहीं बचा बची और वह पूरी तरह कीलों से भर गया। तख़्त की इस स्थिति को देखकर वह बहुत लज्जित हुआ। वह गुरूजी के पास वापस गया और बताया कि तख़्त पूरी तरह कीलों से भर गया है।

"अब अपने क्रोध की ज्वाला को नियंत्रित करने का जाग्रत प्रयास करो। जब कभी तुम अपने क्रोध के ज्वार को नियंत्रित करने में सफल हो, तख्ते में से एक कील निकाल लो। जब तख़्त पर एक भी कील नहीं बचे तो उसे यहाँ ले आना।"

वह विजयी हुआ। तख़्त पर से सारे कीलों को निकालने में कई महीने लग गए। उसे क्रोध को नियंत्रित करने की अनुभूति का अच्छा अनुभव हुआ। दुबारा उसे उस तख़्त को कील रहित देखकर उसने चैन की साँस ली और अपने गुरु के पास गया।

गुरूजी ने तख़्त को अपने हाथ में लिया और कहा, "वाह! मैं देख रहा हूँ कि तुमने तख़्त को बिल्कुल साफ़ कर दिया है। किन्तु मैं बहुत प्रेम पूर्वक ऐसी इच्छा करता हूँ कि काश तुम इस तख्ते पर बने हुए छिद्रों को मिटाकर इसे पहले की तरह बना देते।"

"क्रोध में किये गए क्षति को दूर किया जा सकता है तख्ते में लगाए गए और फिर बाहर निकाले गए कील की मानिंद, फिर भी इसे मिटाया नहीं जा सकता। चिन्ह हमेशा के लिए रह जाएगा।"

यह एक बहुत सामान्य सी भ्रांति है कि क्रोध को बाहर निकालकर हम हल्का अनुभव करते हैं। जबकि यह जितना सत्य है उतना ही असत्य, इससे हुयी क्षति अपूरणीय है। अपने क्रोध को रखना एक बड़ी भूल की तरह है। यहाँ आवश्यकता है क्रोध को, भावुकता की स्थिति को प्रेम, करूणा, समानुभूति और अन्य सशक्त एवं श्रेष्ठ भावनाओं में परिवर्तित करने की।

आप अपने क्रोध को कैसे अनुभव करते हैं और व्यक्त करते हैं, यह प्रायः आपकी भावात्मक स्थिति, मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति, आपका पालन-पोषण और अन्य दूसरे कारक जैसे आपके घर और बाहर का वातावरण, तथा धर्म और संस्कृति का अनुबंधन है। मैं आपको क्रोध के दो तुल्यता प्रस्तुत करता हूँ:

1. ज्वालामुखी

कुछ लोग ताप में आने पर ज्वालामुखी की तरह फट पड़ते हैं, जब विपरीत परिस्थितियों का दबाव पड़ता है तो वो गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं। वे अपने क्रोध की अभिव्यक्ति भावनात्मक आवेग, आवेश में करते हुए उन्मत्त हो जाते है। क्षण भर में क्रोधित हो जाते हैं और फिर एक दम से ठंढे हो जाते हैं, शीघ्र ही सामान्य हो जाते हैं। फिर वे अपने किये पर पश्चाताप करते हैं, क्षमा भी मांगते हैं, और दुबारा क्रोध न करने की शपथ भी लेते हैं। किन्तु यह सब अनुपयोगी और निरर्थक सिद्ध होता है। अगली बार जब भी इनका सामना प्रतिरोध या ताना-तानी से होता है, ये बिल्कुल वैसे ही व्यवहार करते हैं जैसा कि पिछली बार किया था।
क्यों? क्योंकि क्रोध का आवेग उनके लिए पलायन का रास्ता है। और! चूँकि यह उनका क्रोध से निपटने का साधन बन गया है, कठिन परिस्थितियों का सामना करने के लिए भी ये अपने क्रोध के आवेग का ही सहारा लेते हैं, जब तक यह सब इनके निज का शरीर सह पाता है। जैसा कि ये वांछनीय परिस्थिति में प्रसन्न हो जाते हैं, अवांछनीय परिस्थिति में क्रोधित होना जारी रखते हैं।

यदि आप किसी भी नकारात्मक प्रतिक्रिया को अपने निपटने के साधन की रूप में स्वीकार करते हैं तो आप तत्क्षण ही अपनी नकारात्मक भावना को सकारात्मक भावना में बदलने की क्षमता खो देते हैं। अधिकतर आवेग उपयुक्त रास्ता नहीं है, यह बिल्कुल लकड़ी के तख्ते पर ठोंके गए उस कील की तरह है जो एक साश्वत चिन्ह छोड़ जाएगा।

क्रोध को जारी रखना आपके क्रोध को कम नहीं करेगा, यह आपको शान्तिपूर्वक रहने नहीं देगा। अब प्रश्न यह है कि क्यों कुछ लोग क्रोध में उत्तेजित हो जाते हैं जबकि वे यह जानते हैं कि यह क्षति ही कर रहा है, जबकि वे ऐसा होने देना कम-से-कम चाहते हैं, उन्हें क्या बाध्य करता है? पढ़ते रहिये।

2.  कुम्भक या काफी को ब्रू करने का यंत्र

एक निश्चित अवधि के बाद भी जब आप काफी को उबालते हैं या ब्रू करते हैं तो क्या होता है? यह वह कड़वा हो जाता है, इतना अधिक कड़वा हो जाता है कि पीने योग्य नहीं रहता। किसी भी तरह से, किसी भी शहद से मीठा नहीं किया जा सकता। इसी तरह जब कोई व्यक्ति नकारात्मक भावनाओं को अपने अन्दर पकड़ कर रखता है वह नकारात्मक भावनाओं की ब्रेविंग होने भावनाएँ अन्दर ही अन्दर उबलने लगती हैं जो उस व्यक्ति को भी कटु बना देती है। जबतक कड़वाहट को पकड़ कर रखते हैं, कटुता भी बढ़ती जाती है।
क्रोध को ब्रू करना या अन्दर दबाये रखना क्रोध के आवेग को तीव्र करता है क्योंकि क्रोध का आवेग लक्षण, कारण या कोई प्रतिफल नहीं है अपितु नकारात्मक भावनाओं को अपने अन्दर लम्बे समय तक संचित रखना है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि भाप से पकाए हुए डम्पलिंग को माइक्रोवेभ में गर्म किया जाए। एक निश्चित तापमान तक तो डम्पलिंग ठीक रहेगा लेकिन उससे अधिक होने पर वह फट जाएगा, चारों ओर बिखर जाएगा, खाने लायक भी नहीं रहेगा, और परोसने लायक भी नहीं रहेगा।

ब्रुवर वास्तव में जानलेवा है, यह धीमा जहर है। ज्वालामुखी से भिन्न इसे ह्रदय में रखा जाता है। बहुत से लोग क्रोध और नकारात्मक भावनाओं को अपने ह्रदय में बसाए रखते हैं, ये इसे जाने नहीं देते। एक अंगीठी के बारे में सोचिये, इसमे जो लकड़ी जलाई जाती है उससे पूरा कमरा गरम हो जाता है, लेकिन यदि लकड़ी को सही तरीके से नहीं जलाया जाए तो यह आसानी से पूरा घर जला सकती है। ठीक इसी तरह से जो लोग अपनी भावात्मक स्थिति को नियंत्रित करना नहीं जानते हैं तब ये भीषण रूप ले सकता है। क्रोध अपर्याप्त तरीके से सम्हाले गए भावनाओं का फल होता है, स्वयं के भावात्मक पीड़ा का सही उपचार नहीं करने का प्रतिफल है, लगभग भ्रमित प्रेम जो कि नकारात्मक भावना का रूप धारण कर लेती है, उसमें निहित उष्मा, वो उष्मा जो नकारात्मकता को पिघला सकती थी अब वास्तव में ब्रू कर रही है।

यदि आप सचमुच गंभीर हैं क्रोध को अपने तंत्र से पूरी तरह निकालने के लिए, आपको स्वयं अपने उपचार पर काम करना होगा, जब तक आप अपने स्वयं का अभयारण्य, अपनी आतंरिक शान्ति और मौन का, नहीं ढूंढ लेते तब तक क्रोध आ सकता है और अनभिग्यता की स्थिति में आपको जकड़ ले सकता है, शीघ्र ही आपको असंतुलित कर देगा; किसी भी समय, जब आपको उकसाया जाएगा या प्रतिरोध होगा।

अगले एक-दो पोस्ट में, मैं तीन तरह के क्रोधी व्यक्तियों के बारे में लिखूंगा, उसके बाद क्रोध पर विजय पाने की विधि।
(Image credit: Chris Rogers)
शांति।
स्वामी
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