आप प्रसन्न हैं अथवा अप्रसन्न हैं?

प्रसन्नता मन की एक अवस्था है। जितना अधिक आप अपने आप से सुखी एवं सहमत हैं, आप उतने अधिक प्रसन्न रहेंगे।
मानव जीवन एक लोलक के समान होता है। यह सकारात्मक-नकारात्मक, अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित, सही-गलत, उतार-चढ़ाव आदि अन्य द्वंद्वों के बीच दोलन करता रहता है। परंतु यह सब ही व्यक्तिपरक हैं। यदि आप उन्हें अनुमति ना दें वे आप को प्रभावित नहीं कर सकते हैं। इस विषय पर मैं आप को एक छोटी सी कहानी सुनाता हूँ -

एक समय की बात है एक भिक्षु हुआ करता था। उसने कईं वर्षों के लिए ध्यान, चिंतन और तपस किया परंतु फिर भी आत्मज्ञान प्राप्त करने में सफल ना हुआ। वह अपने चारों ओर रहने वाले व्यक्तियों से परेशान था विशेषकर तब जब लोग उसकी साधुता को स्वीकार ना करते अथवा जब वे उससे असहमत होते। जब वे उससे बुरा व्यवहार करते तो वह दुखी हो जाता, और जब वे उसका सम्मान करते तो वह प्रसन्न हो जाता। वह इस प्रकार के सांसारिक व्यवहार से ऊपर उठना चाहता था, उन से अप्रभावित तथा उन के प्रति उदासीन बन जाना चाहता था, परंतु यह करने में वह सफल ना हो सका।

एक दिन वह अपने गुरु के पास पहुँचा और उसने उन से अपनी आंतरिक अशांति और बेचैनी व्यक्त करी। उस की बात सुनने पर गुरु ने उसे एक कमरे की कुंजी दी और दिशा-निर्देश दिया।

“वहाँ जाओ और अपने स्थान से बिना हिले तीन दिनों के लिए ध्यान करो। कमरे का द्वार खुला छोड़ दो और चुप्पी बनाए रखो। फिर तुम्हें वास्तविक सत्य एवं परम ज्ञान का आभास हो जाएगा”, गुरु ने कहा।

अपने गुरु के आदेश अनुसार वह ध्यान करने चल पड़ा। वहाँ पहुँच कर वह चकित हो गया जब उस ने यह देखा कि कमरा एक भीड़ भरे शहर के बीच एक व्यस्त बाज़ार में था। वह संशयी हो गया कि आंतरिक शांति प्राप्त करने के लिए भला ऐसा कोलाहलमय स्थान कैसे उचित हो सकता है। फिर भी गुरु के आदेश अनुसार वह आगे बढ़ा। कमरे का द्वार खोलने पर उसे एक वमनकारी दुर्गन्ध आई। शीघ्र ही उसे ज्ञात हुआ कि कमरे के ऊपर एक शौचालय था। एक क्षण के लिए उसे अपने गुरु पर क्रोध आया। विचार करने पर उसे अहसास हुआ कि गुरु ने अवश्य किसी कारणवश ही उसे वहाँ भेजा होगा।

कमरे में कोई खिड़कियाँ नहीं थीं। वह एक धूलयुक्त परित्यक्त दुकान के समान था। वहाँ दीवारों पर टपका था और फर्श गीला था। छत पर मल की नली से रिसाव हो रहा था। भिक्षु पद्मासन में बैठ गया और ध्यान करने लगा। समय समय पर उसे शौचालय के फ्लश की आवाज़ सुनाई देती। जब उसे इस बात का अहसास हुआ कि वह एक सार्वजनिक शौचालय के ठीक नीचे ध्यान कर रहा था, उस की व्याकुलता और अधिक बढ़ गई।

उस के मन में चिंता की आंधी चलने लगी। वह यह सोच कर चिंतित होने लगा कि कहीं उसके ऊपर से जाने वाली मल की नली टूट ना जाए, कमरे के बाहर चलने वाले व्यक्ति उस के विषय में क्या बात करते होंगे, उसे कैसे ज्ञात होगा कि बहत्तर घंटे बीत गए, दुर्गन्ध से वह मूर्च्छित हो जाए तो क्या होगा, यदि किसी ने उसे टोका और ध्यान को बाधित किया तो क्या होगा - ऐसे कईं प्रश्न उस के मन में उठ रहे थे।

तीसरे दिन जब वह इस प्रकार के विचारों में तल्लीन था, उसके ऊपर से जाने वाली नली टूट गई और मल उस के सर पर गिर गया। इस से पहले कि वह यह निर्धारित करता कि आगे क्या करना है, दो व्यक्ति वहाँ से गुज़रे।

मलमूत्र में लिप्त भिक्षु को देख कर एक व्यक्ति ने घृणा में पूछा - “यह आदमी कौन है?”
“भगवान ही जानें! कईं लोग का यह मानना है कि वह एक महान संन्यासी है और कईं लोग यह समझते हैं कि वह उन्मत्त है।”

यह सुनते ही भिक्षु को सत्य का आभास हुआ। उसे यह ज्ञात हुआ कि समस्त संसार की उसके विषय में केवल इन्हीं दोनों में से एक राय हो सकती है तथा हर किसी की कोई ना कोई राय होनी तो निश्चित ही है। संक्षेप में कहा जाए तो यदि आप इन विचारों को अनदेखा कर दें तो उन का कोई महत्व नहीं होता । यदि आप उन्हें स्वीकार नहीं करते हैं तो दूसरों के विचार आप को प्रभावित अथवा चिंतित नहीं कर सकते हैं। यदि आप की कोई प्रतिक्रिया ना हो तो उन विचारों की वृद्धि नहीं हो सकती। इस प्रकार की राय शाश्वत नहीं होती यदि आप उसके प्रति प्रतिक्रिया ना करें। यदि आप उन पर चिंतन ना करें तो वास्तव में इन विचारों का ना कोई आंतरिक अर्थ होता है और ना ही उन में कोई परिवर्तन आता है।

जो भी व्यक्ति आप को जानता है उस के मन में आप के विषय में कोई ना कोई राय एवं विचार होंगे। हो सकता है कि उन को आप के विषय में अधिक समझ भी ना हो परंतु फिर भी संभवत: आप के विषय में उनकी दृढ़ राय हो सकती है। जो आप से मिलते हैं वे अपने अनुभव के आधार पर अपनी राय स्थापित करते हैं। और जो आप से कभी नहीं मिले उन के विचार दूसरों की राय के आधार पर होते हैं। भौतिक संसार का यही स्वरूप है। सबसे बड़े लोकतंत्र, धर्म और संप्रदाय इसी सिद्धांत पर विकसित हुए हैं। हर व्यक्ति का यह अधिकार है कि उस के अपने स्वतंत्र विचार हों उसकी अपनी राय हो। और यह आप का अधिकार है कि आप उस राय को स्वीकार, अस्वीकार अथवा अनदेखा करते हैं। आप की प्रसन्नता आप के इस चयन पर निर्भर है।

जब आप अपने भीतर की आवाज़ सुनने लगते हैं, तो लोगों के विचारों का प्रभाव कम हो जाता है। यदि आप इस विषय पर चिंता करना बंद कर दें कि दूसरों की आप के विषय में क्या राय है तो समझें आप शांति की एक कंबल ओढ़ लेते हैं जो ढाल के रूप में आप की सुरक्षा करने लगती है। और जो सदा शांति का अनुभव करता है वह सदैव सुखी एवं प्रसन्न रहता है। वास्तव में प्रसन्नता आप के शारीरिक अथवा मानसिक कार्यों का ही परिणाम है।

इस विषय पर चिंतन करें कि कब, कहाँ और किस स्थिति में किसी वस्तु अथवा भावना को पकड़े रखना चाहिए तथा किस स्थिति में उस को त्याग देना चाहिए। इस प्रकार का ज्ञान अभ्यास एवं जागरूकता द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। यह आप के दृष्टिकोण और मनोभाव पर निर्भर है। यह अपने भीतर की ओर जाने की यात्रा है।

शांति।
स्वामी
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