अपेक्षाएँ क्या हैं, और क्यों प्राय: हर मानवीय दु:ख का वे ही मूल हैं? - एक दृष्टिकोण |
अपेक्षाएँ वे इच्छाएँ हैं जिनकी पूर्ति आपको अपना अधिकार प्रतीत होती है। विभिन्न घटकों द्वारा बने आपके अंत:करण के संस्कार, आप में अपेक्षाएँ जगाते हैं। अपेक्षाएँ हर कष्ट, हर तनाव, का मूल कारण हैं। कामनाएँ चिरकाल से आपके साथ बँधे वे विचार हैं, जिन्हें आप छोड़ नहीं पाते, और वे विचार जो लगातार आपके अंत:करण में विद्यमान हैं व आप उनका अनुसरण करते हैं, यही आपके जीवन निर्माण के शिला खंड हैं। आसक्ति के गाढ़े घोल से निर्मित, आप अपने चारों ओर इच्छाओं-कामनाओं की दीवारें खड़ी किए जा रहे हैं और, अंतत:, अपने को इनमें ऐसे क़ैद पाते हैं कि बाहर आने का कोई मार्ग ही नहीं सूझता। यह एक गंभीर विषय है और इस पर मैं फिर कभी लिखूंगा। अभी मैं आज के विषय पर केंद्रित रहूँगा। अपेक्षाएँ आपके जीवन का विनाश कर देती हैं, वहीं इच्छाएँ जीवन को पोषित करती हैं, व विचार जीवन को बनाते हैं। ये सभी मन की उपज हैं, सामान्यत:, एक अस्थिर एवं अज्ञानी मन की। मेरे मतानुसार, अपेक्षाएँ निम्न तीन प्रकार की होती हैं -
स्वयं से अपेक्षाएँ
आपकी शिक्षा, संस्कार, पालन-पोषण, सामाजिक वातावरण व आपका व्यावसायिक जीवन - इन सबका आपको बनाने में महत्वपूर्ण योगदान रहता है। इन सबके आधार पर आप अपने से अपेक्षा रखते हैं कि अन्य लोगों के समक्ष आपको एक विशेष रूप में प्रस्तुत होना है। जो सूचनाएँ व जानकारी, कई रूपों में, आप तक पहुँचती रहती हैं, उसके अनुरूप आपने अपने लिए कुछ मापदंड व मानक तय कर लिए हैं। सामान्यतः, ये जानकारियाँ आपके धर्म, आपकी संगति एवं अन्य सामाजिक व निजी घटकों पर निर्भर होती हैं। यदि आपकी अपने आप से की गई अपेक्षाएँ पूर्ण नहीं होती हैं, तो वे आप में संकोच व कुंठा को जन्म देती हैं। आप बुझा बुझा व उत्पीड़ित सा महसूस करते हैं। एक अविश्वास व अस्वीकृति की भावना से ग्रस्त, आप अपने को अभागा, अत्यंत दुखी व हारा हुआ मानने लग जाते हैं। आपका वास्तविक 'स्व' (स्वरूप) इन सब अपेक्षाओं के बोझ तले दबा रहता है - वे अपेक्षाएँ, जो अधिकांशत: व्यर्थ के प्रदूषित कचरे का ढेर मात्र हैं, उससे अधिक कुछ नहीं। कृपया उन्हें छानें व केवल वही अपेक्षाएँ रखें जो आपकी चेतना को सशक्त व आप को और अधिक संवेदनशील बनाती हों। विचार करें कि आप स्वयं किस प्रकार का इंसान बन कर जीना चाहते हैं, अपितु इसके कि अन्य आपको किस रूप में देखना चाहते हैं। संभवतः आपको अंतर्दृष्टि प्राप्त हो सके।
अन्य लोगों से अपेक्षाएँ
ये वे अपेक्षाएँ हैं जिन्हें आप अपने अधिकार क्षेत्र में मानते हैं और यह ग़लत धारणा बना लेते हैं कि आप इनके लिए योग्य पात्र हैं। ये कुछ भी हो सकती हैं जैसे - पारस्परिक प्रतिदान, प्रेम, वस्तुएँ, शब्द, भाव प्रदर्शन, इत्यादि। आपने जो कुछ भी देखा समझा है, जो कुछ भी आपको बताया या पढ़ाया गया है; और वह सब जो आपके अनुसार आपने जीवन में किया है - इन सब पर आधारित आप अपने लिए एक निश्चित फल की उम्मीद करते हैं, और चाहते हैं कि वह फल आपके अनुकूल ही हो। चूँकि आप मानते हैं कि जो कामना आप कर रहे हैं वह तर्क-संगत, उचित व स्वाभाविक है, इसलिए आपने अपेक्षाओं का बोझ बढ़ा लिया है। ऐसा करके कभी कभी आप अपने साथ उस व्यक्ति पर भी दबाव बना देते हैं जिससे आपने अपेक्षाएँ रखी हुई हैं। जब ये अपेक्षाएँ पूर्ण नहीं हो पाती तो ये उसी अनुपात में आपके दु:ख व असंतोष का कारण बन जाती हैं जिस दृढ़ता से आपने इन्हें पकड़ रखा होता है। कृपया उन व्यक्तियों की एक सूची बनाएँ जिन्हें आप अपना निकटजन व हितैषी मानते हों, और, उन अपेक्षाओं की भी जो आप को इन सबसे हैं। अब आप यह समझ लीजिए कि आपकी सूची में जो कुछ है वही सब अपेक्षाएँ उन लोगों को भी आपसे हैं। आप अपनी अपेक्षाओं को त्याग दें व देखें कि आपकी शुद्ध ऊर्जा के फलस्वरूप वे आपको आपके असल रूप में ही स्वीकार करेंगे व, धीरे धीरे, आप से अपनी अपेक्षाएँ भी कम करते जाएँगे। प्रकृति अपना कार्य इसी प्रकार करती है। आप मेरे कथन पर विश्वास मात्र न करें बल्कि इस पर चलें व स्वयं अनुभव करें व देखें।
दूसरों की आपसे अपेक्षाएँ
ये आपको तनाव देने के लिए रची गई हैं। आप अपने साथियों, वरिष्ठ अधिकारियों, मित्रों व परिवार की ओर से सदा एक दबाव में रहते हैं। आपने अपना भार उन पर लाद रखा है, व उन्होंने आप पर। केवल मूलभूत अपेक्षाओं को छोड़ कर, अन्य संपूर्ण बोझ को फेंका जा सकता है। भले आप उनकी अपेक्षाओं पर पूरे उतरें अथवा नहीं, किंतु उनका अहसास मात्र भी आप पर असर डालने व आपकी पहले से उद्विग्न मन:स्थिति को और व्यथित करने के लिए पर्याप्त है। जब अपने आप से अपेक्षाओं के प्रति आप स्पष्ट हैं और दूसरों से कोई भी अपेक्षा न रखने में आप सफल हो जाते हैं, तब दूसरों को भी आपसे कोई अपेक्षा नहीं रहेगी। यह स्वत: हो जाएगा। आपका नवनिर्मित 'स्व' (व्यक्तित्व) दूसरों को व उनकी अपेक्षाओं को मूक रूप से स्वत: अनुबंधित कर देगा।
आप जीवन में कुछ भी करें, किंतु कभी भी नैतिकता का मार्ग त्याग न करें। यही परम आनंद का आधार है, व सभी सद्गुणों की जननी। एक सदाचार से युक्त जीवन, चाहे जितना व्यस्त या उलझा हुआ क्यों न हो, अंतत: परम शांति में ही परिणित होगा।
गत जून में अपना लेख लिखने के पश्चात मैंने कामाख्या देवी (पूर्वोत्तर भारत, असम) की यात्रा की। मुझे वहाँ एक महत्त्वपूर्ण दीक्षा-संबंधी साधना संपूर्ण करनी थी। वहाँ मुझे विभिन्न बौद्ध-स्थलों के भ्रमण का समय व अवसर प्राप्त हुआ। अधिकांश स्थल जीवंत पर्वत श्रेणियों के रमणीय स्थानों पर बने हुए हैं। वहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य अवरणनीय है। वहाँ के भ्रमण से मेरी निजी धारणाएँ और अभिपुष्ट हुईं कि आध्यात्मिकता को संस्थागत ताना-बना ओढ़ाने का प्रयास सदा उसे अन्य धर्मों की ही भाँति, एक और नये धर्म का रूप दे देगा, जिसका संपूर्ण बल मान्यताओं के पालन पर ही होगा, न की नये अन्वेषण पर। आध्यात्मिकता पर जब धर्म की छाप लग जाए तब वह निष्प्राण हो जाती है। खोजने नहीं करने में व्यस्त, वहाँ के लामा (बौद्धभिक्षु), सत्य का अन्वेषण न करके, मान्यताओं के आचरण में संलग्न थे।
एक परिभ्रमी तपस्वी के रूप में मैं पूर्वोत्तर हिमालय में विचरता रहा व, अंतत:, सुदूर जंगल में स्थित एक झोंपड़ी में ठहर गया। हालाँकि यह स्थान साधना के मेरे पिछले स्थान की भाँति एकांत तो नहीं था, तथापि यह अत्यंत शांत व सुरम्य था। मैंने वहाँ एक माह लंबी मंत्र-साधना संपन्न की। ओह! क्या परम आनंद था।
मैं क्या बताना चाह रहा हूँ इसे समझने के लिए आपको हिमालय के शांत वातावरण का स्वयं अनुभव करना होगा। ऐसे परम शांत वातावरण में ही आप अपने विचारों की डोर को पकड़ पाएँगे व मन के परमवास्तविक स्वरूप को खोज पाएँगे। वहाँ आप वास्तविक सौंदर्य का परिचय पाते हैं। और, सौंदर्य दृष्टा की निगाह में नहीं, वरन निहारने वाले के मन में विराजित होता है। जितनी उत्तमोत्तम मन की शुद्धता, उतना उत्तमोत्तम सौंदर्य का आभास; और जितना शांत व मौन से भरा मन, उतना दीर्घ कालीन वह अनुभव। एक खाली मन शैतान का घर नहीं होता, वरन भावातुर मन होता है। शून्य-भाव तो वास्तव में दिव्यता का आशीर्वाद होता है।
एक स्थिर व शांत मन, जिसने अपने स्वरूप की खोज संपन्न कर ली हो, वह आपको स्वतंत्र कर देगा। आखिरी बार आपने कब स्वतंत्रता का आभास किया था? संपूर्ण स्वतंत्रता - उस नदी की भाँति जो स्वच्छंद रूप से बहती जाती है; उस वायु की भाँति जिसे बाँधा नहीं जा सकता; उन पक्षियों के जैसे जो सुदूर गगन मैं उड़ते चले जाते हैं, अथवा तो उस भिक्षु की तरह जिसने सभी सांसारिक आडंबर त्याग दिए हों, और जो भय, कुंठा, लज्जा व अन्य मान्यताओं से ऊपर उठ चुका हो जो पहले कभी उसकी चेतना को मलिन कर चुकी हों!
एक अंतिम विचार जो दन्त-प्रक्षालन के दौरान उपजा -
जीवन एक टूथपेस्ट की ट्यूब के समान है। सर्वप्रथम यह भरी हुई व भरपूर मात्रा में प्रतीत होती है। आरंभिक कुछ दिन के उपयोग में ऐसा ही प्रतीत होता रहता है। उसके पश्चात इसके आकार पर पिचकने का एक निशान बन जाता है। उसके बाद, हर बार दबाने के उपरांत, उस ट्यूब के आकार को पुन: व्यवस्थित करना पड़ता है, यदि आप वस्तुओं को उनके ठीक रूप में ही देखने के अभ्यस्त हैं। अभी आप ट्यूब के अर्ध-भाग तक ही पहुँचे होते हैं कि अब आपको उसे हर बार नीचे से ऊपर की ओर दबाना पड़ता है। शीघ्र ही आप उसके अंतिम छोर तक भी पहुँच जाते हैं। और, जब आपको लगने लगता है कि ट्यूब खाली हो चुकी है, तब उसे और अधिक दबाने से कुछ और बाहर आ जाती है। शायद ही कोई टूथपेस्ट को पूरा खाली कर पाता हो। अंतिम कुछ उपयोग आपको नई टूथपेस्ट क्रय करने का अवसर देते रहते हैं, ताकि आप टूथपेस्ट से पूर्णत: वंचित न हों, चूँकि अब वह उसी प्रकार सपाट हो चुकी है जैसे ऋण में डूबा अथवा अपेक्षाओं से दबा मनुष्य!
इसी प्रकार, आरंभ में जीवन लंबा, संपूर्ण व समुचित प्रतीत होता है। बाल्यावस्था त्वरित गति से निकल जाती है। तत्पश्चात, अधिकांश समय परस्पर समझौते की स्थिति रहती है, तब, एक दिन, आप स्वयं को आखिरी छोर पर पाते हैं, बहुत परिश्रम से इसे दबाते हुए कि कुछ बाहर आ जाए। किंतु, टूथपेस्ट की ही तरह, जब आप पुरानी काया त्याग देते हैं तो एक नूतन जीवन आपकी प्रतीक्षा कर रहा होता है। जीवन वैसा ही बनता है जैसा आप इसे बनाते हैं। आपके शरीर के अरबों तंतुओं में, हर तंतु के केंद्र में नाभिकीय ऊर्जा विद्यमान है। यह आप के ऊपर निर्भर है कि उसे आप रेडियो-धर्मिता के भय से सुप्तवस्था में ही पड़े रहने दें अथवा उसमें से महान उपयोगी न्यूक्लियर रिऐक्टर का निर्माण कर लें, अथवा तो आपकी नकारात्मक सोच आपसे इसका दुरुपयोग कर भीषण संहार के अणुशस्त्र बनवा डाले।
जाएँ, व आनंद लें। जीवन के आंतरिक सौंदर्य को बाह्य रूप दें, न कि उसकी नकारात्मकता को। अपनी सारी चिंताएँ छोड़ दें चूँकि भाग्य की पुस्तक में जो लिखा है वह तो होकर गुज़रेगा ही। व्यर्थ के जीवन-संघर्ष का त्याग करें। हर एक क्षण को बीतते हुए निहारें। अंत:करण में व्याप्त चिर यौवन सौंदर्य, आनंद व प्रसन्नता से भरपूर अमृत भंडार की खोज करें। अपने जीवन का आनंद अन्य लोगों के साथ मिलकर लें, उस टूथपेस्ट की भाँति जिसे मिल बाँट कर उपयोग किया जाता है; किंतु स्वयं आप अपनी निजता में स्थित रहें, वैसे ही जैसे टूथब्रश, जिसे किसी के साथ साझा नहीं किया जाता।
शांति।
स्वामी
[वस्तुत: एक ईमेल के रूप में लिखा गया और जून २०१४ में संपादित किया गया]
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