मेरा सत्य

भीड़ भरे वाराणसी और हिमालय के पर्वतों के पार परमानंद का शांत सागर था। यह है मेरी आध्यात्मिक यात्रा का संक्षिप्त विवरण।
पिछले कुछ समय से मैंने लिखा नहीं। मैं आप सबके साथ कुछ जानकारी बाँटने को तैयार हूँ। यह रहा मेरे विषय में सब कुछ (कैसे, कब, कहाँ, क्या), तीन समयावधि में विभाजित। मैं इसे संक्षिप्त रखने का प्रयास करूँगा।

१५ मार्च २०१० की दोपहर को मैंने अपनी आध्यात्मिक यात्रा के लिए प्रस्थान किया। मैं वाराणसी गया। १८ मार्च तक मैंने अपने गुरु को ढूँढ़ लिया था - वाराणसी से ८० किलो मीटर उत्तर दिशा में एक छोटे से गाँव में। उन्होंने मुझे ११ अप्रैल को सन्यास धर्म में दीक्षित किया। मेरे गुरु एक ७५ वर्ष की आयु के नागा संत हैं। मैंने उनका आश्रम चार मास उपरांत छोड़ दिया क्योंकि मैंने अपना सत्य जानने के लिए सन्यास लिया था; वह चाहते थे कि मैं उनकी संपत्ति का ध्यान रखूँ व उनका स्थान लूँ। मैं एक "आध्यात्मिक व्यवसाय"  नहीं संभालना चाहता था। मैं हिमालय आ गया। बद्रीनाथ से ६ किलो मीटर उत्तर दिशा में और आगे, नीलकंठ जाने के रास्ते में, मुझे एक पर्वत चोटी पर, जिसका नाम नारायण पर्वत है, एक उपयुक्त गुफा मिली। वहाँ से अनेकानेक जल-स्त्रोतों, बहुत से झरनों व हिमालय की अद्वितीय पुरातन विशुद्धता का विस्मयकारी दृश्य देखते ही बनता था। मैंने वहाँ दो महत्त्वपूर्ण साधनायें कीं।

दो महीने उपरांत, अपनी साधनाएँ संपूर्ण करने के पश्चात मैं भगवान जगन्नाथ जी (पुरी) की शरण में गया। मैंने उड़ीसा में लगभग २ सप्ताह एक अनुकूल समुद्र तटीय स्थान की खोज में व्यर्थ बिताये। मैं पुनः हिमालय आ गया। इस बार मैंने हिमालय के घने जंगल में एक सुदूर एकांत स्थान को चुना। मैं इस स्थान के विषय में विस्तार से फिर कभी बताऊँगा। संक्षेप में, यह स्थान भव्यता से भरपूर था। जंगली जानवर जैसे हिरण, बनैला सूअर (वाराह), भालू तथा विकराल जंगली चूहों से प्रवासित इस स्थान की भव्य छटा थी। यह प्रकृति के गोल्फ कोर्स समान था। मैंने वहाँ अपनी साधना १९ नवंबर को प्रारंभ की। ५ जनवरी को अपनी सबसे महत्त्वपूर्ण साधना आरंभ करने से पूर्व मैं २७ दिसंबर को, एक दिन के लिए, वहाँ से नीचे आया आप सब को ई-मेल भेजने के लिए। यह साधना १५० दिन तक चली। ध्यान व ऐसी अन्य क्रियाएं १७ घंटे का समय लेतीं। मैं वापस आने पर उस पर विस्तार से चर्चा करूँगा। प्रभु की असीम कृपा से वह सफलतापूर्वक संपन्न हुई। मेरी साधना के अंत के १०० दिनों में पूर्ण एकाकीपन व एकांत था; अपने स्वयं के विचारों से भी परे। इसके परिणाम ने मुझे परिपूर्ण कर दिया है।

मैं अपने अभी के निवासस्थान के विषय में नहीं बता सकता। किंतु मैं प्रसन्न व सकुशल हूँ व परम आनंद में हूँ। परमानंद, जो मुझ पर लगभग हर पल आच्छादित रहता है। मैंने अपनी ध्यानावस्था को हर समय बनाए रखना सीख लिया है, बाहरी संसार की अवस्था से अभिन्न, वह भी हर समय हर क्षण। मैं अपनी आध्यात्मिक यात्रा के अगले व अंतिम गंतव्य की ओर प्रस्थान कर रहा हूँ।

मेरी अगली व समापक साधना सही मायने में साधना न हो कर, एक परीक्षण है। मेरी आधारभूत व प्रमुख साधना संपन्न हो चुकी है। मैंने वह पा लिया है जो मैं ढूँढ़ रहा था। वह सामने आ गया है। मैंने उसे समझ लिया है। सब कुछ सुस्पष्ट है। १३ फ़रवरी को, और फिर पुनः ११ मई को, मैंने अपने इष्ट के सुस्पष्ट दर्शन किए। उसके पश्चात जिस परमानंद से मेरा संपूर्ण शरीर हर समय आच्छादित रहता है, वह भाव हर क्षण मेरे साथ है। मैं स्वेच्छा से किसी भी समय वापस उस स्थिति में जा सकता हूँ। एक ऐसा अस्थिर अनुभव जिसे आप पुनः महसूस नहीं कर सकते वह शायद ही किसी काम का हो। यदि हमने अपने प्रयास से कुछ अनुभव किया है, तो हमारा उसे अपनी इच्छानुसार पुनः अनुभव कर पाने में सक्षम होना अनिवार्य है। यदि हमने एक सुनिश्चित ढंग से कोई कार्य किया है तो वही स्थितियाँ पुनः बनाने पर वही अनुभव पुनः होना चाहिए। इस विषय में मैं अपनी वापसी के पश्चात और लिखूंगा। अपनी समापक साधना पूर्ण करने के पश्चात मैं वापस आकर आप सब को मिलूँगा। इस मेल के अंत में मैं अपने लौटने की तिथि बताऊँगा। उससे पहले, मैं अपनी उपलब्धियों का सारांश आप के साथ बाँटना चाहूँगा, जो इस प्रकार है- 

बुद्ध ने स्थापित किया कि कोई ईश्वर या ईश्वरीय सत्ता नहीं है। कृष्ण ने घोषित किया कि मैं ही भगवान हूँ। आइंस्टाइन ने कहा कि सब कुछ ऊर्जा का मिलाजुला स्वरूप है। मीरा ने अपना सत्य कृष्ण में पाया, रामकृष्ण परमहंस ने काली में, तुलसीदास ने राम में, शंकराचार्य ने अद्वैत में ओर बहुत से अन्य लोगों ने अपनी तरह से अपना सत्य पाया। अधिकतर लोग यह मानते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार इत्यादि उनके लिए लाभदायक नहीं हैं; फिर भी वे यह सब क्यों करते हैं? मैं अपना सत्य स्वयं अनुभव करना चाहता था। अपने अनुभव व अपनी वर्तमान अवस्था को शब्दों में वर्णित करने में मैं अपने को पूर्णतः अक्षम पा रहा हूँ।

आत्म-साक्षात्कार कोई आकस्मिक मिला लाभ नहीं है। यह कोई अचानक आई भावना नहीं है। ऐसी आत्मानुभूति की वैचारिक अवधारणा एक 'अविर्भाव' प्रतीत हो सकता है, किंतु वास्तविक उपलब्धि इससे बहुत भिन्न है। आत्म-साक्षात्कार का अनुभव हर वह व्यक्ति कर सकता है जो इसके लिए प्रयत्न करने को तैयार है। ऐसी आत्मानुभूति के पश्चात आप के पास केवल उत्तर ही होंगे। तब आप के पास कोई प्रश्न नहीं होंगे। बौद्धिक स्तर पर आप मूल दर्शन-तत्व या सैद्धांतिक मूल्यों को समझ तो सकते हैं, किंतु, हो सकता है यह जानकारी आप को और अधिक कट्टर बना दे। आप केवल जानकारी रखने तक ही सीमित रह जाएँगे, बिना उसकी प्रामाणिकता की पुष्टि किए।

यदि आप मानते हैं कि ईश्वर साकार हैं तो आप उनके साकार रूप का इसी जन्म में दर्शन कर सकते हैं। यदि आप मानते हैं कि ईश्वर निराकार हैं, तो आप आने वाले समय में गहन समाधि का अनुभव कर सकते हैं। यही है जो मैंने अनेकानेक बार अनुभव किया। आप का संसार आप के विचारों से बना है। यदि आप के संसार में एक साकार ईश्वर हैं और आप के विचार, हर समय हर क्षण, उसी के विषय में हैं, तो उनकी वही छवि आप के सामने प्रकट हो जाएगी। यदि आप के संसार में परमानंद है, और आप के विचार, हर समय हर क्षण, उस परमानंद पर ही केंद्रित हैं, तो आप को उस परमानंद का अनुभव होगा। हालाँकि वह एक कठिन कार्य है क्योंकि केवल एक विचार पर, एक लंबी समयावधि तक ध्यान लगाने के लिए एक पूर्णतः स्थिर एवं एकाग्र मन चाहिए। एक प्रारंभिक प्रबल प्रयास द्वारा यह प्राप्त किया जा सकता है।

जैसे एक नव-साक्षर को आरंभ में पढ़ना कठिन प्रतीत होता है, किंतु कुछ समय पश्चात वह प्रवीणता प्राप्त कर लेता है; आप का भी मार्ग में अनेकानेक बाधाओं से सामना होगा। यदि आप मार्ग पर सुदृढ़ रहें तो आप अवश्य ही लक्ष्य तक पहुँच जाएँगे। मुझे यह ज्ञात हुआ है कि यदि आप भक्ति अथवा ध्यान ग़लत ढंग से करते हैं, तो आप कभी भी लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते। विभिन्न ग्रंथों अथवा भाष्य-टीकाओं में वर्णित आनंदमय अनुभव अथवा इसी प्रकार के दूसरे असाधारण दावों जैसा कुछ भी आप अनुभव नहीं करेंगे। यदि आप इसे सही ढंग से कर सकते हैं, तो आप एक अल्पावधि में अपने ईश्वर-तत्व को अनुभव करके प्रकट कर सकते हैं। परंतु मुझे यह निश्चयपूर्वक कहना होगा कि इसके लिए अत्याधिक गहन प्रयत्न की आवश्यकता होगी।

अपने लौटने पर मैं यह स्पष्ट करूँगा कि मेरे दृष्टिकोण से "सही" क्या है। सत्य अत्यंत सरल है और आप सब इसे जानते भी हैं। किंतु इसे अनुभव करना एक बिल्कुल ही भिन्न अध्याय है। अधिकतर लोग सही और ग़लत का भेद जानते हैं, फिर भी वे स्वयं को बारबार अनैतिक व अवांछनीय कृत्यों में उलझा हुआ क्यों पाते हैं? ऐसा इसलिए है कि उनका मन वश में नहीं है। एक अशांत मन व उसकी चित्तवृतियाँ उन्हें संसार का अनुभव व आनंद केवल अपने शरीर द्वारा ही लेने को बाध्य करती हैं। अनुशासन की परिशुद्धता, चाहे भक्ति में अथवा ध्यान में, मन वश करने में आप को सहायक हो सकती है। तब आप एक अवर्णननीय, अनवरत बहते आनंद की अनुभूति करेंगे। मैं इसके विषय में पढ़ा करता था, और, इधर-उधर कुछ अनुभव भी किए थे। 'समाधि' का वास्तविक सतत् अनुभव अविश्वसनीय है। वह परम आनंद सदा सर्वदा आप के साथ है - केवल थोड़े से प्रयत्न मात्र से।

मैं सत्य की बौद्धिक धारणा और उसे वास्तव में अनुभव करने के बीच के अंतर को स्पष्ट करना चाहूँगा। मान लीजिए कोई मोतियाबिंद से पीड़ित है। उस व्यक्ति को अपनी दृष्टि की विकृति का ज्ञान है। क्या वह ज्ञान मात्र उसकी दृष्टि ठीक करने के लिए पर्याप्त है? वह जानता है कि समस्या कहाँ है, वह जानता है कि उसी के परिणामस्वरूप वह ठीक से देख नहीं पा रहा। वह यह भी जानता है कि मोतियाबिंद का आपरेशन करवा लेने से उसकी दृष्टि ठीक हो जाएगी। बौद्धिक रूप से वह सब जानता है। वह उसे समझता है। किंतु वह समझ उसे बिना परेशानी के देख पाने में कोई सहायता नहीं करती। उसकी क्षीण दृष्टि किसी बौद्धिक दोष का परिणाम नहीं है। इसलिए वह किसी वैचारिक समझ या सुधार द्वारा ठीक नहीं की जा सकती। उसे अपनी दृष्टि पुनः ठीक करने के लिए आपरेशन करवाना ही होगा। इसी प्रकार आप का संसार के प्रति विकृत दृष्टिकोण या आप का भ्रमित चित्त कोई बौद्धिक समस्या नहीं है।

किसी एक दर्शन-शास्त्र का समर्थन करना या किसी विशेष दार्शनिक सिद्धांत की सत्यता पर विश्वास कर लेना - यह दोनों ही मन:क्षेत्र के कार्य हैं। यह आप को आप की अपनी सत्यता जानने में सहायक नहीं हो पाएँगे; समाधि अथवा अपने इष्ट के दर्शन तो दूर की बात है। सबसे सुंदर बात तो यह है कि आप अपनी वास्तविक सत्ता का अनुभव कर सकते हैं एवं आप उस अनवरत बहने वाले आनंद का भी अनुभव कर सकते हैं - अपने मन को स्वयं के वश में करने से। एक ऐसा मन जो शांत नहीं है व पूर्ण रूप से वश में नहीं है, आप को भक्ति अथवा ध्यान, सही विधि व पवित्रता से नहीं करने देगा। ऐसी शुद्धता के अभाव में आप का कोई गूढ अनुभव कर पाना कुछ असंभव सा है। यदि एक बार आप अपने अनुभव को दोहराने में सफल हो जाते हैं, आप का संसार सदा के लिए बदल जाएगा। आप अंतर्मुखी हो चुके होंगे। पूर्णतः। आप इन तीन अवस्थाओं से गुज़रेंगे - 

पराश्रित
यह प्रथम अवस्था है। आप हर प्रकार से संसार पर आश्रित हैं। उनकी टीका-टिप्पणी अथवा आलोचना आप में सकारात्मक या नकारात्मक भाव जगाते हैं। उनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति से आप को अच्छा या बुरा अनुभव होता है। उनके कार्य आप को प्रसन्नता या दु:ख दे सकते हैं। सारांश में, आप के विचारों की दुनिया में बहुत से व्यक्ति हैं। परिणामस्वरूप, आप का जीवन उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता है। आप एकांत में नहीं रह सकते। एक बार आप अंतर्मुखी होना आरंभ करते हैं व वस्तुतः अपने हर एक कृत्य में सांसारिक, आध्यात्मिक व नैतिक अनुशासन की परिशुद्धता ले आते हैं, तो आप  दूसरी अवस्था में पहुँच जाएँगे।
                                                                    
स्वाश्रित
अविचल नैतिकता व अनुशासन की परिशुद्धता द्वारा आप अपना दृष्टिकोण स्वयं बनाना आरंभ कर देंगे। अपने एवं अपने संसार के प्रति स्वयं का दृष्टिकोण। एक ऐसा दृष्टिकोण जो इस बात से अधिकतर अप्रभावी रहेगा कि अन्य व्यक्ति आप के विषय में क्या सोचते हैं। फिर भी, अभी भी, वे व्यक्ति आप की अपने स्वयं के विषय में जो सोच है - उसे प्रभावित करने में सक्षम होंगे। जैसे जैसे आप अधिक स्वाश्रित होते जाएँगे - एकांत आप का, काफ़ी हद तक, मित्र बन जाएगा। एक ऐसा मित्र जिसके साथ आप को यदा कदा समय बिताना अच्छा लगेगा। आप की मानसिक अवस्था कुछ स्थिर होनी आरंभ हो जाएगी, और आप पाएँगे कि ऐसे बहुत से कार्य जो करने ही होते हैं, आप उन्हें करने में आनंदित हो रहे हैं। फिर भी, जब भी, असावधानी होगी, आप का अंत:करण अभी भी अशांत विचारों व भावों से पराजित होता रहेगा। संसार के प्रति आप का दृष्टिकोण अभी भी आप के द्वारा अर्जित सुनी-सुनाई जानकारी पर आधारित होकर ही सामने आएगा।  जैसे-जैसे आप को अपने वास्तविक स्वरूप की झलक मिलने लगती है, और आप अनवरत रूप से, न कि अन्धा-धुन्ध प्रकार से, आत्म-शुद्धि की ओर बढ़ते रहते हैं; आप तीसरे स्तर पर पहुँच जाएँगे।
                                                                 
स्वाधीन (स्वतंत्र)
आप उस परम-आनंद का अनुभव करते हैं जो आप के संपूर्ण अस्तित्व में व्याप्त हो चुका है। आप तेज-पुंज हो जाते हैं और अब आप को कहीं भी, किसी भी प्रकार की उलझन नहीं है। अब आप को हर बात समझ आ रही है। आप को  बोध हो चुका है। अब आप अपने मन के कहे अनुसार नहीं चलते। आप के पास एक स्थिर मन है जिस में कोई विचार नहीं है और आप में परम-बोध व परम-चेतना का उदभव हो चुका है। एक बार आप अपने मन की पुरातन-पवित्रता को खोज लेते हैं, तो आप अपने आसपास की सारी वास्तविकता को समझ जाएँगे व जान जाएँगे। आप अपने को सांसारिक भावनाओं से अछूता पाएँगे। अब आप का सांसारिक भोगों की ओर कोई झुकाव नहीं रहता और न ही आप में किसी प्रकार की कोई अभिलाषा बची है। और तो और, आप के आध्यात्मिक अनुभव भी अब आप के लिए अधिक मायने नहीं रखते। आप स्वतंत्र हो जाते हैं। और यही है आप का वास्तविक स्वरूप। हर क्षण - हर पल, एक आनंदमयी अवस्था में; आप जो भी कार्य करते हैं, सबका एक ही परिणाम - आनंद। आप किसी भी क्षण अपने इष्टदेव के दर्शन व अपनी समाधिस्थ अवस्था से अलग नहीं हो पाएँगे। आसपास के सभी प्राणी भी आनंद का अनुभव करेंगे, बिल्कुल ऐसे ही जैसे सूर्य के समीप जाने पर, बिना किसी पक्षपात के, हर कोई सूर्य के ताप का आनंद लेता है। जब कभी भी आप कुछ देखते हैं या किसी को देखते हैं, तो उन्हें केवल आनंद का ही आभास होगा।

मेरे अनुभव में यह आया है कि आप अपने इसी जीवन काल में स्वतंत्र अवस्था तक पहुँच सकते हैं। हालाँकि यह आसानी से नहीं होता। उत्कट प्रयास के साथ सही स्थितियाँ व संतुलन आवश्यक हैं। मैं इस पर आने वाले समय में कभी विस्तार से लिखूंगा। यह ईमेल न तो सही मंच है और न ही सही माध्यम, अपने सत्य पर विस्तृत प्रकाश डालने के लिए। फिर भी मैंने आप के साथ आवश्यक जानकारी बाँट ली है।

अब यह कोई भ्रम नहीं रहा। ऐसा कुछ भी नहीं बचा जिस की मुझे खोज हो। ऐसा कुछ भी नहीं है जो मुझे अभी और प्राप्त करना है। अपने संकल्प हेतु व अपने सत्य को कसौटी पर परखने के लिए, मुझे अभी कुछ और समय एकांतवास में बिताना है। मैं अपने सत्य का विवरण आप के साथ बाँटने को उत्सुक हूँ, यदि आप उस आनंद का अनुभव करना चाहते हो जिसे आज के युग में संभवतः आप केवल दृष्टांत कथा मात्र मान चुके हों।

और कब तक आप नाहक ही नीरस कामों में लगे रहेंगे? क्या आप तब तक बाज़ार के चक्कर काटते ही रहेंगे  जब तक कि अधिकारी आप का लाइसेंस पुनः बनाने के लिए मना न कर दे चूँकि आप रास्ते के अवरोध को देख पाने में अब अक्षम हैं! क्या आप किसी वस्तु अथवा व्यक्ति की राह देख रहे हैं? और कब तक आप बिना स्वाद की कॉफी के घूँट भरते रहेंगे? क्या आप अपना संसार अभी भी व्यक्ति-विशेष के इर्द-गिर्द ही बनाए रखेंगे? क्या आप ऐसे ही वृद्ध हो जाएँगे और अपने बच्चों के फ़ोन-काल मात्र से संतुष्ट होते रहेंगे?

एक दिन आप एक ऐसी दस्तक द्वारा गहरी नींद से उठाए जाएँगे, जो केवल आप को ही सुनाई देगी। वह दस्तक ऐसी होगी जो आप को आप की अंतिम निद्रा में ले जाएगी। उस घड़ी आप को महसूस होगा कि आप का अंतिम भोजन तो हो चुका, अंतिम फ़ोन-काल, अंतिम ईमेल, अंतिम नींद, आप का अंतिम स्नान व अंतिम वार्तालाप - सब हो चुका! हाँ, निर्णायक शब्द किसी और का होगा, वह आप का नहीं होगा। आप की यहाँ रहने अथवा जाने की अभिरुचि की बड़ी निर्दयता से उपेक्षा कर दी जाएगी।

मैं आप को दुनिया से सन्यास लेने की सलाह नहीं दे रहा। इसके विपरीत, मैं आप से जीवन जीने की कला सीखने की याचना कर रहा हूँ। शालीनता से, शांति से,  ईश्वर-कृपा का आनंद लेते हुए, संसार के प्रति सही दृष्टिकोण एवं अपने स्वयं की सत्य की अनुभूति के साथ। आप अपने स्वयं के घर में रहते हैं; अपने स्वयं के वस्त्र धारण करते हैं; अपना स्वतंत्र काम-धंधा करते हैं; अपनी स्वयं की कार चलाते हैं; किंतु संसार के प्रति दृष्टिकोण व अपने स्वयं के प्रति दृष्टि - ये आप के अपने नहीं हैं। यह, निरंतर, आप के आसपास की दुनिया से प्रभावित रहता है। यह इस रूप में नहीं होना चाहिए।

जब आप अपने वास्तविक स्वरूप को खोज लेते हैं, तब आप समस्त सांसारिक क्रिया-कलापों के मध्य रह कर भी एक सन्यासी हो जाते हैं। आप अपनी वर्तमान जीवन शैली अपनाए रख सकते हैं और बार-बार भावनात्मक उतार-चढ़ाव से गुज़रते रह सकते हैं; अथवा तो आप अपनी दिव्यता का अनुभव कर सकते हैं, उसे अनावृत कर सकते हैं। तैराक भले नौसिखिया हो या कुशल, वह या तो एक ऊँची लहर की प्रतीक्षा कर सकते हैं, अथवा लहरों पर बहना आरंभ कर सकते हैं। आवश्यकता यह है कि आप कम से कम एक ईमानदारीपूर्ण, सतत, दृढ़, गंभीर प्रयास तो करें। अपने चारों ओर देखें। कितना कुछ अनचाहा है। क्या आप को इस सब की अपने जीवन में आवश्यकता है? अपने अंत:करण को खाली करना आरंभ करो तो बाहर अपने आप साफ हो जाएगा। अपने आसपास के अवांछनीय तत्व हटाने शुरू करो तो आप का अंत:करण स्वत: निर्मल होने लगेगा। अपना स्वयं का जीवन सबके साथ जियो, किंतु सबके प्रभाव में नहीं। आप का स्वयं का प्रारूप। आप अपने सच की स्वयं की की गई खोज से अचंभित हो जाएँगे। आप आश्चर्यचकित, मंत्र-मुग्ध व दंग रह जाएँगे, व अपने को पूर्ण रूप से तृप्त पाएँगे। आप मुक्त हो जाएँगे।

यह जीवन एक कार की लंबी यात्रा के समान है। यहाँ रास्ते में चलते कुछ मोड़ होंगे, कुछ रुकने के बोर्ड, कभी एक या दो चालान होंगे, आसपास कुछ सुन्दर दृश्य, कुछ एक गड्ढे, कभी कार में खराबी भी आ जाएगी... पर आप आगे बढ़ते ही जाते हैं जब तक गंतव्य स्थान पर नहीं पहुँच जाते; और फिर, आप वापस अपने घर आना चाहते हैं। आप इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि गंतव्य तक पहुँचना उतना आवश्यक नहीं था जितना अपनी यात्रा का आनंद लेना, क्योंकि गंतव्य तो एक और पड़ाव मात्र होता है। जाओ और आनंद लो! परंतु अंतर्मुख हो कर। बाहर की यात्रा एक भ्रम है, अंदर की यात्रा के समान दूसरा कोई सत्य नहीं। बाह्य यात्रा तो मानो आप के चारों ओर ट्रैफिक चल रहा है, जबकि अंत:करण की यात्रा में आप अपनी कार स्वयं चला रहे होते हैं। आप मार्ग बदल सकते हैं और कम भीड़ के समय बाहर निकल सकते हैं या एक अलग रास्ता पकड़ सकते हैं, जहाँ ट्रैफिक बहुत कम हो। आप जो निर्णय अंतर्मन में लेंगे वे आप के बाह्य जीवन को बदल देंगे। इस समय के लिए मैं इस विषय को विराम देना चाहूँगा, ताकि यह ईमेल एक पुस्तक न बन जाए। अपने कुछ बचे हुए कार्य संपन्न करने के पश्चात, मैं आप सबको मिलूँगा। ऐसा इसी वर्ष में हो जाना चाहिए। जो दो तिथियाँ इस समय मेरे मन में हैं वे हैं - ९-१०-११ (नौ अक्तूबर) या ११-११-११ (११ नवंबर)। यह मेरी पहले भेजी जानकारी से लगभग पूरा एक वर्ष पहले है। मैं आप सबसे मिलने को उत्सुक हूँ व मैं आप सबको धन्यवाद देता हूँ। मुझे वह प्राप्त हो गया है जो मुझे चाहिए था। यह मिलने के उपरांत मुझे आभास हुआ कि मैं वह हो गया हूँ जो मैं बनना चाहता था। इस उपलब्धि से मुझे यह स्पष्ट हुआ कि मैं स्वयं ही बोध हूँ। वहाँ तो "मैं" भी नहीं था। आने वाले कुछ सप्ताहों में आप को पुन:  लिखूंगा। और मैं अवश्यमेव ही अगस्त तक एक तिथि भी निर्धारित कर लूँगा और आप को बता दूँगा।

मैं आप सबके लिए शांति की कामना करता हूँ। कृपया मेरी ओर से शीघ्र ही दुबारा वार्तालाप की अपेक्षा रखें।

कृपया यह संदेश उन सबको भेज दें जिनकी इच्छा यह सब जानने की थी और उन अन्यान्य लोगों को भी जिन्हें आपके विचार में इससे कोई लाभ हो सकता है।

स्वामी

[वस्तुत: एक ईमेल के रूप में लिखा गया]

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