मन - कर्म का प्रभाव एवं मानसिक छाप

आत्म परिवर्तन क्यों?
कर्म का प्रभाव एवं मानसिक छाप

क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ।   (पतंजलि योग सूत्र, 2.12)
हमारी मानसिक स्थिति पर हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों का प्रभाव पड़ता है। हमारे कर्म कईं जन्मों से संचित होकर हमारे दुःख का कारण बनते हैं।

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एक वर्णक्रमीय रंग के कताई पहिये की कल्पना करें। क्योंकि वह घूम रहा है इसलिए हमें यह भ्रम हो जाता है कि उसका रंग श्वेत है। परन्तु सत्य तो यह है कि उस पहिये पर कोई श्वेत रंग है ही नहीं। वह अत्यन्त तीव्र गति से घूम रहा है, इस कारण सब वर्णक्रमीय रंगों का संयोजन हो जाता है और हमें वह श्वेत प्रतीत होता है। इसी तरह हमारा मन भी एक चरखे के समान घूमता रहता है। यह हमारे मन में दुनिया की वास्तविकता का भ्रम पैदा करता है। हमें लगता है कि यह दुनिया स्थाई है, परन्तु यह सच नहीं है।

अपने सच्चे एवं स्वरूप को समझने के लिए, आप अपने मन को कुछ शांति प्रदान करें। उस शांति को प्राप्त करने के लिए तथा अपने मन की प्रकृति का ज्ञात करने के लिए, हर तरह के उपद्रव को समाप्त करना होगा। इस के बाद ही आप इसे महसूस कर सकेंगे। यदि आप अपने कर्म में अनुशासन का पालन करेंगे तो आप मानसिक स्थिरता को प्राप्त कर पाएंगे। हमारी भाषा, क्रिया एवं शब्द हमारे मन पर एक गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। इस लेख का उद्देश्य है आपको अपने कर्मों के अवशिष्ट से अवगत कराना। यह अवशेष हमारी मानसिक स्थिति का ज्ञात कराते हैं।
अधिकतर योगिक ग्रन्थ यह कहते हैं कि उनका अनुसरण करने वाला सख्त कार्मिक एवं नैतिक अनुशासन का पालन करे। यदि आप मुझसे पूछें तो यह अत्यावश्यक है। अब हम कर्म एवं उसके अवशेषों पर विचार करेंगे -

कर्म तीन प्रकार के होते हैं - शारीरिक, मौखिक तथा मानसिक। हमारा हर कर्म एक छाप छोड़ जाता है। शारीरिक कर्म भौतिक अवशेष छोड़ जाते हैं, तथा मौखिक एवं मानसिक कर्म मन पर छाप छोड़ जाते हैं। यदि हम अपने कर्म के निशान का विश्लेषण करें तो हमें ज्ञात होगा कि यह घट अवश्य सकता है परन्तु कभी नष्ट नहीं हो सकता। मैं इस सत्य को एक उदाहरण के द्वारा विस्तृत करूँगा -

1. शारीरिक कर्म - मूर्त अवशेष
सभी शारीरिक कर्म जिनमें स्पर्श की आवश्यकता होती है उन्हें हम भौतिक कर्म कहते हैं। शारीरिक कर्म अपने पीछे भौतिक अवशेष छोड़ जाते हैं। समझ लीजिए कि आपके पास एक सेब है। उसके स्वाद का आनंद लेने के लिए आप उसे छील के खाते हैं। जो भाग बच जाते हैं उन्हें हम त्याग देते हैं। और वही बचा हुआ भाग किसी गाय का भोजन बन जाता है। इसी प्रकार हमारे कर्मों के अवशेष किसी अज्ञात जीव की मदद कर देते हैं। जिस सेब का हमने सेवन किया वह हमारे शरीर में रहता है। यह हमारे पाचन तंत्र द्वारा संसाधित किया जाता है। इस प्रकार दो तरह के अवशेषों का निर्माण होता है। एक जो हमारे शरीर में हमारे नसों में दौड़ता है और उसका अनवशोषित भाग मूत्र तथा मल द्वारा बाहर निकल जाता है। और फिर कईं तरह के बैक्टीरिया इसका सेवन करते हैं। सेब खाने की हमारी भौतिक कार्यवाही कईं जीव जंतुओं पर अपनी छाप छोड़ती है। उस सेब का अवशेष जो हमारे लहू में बस गया है, हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। जो अवशेष गाय के शरीर में रहते हैं, वह उसके स्वास्थ्य तथा उसके दूध की गुणवत्ता पर प्रभाव डालते हैं। आपके शरीर से निकले हुए अवशेष कईं जीव जंतुओं पर प्रभाव डालते हैं। देखने में यह इतना विचित्र एवं बड़ा नहीं लगेगा परन्तु यदि हम सोचें कि छः अरब मनुष्यों के अवशेष प्रकृति के जीव जंतुओं को प्रभावित करते हैं तो यह प्रक्रिया अत्यंत बड़ी लगती है। हमारे शारीरिक कर्मों का प्रभाव हम पर तथा हमारे आस पास के लोगों पर पड़ता है। यह पूरे संसार को प्रभावित करता है। आत्म परिवर्तन के मार्ग पर,आत्मसंयम रखना अत्याधिक महत्वपूर्ण होता है। इस की वास्तविक प्रथाओं को उचित धाराओं के तहत पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।

2.मौखिक कर्म - मानसिक अवशेष
आप जो कुछ भी बोलना चाहें वह एक अनुदेश हो, कोई व्याख्यान हो, अथवा कोई प्रश्न हो, वह मौखिक कर्म के अंतर्गत ही आता है। सारे मौखिक कर्म अपने पीछे मानसिक अवशेष छोड़ जाते हैं। हमारे द्वारा बोले गए शब्द हमें तथा हमारे आस पास के लोगों को प्रभावित करते हैं। शारीरिक अवशेषों को मिटाना सरल होता है, परन्तु मानसिक अवशेष मिटने में समय लग जाता है। हम सेब के उदाहरण पर लौट कर जाते हैं। समझ लीजिए कि आपने एक सेब खाया हो जो आपको अत्यधिक स्वादिष्ट लगा। सेब खाते समय आपके साथ और लोग भी थे और उसी समय आपने सेब के स्वाद के विषय पर कुछ कह दिया। कुछ समय बाद आपको सेब का स्वाद याद रहे न रहे परन्तु आपको अपने द्वारा बोली गयी बातें अवश्य याद रहेंगी। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि यदि आपने उस सेब को खाते समय कुछ नहीं बोला होता तो आपको संभवतः उस सेब का स्वाद याद भी नहीं होता क्योंकि उस समय आपके मन में उस सेब की छाप नहीं छूटी होती। आत्म परिवर्तन के मार्ग पर, दृढ़ मौखिक अनुशासन की आवश्यकता होती है। मैं प्रासंगिक वर्गों में इस पर अधिक स्पष्टीकरण दूंगा।

3. मानसिक कर्म - हमारे मन पर उनका प्रभाव
तीनों कर्मों में सबसे सूक्ष्म एवं शक्तिशाली मानसिक कर्म होता है। यह हमारे पीछे एक स्थाई निशान छोड़ देता है जिसकी छाप मिटाना अत्यंत कठिन हो जाता है। किसी भी प्रकार के कर्म का मूल एक विचार ही होता है। किसी विचार का पीछा करना ही एक मानसिक कर्म होता है। यह आपकी मानसिक स्थिति पर तत्काल प्रभाव तथा आपकी चेतना पर चिरस्थाई प्रभाव डालता है चाहे आपका मन कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो। एक बार फिर हम उस सेब के उदाहरण पर लौट कर जाते हैं। मान लीजिए कि इस बार आपके पास सेब नहीं हैं, परन्तु केवल सेब का विचार आपके मन में आता है। आप उस विचार को छोड़ते नहीं हैं बल्कि उसका पीछा करते हैं। वह विचार संभवतः आपको दुकान से सेब खरीदने के लिए प्रेरित करे। ध्यान दीजिए कि सेब के विचार से अब हम दुकान के विचार पर आ चुके हैं जिस से हमने पहले सेब खरीदा था। उस दुकानदार का चेहरा तथा उससे किया गया वार्तालाप सब हमारे मन में आ जाता है। हमें याद आता है कि हमने उसे पैसे दिए थे। हमें दूसरे ग्राहक का भी ध्यान आता है, जो केले खरीद रही थी हमें याद आता है कि वह किस प्रकार केले चुन रही थी। हमें दुकानदार से किया गया उसका वार्तालाप याद आता है। आप उस दुकानदार के विचार पर वापिस आ जाते हैं जब वह आपको सेब का थैला प्रदान करता है। फिर आप उस थैले को लेकर चलना शुरू करते हैं और उसी समय आपके मन में विभिन्न प्रकार के विचार आते हैं, जैसे कि बाज़ार का हाल क्या होगा या फिर कोई अनहोनी जो आपके साथ घटी थी या और कुछ। यह प्रक्रिया इसी प्रकार चलती रहती है।

यदि आपने उस सेब के विचार को पहले ही दरकिनार कर दिया होता तो आप इस मानसिक कर्म के चक्कर में फंसते ही नहीं। यह सब हमारे मन की उपज होती है। यदि आपने यह ठान लिया होता कि आप अपनी ध्यान की वस्तु को छोड़ के और किसी वस्तु पर ध्यान नहीं लगायेंगे तो आपको इसका अच्छा फल मिलता। क्या आपको पता है कि एक सामान्य इंसान के मन में चौबीस घंटों में साठ हज़ार विचार आते हैं। इसी कारण हमें सोना अत्यंत पसंद है, क्योंकि हमें थोड़ी सी छुट्टी मिलती है। यदि आप एकाग्र रहेंगे तो आपके मानसिक कर्म अनुशासित रहेंगे तथा ध्यान लगाने में भी सहयोग मिलेगा।

हमारा ध्यान सही रखने में हमारी स्मृति बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जब आप अपनी स्मृति में केवल अपने ध्यान की वस्तु को रखने में सक्षम होते हैं तो समझ लीजिए कि अब आप शांतिपूर्वक ध्यान लगा सकते हैं। हमारी स्मृति सही तरह से ध्यान लगाने में बाधा भी उत्पन्न करती है। इसका कारण यह है कि हमारी स्मृति पर हमारी मानसिक कर्मों का प्रभाव होता है।

अनुभूतविषयासंप्रमोषः स्मृतिः. (पतंजलि योग सूत्र, 1.11)
स्मृति चेतना का एक समारोह एवं शब्दों और अनुभवों के अनछुए संग्रह होती है।

हम अपने मन को खाली नहीं कर सकते हैं। हालांकि यह संभव है कि हम उस विचार को उसकी उपज होते ही त्याग दें। जब हम अपने मन को शांतिपूर्वक रखते हैं तो मानसिक छाप हटने लगती है।

आप अपने मन में जिस प्रकार के विचार भरेंगे आप को उस ही प्रकार के परिणाम मिलेंगे। तो यदि आप बुरा सोचेंगे अथवा बुरा बोलेंगे तो उसका अवशेष आपको भी बुरा बना देगा। वहीं यदि आप सद्विचार रखेंगे तो उसका फल भी अच्छा मिलेगा। आपका मन एक गोदाम की तरह है। इसे व्यर्थ वस्तुओं से न भरें।

परम योगी श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं -

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता.
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ।। (6.19 भगवद गीता )


अर्थात एक विजयी योगी का मन उस पवनरहित स्थान में पड़े दिए की तरह होता है जो कभी विचलित नहीं होता।

पवन की अनुपस्थिति में जिस प्रकार लौ स्थिर रहती है, उसी प्रकार इच्छाओं के वायु के अभाव में हमारा मन भी विचलित नहीं होता है। और हमारी इच्छाएँ केवल हमारे विचार ही होते हैं जिनका त्याग करने में हम सक्षम नहीं हो पाते। यदि हम अपना मन ईश्वर की और लगा दें तो हमें अवांछित विचारों से छुटकारा मिल जाएगा। यदि हमारा मन स्थिर रहेगा तो उसमें विचारों की उथल पुथल होगी ही नहीं। मन को केवल प्रेम से ही भरना चाहिए।

जिस तरह हमारा शरीर अत्यधिक कार्य करने के कारण थक जाता है, उसी प्रकार अनवरत बोलने से,हमारा मन भी थकावट का शिकार हो जाता है। यदि हम आत्म परिवर्तन के योग को सम्पूर्ण रूप से अपना लें, तो हम प्रसन्नता एवं शांति के अथाह सागर में गोते लगाएँगे। एक स्वस्थ शरीर, नियंत्रित भाषण और शांत मन सही ढंग से आत्म परिवर्तन के पथ पर चलने के परिणाम हैं।

शांति।
स्वामी






 
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